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बढ़ते राजकोषीय अवरोध

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 8:30 AM IST

वित्त वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट की एक आलोचना यह है कि इसमें कोविड-19 के बाद व्यापक आर्थिक समस्याओं से पार पाने के लिए अपर्याप्त व्यय का प्रावधान किया गया है। चालू वर्ष में व्यय बढऩे की मुख्य वजह सब्सिडी का पारदर्शी लेखांकन है। संशोधित अनुमानों के मुताबिक राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष में बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 9.5 फीसदी रहेगा। यह वित्त वर्ष 2022 में 6.8 फीसदी अनुमानित है। साफ तौर पर ये छोटे आंकड़े नहीं हैं और इन्हें सार्वजनिक कर्ज में अहम बढ़ोतरी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सार्वजनिक कर्ज चालू वित्त वर्ष में जीडीपी के करीब 90 फीसदी पर पहुंचने के आसार हैं। इस चीज पर गौर करना महत्त्वपूर्ण है कि घाटा आगामी वर्षों में भी ऊंचे स्तरों पर रहेगा क्योंकि नई राजकोषीय राह काफी उदार है। 15वें वित्त आयोग के अनुमानों के मुताबिक सरकारी कर्ज निकट भविष्य में अधिक रहेगा और यह वर्ष 2025-26 में 85.7 फीसदी अनुमानित है।
कर्ज का ऊंचा स्तर वृहद आर्थिक जोखिम बढ़ाएगा। हालांकि यह सही है कि कर्ज का स्तर काफी हद तक कोविड के बाद भारत में वृद्धि पर भी निर्भर करेगा। इस संदर्भ में सरकार का अनुमान है कि वित्त वर्ष 2022 में अर्थव्यवस्था की नॉमिनल वृद्धि दर 14.4 फीसदी रहेगी। अगर यह मानकर चलते हैं कि महंगाई करीब चार फीसदी रही तो वास्तविक जीडीपी वृद्धि 10 फीसदी से मामूली अधिक रहेगी। हालांकि चालू वित्त वर्ष में संकुचन के बाद वित्त वर्ष 2020 के जीडीपी स्तर पर लौटने से अपने आप ही आठ फीसदी से अधिक वृद्धि दिखेगी। इस बात के आसार हैं कि संभावित जोखिमों को मद्देनजर रखते हुए सरकार ने सतर्क रुख अपनाया है। हालांकि अगर आगामी वर्षों में वृद्धि धीमी रही, जैसा कि कुछ अर्थशास्त्री अनुमान जता रहे हैं, तो ऊंचा कर्ज अहम जोखिम पैदा कर सकता है। असल में यह वृद्धि को कमजोर करना शुरू कर देगा।
ज्यादा कर्ज भार और ब्याज देनदारी बढऩे से पूंजीगत एवं सामाजिक क्षेत्र व्यय कम हो जाएगा। इसका वृद्धि की संभावनाओं पर सीधा असर पड़ेगा। उदाहरण के लिए वित्त वर्ष 2022 में केंद्र सरकार के कर राजस्व का 52 फीसदी से ज्यादा हिस्सा ब्याज चुकाने में चला जाएगा। कर्ज और बजट घाटे के ऊंचे स्तर से सरकार की किसी आर्थिक झटके से उबरने के उपायों की क्षमता सीमित हो जाएगी। इसके अलावा सरकार के लगातार अधिक उधारी लेने से बाजार की ब्याज दरेें प्रभावित होंगी। ऊंचे प्रतिफल की मांग की वजह से भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) पिछले सप्ताह सरकारी बॉन्ड नहीं बेच पाया। राज्य सरकारों के लिए भी उधारी की लागत में अहम इजाफा होने लगा है। ऊंची ब्याज दरों का आर्थिक सुधार पर असर पड़ सकता है। लेकिन प्रतिफल को नियंत्रित रखने के लिए केंद्रीय बैंक के लगातार नकदी झोंकने का महंगाई पर असर पड़ सकता है।
वैश्विक स्तर पर कम ब्याज दरों के चलते विकसित अर्थव्यवस्थाएं ज्यादा उदार राजकोषीय नीति अपना रही हैं। भारत यही राह अपनाने की स्थिति में नहीं है। उदाहरण के लिए महंगाई अब भी एक चिंता है और मोटा कर्ज किसी विकासशील देश में जल्द अस्थिरता पैदा कर सकता है। इस तरह ऊंचे सार्वजनिक कर्ज को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक स्थायी अवरोध बनाने के बजाय सरकार को राजस्व जुटाने की अपनी अक्षमता का हल निकालना चाहिए। भारत का कर-जीडीपी अनुपात दशकों से स्थिर बना हुआ है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के भी वांछित नतीजे सामने नहीं आए हैं। 15वें वित्त आयोग ने कहा है कि भारत में कर संग्रह की संभावनाओं के मुकाबले वास्तविक संग्रह में अंतर जीडीपी के पांच फीसदी से अधिक है। सरकार को आधार बढ़ाकर कर राजस्व वृद्धि पर व्यवस्थित तरीके से काम करना होगा। स्थिर कर-जीडीपी अनुपात, अधिक सार्वजनिक कर्ज, कम आर्थिक वृद्धि और शासन की बढ़ती जरूरतों से आगामी वर्षों में नीतिगत चुनौतियां और बढ़ेंगी।

First Published : February 10, 2021 | 11:39 PM IST