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भाजपा ने तय किया है महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य

भाजपा को फंड्स के मामले में जरूर बढ़त हासिल है। परंतु बीते 10 सालों में पार्टी रोजगार या समावेशी वृद्धि के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर पाने में नाकाम रही है।

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देवांशु दत्ता   
Last Updated- April 10, 2024 | 10:22 PM IST

वर्ष 2023 के मध्य में अर्थशास्त्री सव्यसाची दास ने एक पर्चा जारी किया था जिसका शीर्षक था- ‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन दी वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’। इसका अर्थ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतंत्र की स्थिति को पहुंच रहे नुकसान से था। इसमें 2019 के लोक सभा चुनाव के दौरान छेड़छाड़ के संकेतों का जिक्र था। इस पर्चे की उनके सहकर्मियों ने समीक्षा नहीं की थी और इसके सामने आते ही भूचाल आ गया। इसके बाद दास को अशोक विश्वविद्यालय में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस घटना का अकादमिक स्वतंत्रता पर गहरा प्रभाव पड़ा।

दास ने ऐसे 59 लोक सभा क्षेत्रों में मतदान के रुझान का सांख्यिकीय अध्ययन किया था जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या तो जीती थी या फिर करीबी मुकाबले में हारी थी। इसके लिए जीत-हार के बीच पांच फीसदी से कम मत प्रतिशत के अंतर को मानक बनाया गया था। अध्ययन में मतदाताओं के दमन पर भी नजर डाली गई थी जिसमें मतदाता सूचियों से मुस्लिमों के नाम हटाए जाने पर खास ध्यान दिया गया।

इसमें उन प्रदेशों के लोक सभा क्षेत्रों को शामिल किया गया जो भाजपा शासित हैं। इन संभावनाओं पर भी ध्यान दिया गया कि चुनाव कार्यों के दायित्व से लैस राज्य के अफसरशाह शायद आसानी से सरकारी तंत्र के दबाव में आ गए हों। पर्चे में इस बात पर भी नजर डाली गई कि कैसे भारत निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किए गए मतदान के प्रारंभिक आंकड़ों और वास्तविक आंकड़ों में भारी अंतर देखने को मिला। आयोग ने सही आंकड़े बाद में जारी किए। यह सवाल अभी भी बरकरार है कि उक्त अंतर आंकड़ों से छेड़छाड़ के कारण आया या फिर यह सांख्यिकीय त्रुटि थी।

दास का निष्कर्ष था: भाजपा को करीबी मुकाबले वाली सीटों पर ज्यादा जीत हासिल हुई। जिन 59 सीट को लेकर यह अध्ययन किया गया उनमें से 41 पर भाजपा को जीत मिली। पर्चे के हिसाब से अगर इन सीटों पर इतना करीबी मुकाबला था तो पार्टी को आधी सीटों पर जीत मिलनी चाहिए थी-यानी करीब 30 सीट पर। परंतु जैसा कि दास भी स्वीकार करते हैं, कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा की जमीनी पकड़ मजबूत है। पार्टी वित्तीय रूप से भी मजबूत है और सोशल मीडिया पर उसकी पकड़ अच्छी-खासी है। शायद उसे करीबी मुकाबलों में इसलिए जीत मिली क्योंकि उसका प्रचार अभियान बेहतर था।

पत्र का दावा है कि भाजपा को जिन सीट पर जीत मिली उनसे संबंधित निर्वाचन आयोग के आंकड़ों में अनियमितता है। भाजपा के शासन वाले राज्यों में एससीएस कैडर से चुने गए चुनाव अधिकारियों वाली सीट में भी डेटा में अनियमितता नजर आई। अधिक मुस्लिम आबादी वाली सीटों में पंजीकृत मतदाताओं की संख्या में वृद्धि राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं की संख्या में औसत वृद्धि से कम रही। दास ने माना कि मतदाताओं के दमन के ऐसे संकेत सामने आए।

हालांकि पत्र में स्वीकार किया गया, ‘परीक्षण धोखाधड़ी का सबूत नहीं हैं, न ही इनसे ऐसा संकेत मिलता है कि व्यापक पैमाने पर छेड़छाड़ की गई।’ बाद में जब इस पत्र का परीक्षण किया गया तो संकेत निकला कि इसकी प्रविधि में खामी हो सकती है। बहरहाल इसमें चाहे जितनी खामियां हों लेकिन इसमें करीबी मुकाबले वाली 59 संसदीय सीट का जिक्र था।

अगर भाजपा 2024 में 370 सीट का लक्ष्य हासिल करती है तो इसमें उन 303 सीट में से अधिकांश शामिल होंगी जिन पर उसे 2019 में जीत मिली थी। इनमें वे 41 सीट भी होंगी जिनका जिक्र ऊपर है। उसे 70 अन्य सीट पर भी जीत हासिल करनी होगी। अगर यह 18 उन सीट पर भी जीतती है जिन्हें करीबी मुकाबले वाला बताया गया है तो भी बाकी सीट कहां से आएंगी? पार्टी को ऐसी कम से कम 50 सीट पर जीत हासिल करनी होगी जहां वह जीतने वाले से पांच फीसदी से अधिक मतों से पीछे थी।

पिछले दो लोक सभा चुनावों यानी 2014 और 2019 में भाजपा ने अपने मत प्रतिशत में इजाफा किया। पार्टी का मत प्रतिशत 2009 के 18.9 फीसदी से बढ़कर 2019 में 37.4 फीसदी हो गया। पार्टी के लोक सभा सदस्यों की संख्या 2009 के 116 से बढ़कर 2019 में 303 हो गई। अब इसे बढ़ाकर 370 पहुंचाने के लिए उसे मत प्रतिशत में 45 फीसदी से अधिक हिस्सा पाना होगा। 2019 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मिलाकर 45 फीसदी मत मिले थे और उसे 353 सीट हासिल हुई थीं।

सन 1984 के बाद से किसी एक पार्टी को इतना बड़ा मत प्रतिशत हासिल नहीं हुआ है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए उन चुनावों में कांग्रेस को 47 फीसदी मतों के साथ 414 सीट पर जीत मिली थी। सन 1980 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को 43 फीसदी मतों के साथ 353 सीट पर जीत मिली थी। 1980 और 1984 के चुनाव असाधारण हालात में हुए थे। सन 1980 के पहले के चुनावों के बाद बनी देश की पहली गैर कांग्रेस सरकार आंतरिक कलह के कारण गिर गई और उस वक्त कोई विपक्ष नहीं था। 1984 में सहानुभूति की लहर थी। 2024 में ऐसी कोई लहर नजर नहीं आ रही है।

भाजपा को फंड्स के मामले में जरूर बढ़त हासिल है। परंतु बीते 10 सालों में पार्टी रोजगार या समावेशी वृद्धि के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर पाने में नाकाम रही है। आबादी में 80 करोड़ से अधिक लोगों को नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण इस नाकामी का सबूत है। चुनावी बॉन्ड के आंकड़े सामने आने, प्रवर्तन निदेशालय के मामलों से सीधा संबंध और विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद साफ-सुथरी पार्टी की छवि के साथ आगे बढ़ना भी मुश्किल है। भारतीय राजनीति में सत्ता विरोधी लहर एक सुपरिचित शब्द है। इसके कारण भी पार्टी के कुछ मत प्रतिशत गंवाने की उम्मीद है और साथ ही कुछ सीट भी। ऐसे में लगता नहीं कि पार्टी 370 सीट का आंकड़ा पाने के लिए जरूरी मत प्रतिशत हासिल कर सकेगी।

First Published : April 10, 2024 | 10:19 PM IST