साल
2008 का केंद्रीय बजट यादगार रहेगा। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह समय से पहले चुनाव का संकेत देता है, बल्कि इसलिए भी कि यह ऐसे वक्त पर आया है, जब पूरा विश्व 4 अलग–अलग समस्याओं (हालांकि ये एक–दूसरे से जुड़ी हैं) से जूझ रहा है।
पहला, अमेरिका में मंडराता मंदी का संकट, जिसकी वजह से हमारे वित्तीय बाजारों का भी बुरा हाल है। दूसरा, तेल की कीमतों में रेकॉर्ड बढ़ोतरी। तीसरा अंतरराष्ट्रीय बाजार में खाद्य पदार्थों की लगातार ऊंची होती कीमतें। पिछले हफ्ते चावल की कीमत 20 साल के शीर्ष पर पहुंच गई। 1969 केबाद ऐसा पहली बार हुआ है, जब चावल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 500 डॉलर (तकरीबन 20 हजार रुपये) प्रति टन तक पहुंच गई। पिछले 8 महीने में गेहूं की कीमतों में 88 फीसदी का उछाल आया है।
चौथा संकट है जलवायु परिवर्तन का। जलवायु परिवर्तन का प्रकोप पहले से दिखना शुरू हो गया है। इसकेतहत मौसम के मिजाज में भारी उठापटक का आलम है। पूरी दुनिया में कहीं भंयकर बारिश तबाही मचा रही है
, तो कहीं ठंड और कुहासा फसलों को चौपट कर रहे हैं। इस वैश्विक दुनिया की वर्तमान परिस्थितियों केमद्देनजर कोई भी वित्त मंत्री इन हलचलों को बगैर ध्यान में रखे अपने देश केलिए नीतियां तैयार नहीं कर सकता। हालांकि 2008 के केंद्रीय बजट में सिर्फ एक पहलू, अमेरिकी सब–प्राइम संकट को ध्यान में रखा गया है।
वित्त मंत्री ने अपने बजट में न सिर्फ सब–प्राइम संकट की वजह से भारत के वित्तीय बाजारों में पैदा हुए उथल–पुथल का जिक्र किया, बल्कि उनकेबजट में इसकी चुनौतियों से निपटने केलिए उपाय भी किए गए हैं। हालांकि दुनिया के वर्तमान संकट को देखने का यह काफी अदूरदर्शी तरीका है। जिन समस्याओं का जिक्र ऊपर किया गया है, वे सब एक–दूसरी से जुड़ी हैं और सभी हमारी जिंदगी को कहीं न कहीं प्रभावित करती हैं। इन समस्याओं से निपटने केलिए हमें मुकम्मल तैयारी करनी होगी।
एक ओर जहां
, तेल की बढ़ती कीमतें (साथ में इसकेवर्चस्व की राजनीति भी) सरकारों को राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा की जरूरत पर बहस करने को मजबूर कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर जलवायु में हो रहे बदलाव परंपरागत ईंधन का विकल्प खोजने की अनिवार्यता केलिए भी माहौल बना रही हैं। दोनों चुनौतियों का जवाब बायोफ्यूल को बढावा देना है। मसनल मक्का और गन्ना जैसी फसलों से एथनॉल और खाद्य तेलों से बायोडीजल का उत्पादन परंपरागत ईंधन के बेहतर विकल्प साबित हो सकते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका ने अपने मक्का के 20 फीसदी फसलों का इस्तेमाल बायोडीजल के रूप में किया है। इस वजह से मक्का की कीमतों में 60 फीसदी का इजाफा हुआ है। सवाल यह है कि पूरी दुनिया में हो रहे इन बदलावों के क्या मायने हैं और ये किस तरह से ऊपर वर्णित समस्याओं को प्रभावित कर रहे हैं? गेहूं की कीमतों में हुई भारी बढ़ोतरी की एक प्रमुख वजह मक्का की कीमतों का बढ़ना भी है। दरअसल मक्का की कीमतें बढ़ने से खाने में गेहूं की मांग बढ़ गई है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन की वजह से ऑस्ट्रेलिया और कई अन्य मुल्कों में गेहूं की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई, जिसकी वजह से गेहूं के भंडार में भी उल्लेखनीय कमी देखने को मिली।
हालांकि हमारे बजट में इन बड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए ठोस पहल का अभाव दिखता है। किसानों की कर्जमाफी की ही मिसाल लीजिए। इसके मद्देनजर सवाल यह पैदा होता है कि क्या कृषि संकट के इस दौर में कर्जमाफी के जरिए किसानों की समस्या का समाधान मुमकिन होगा
? इसका साधा जवाब होगा– नहीं। सरकार ने फसलों को तैयार करने संबधी खर्च में हो रही बढ़ोतरी को रोकने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया है। किसानों को इस कर्जमाफी से इस संबंध में कोई फायदा नहीं होगा।
खेती से जुड़े बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए किसानों के पास फिर से कर्ज लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। गौरतलब है कि खेती के लिए सरकारी बुनियादी ढांचा नहीं के बराबर उपलब्ध है। वर्तमान में भारत में 3 चौथाई खेती योग्य जमीन की सिंचाई का इंतजाम किसानों द्वारा खुद किया जाता है। इनमें से ज्यादातर किसान सिंचाई के लिए भूजल का प्रयोग करते हैं। इस वजह से भूजल स्तर में भी लगातार कमी हो रही है। नतीजतन किसानों को सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले पंपों के लिए ज्यादा रकम अदा करनी होगी।
किसानों के लागत खर्चों मे हो रही बढ़ोतरी की फेहरिस्त काफी लंबी है। बहरहाल हमें इस तथ्य को स्वीकार करने से परहेज नहीं करना चाहिए कि किसानों का लागत खर्च रोज–ब–रोज बढ़ रहा है और यह किसानों को कर्ज लेने के लिए मजबूर करेगा। हालांकि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में खाद्य पदार्थों की कीमतों में इजाफा हो रहा है, तो हमारे किसानों को भी इसका लाभ मिलना चाहिए। उच्च लागत खर्च के बदले किसानों को फसल की ऊंची कीमतें भी मिलेंगी। लेकिन भारत एक गरीब मुल्क है और खाद्य पदार्थों का बढ़ती कीमतों का खमियाजा हमारी अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ सकता है।
सरकार पहले ही कुछ खाद्य पदार्थों के निर्यात पर रोक लगा चुकी है। सरकार खाद्य पदार्थों की कीमतें तय करने के लिए न्यूनतम मूल्य सूचकांक
(मिनिमम प्राइस इंडेक्स) का इस्तेमाल करती है और हर कमॉडिटी की कीमत नियंत्रण में रखती है। पिछले साल जहां विश्व में खाद्य पदार्थों की कीमतों में 25 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, वहीं भारत में यह बढ़ोतरी 6 फीसदी से भी कम रही। मुद्रास्फीति को बढ़ने से रोकने के लिए भविष्य में भी सरकार के पास कीमतों को नियंत्रित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति में किसानों के लिए कर्जमाफी का कोई मतलब नहीं बनता। सरकार के इस फैसले को महज मजाक करार दिया जा सकता है। वित्त मंत्री ने छोटी कारों को सस्ता कर तेल की बढ़ती कीमतों के जख्म पर नमक छिड़कने का काम किया है, जबकि वित्त मंत्री ने आम आदमी की सवारी बस के लिए उत्पाद शुल्क में कोई कटौती नहीं की है। इसे सिर्फ मजाक ही नहीं, क्रूर मजाक करार दिया जा सकता है।