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यात्रा से परे

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बीएस संपादकीय
- 30/01/2023 10:48 PM IST

राहुल गांधी ने 134 दिनों में 12 राज्यों की यात्रा और करीब 4,000 किलोमीटर का सफर करते हुए हजारों भारतीयों से अलग-अलग तरह से संवाद (चलते हुए, बैठकर, संवाददाता सम्मेलन के जरिये) करने के बाद सोमवार को श्रीनगर में भारत जोड़ो यात्रा समाप्त कर दी। समापन के अवसर पर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से इतर विपक्षी दलों के कई नेता या उनके प्रतिनिधि शामिल हुए।

भारी हिमपात के बावजूद इस मौके पर 52 वर्षीय राहुल गांधी पूरी तरह उत्साहित नजर आए। उन्होंने स्वयं को भारत के भविष्य के अपेक्षाकृत दयालु और उदार संरक्षक के रूप में पेश करने का प्रयास किया। परंतु अहम सवाल यह है कि क्या यात्रा ने कांग्रेस में पर्याप्त विश्वसनीयता का संचार किया है।

ध्यान रहे कि वर्ष 2014 से ही कांग्रेस न केवल ​आंतरिक लड़ाइयों से जूझ रही है ब​ल्कि चुनावी दृ​ष्टि से भी उसकी हालत खराब ही रही है। प्रश्न यह है कि क्या अब पार्टी भाजपा का एक व्यावहारिक राष्ट्रीय विकल्प बन पाएगी या फिर क्या वह विपक्षी दलों को एक मंच मुहैया करा पाएगी?

भारत जोड़ो यात्रा का लक्ष्य कुछ हद तक अनि​श्चित था। कांग्रेस पार्टी की वेबसाइट के मुताबिक भारत को एकजुट करने के लिए साथ आना और देश को मजबूत करना इस यात्रा का लक्ष्य है। इसका अर्थ कुछ भी हो सकता है। सन 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा ने भाजपा की राजनीतिक तकदीर को काफी मजबूती प्रदान की थी क्योंकि उसका उद्देश्य एकदम स्पष्ट था: तत्कालीन बाबरी म​स्जिद के स्थान पर मंदिर के निर्माण के लिए समर्थन जुटाना। गांधी ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि यात्रा का लक्ष्य चुनाव जीतना नहीं है।

उन्होंने इस बात को साबित भी किया और गुजरात और हिमाचल प्रदेश के अहम विधानसभा चुनावों के दौरान वह कर्नाटक में अपनी यात्रा पर थे। परंतु किसी राजनीतिक दल द्वारा बिना चुनावी एजेंडे के भारत को एकजुट करने का वक्तव्य निरर्थक है।

अगर यात्रा से कोई तात्कालिक लाभ हुआ है तो वह है राहुल गांधी के बारे में लोगों की धारणा में बदलाव। नि​श्चित तौर पर लोगों को सुनने की अपनी इच्छा की बदौलत राहुल गांधी ने अपनी उस छवि को पीछे छोड़ दिया है जिसके तहत उन्हें एक श​क्तिशाली राजनीतिक परिवार का सीधा-सादा, निष्क्रिय रहने वाला नौसि​खिया वारिस माना जाता था। भाजपा और उसके साझेदार दलों की जो प्रतिक्रिया है उससे पता चलता है कि राहुल गांधी ने ‘पप्पू’ की पुरानी छवि को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उनकी दाढ़ी वाली नई परिपक्व छवि भारतीय जनमानस को अपने साथ उसी प्रकार जोड़ सकती है या नहीं जिस प्रकार एक कुशल वक्ता नरेंद्र मोदी ने जोड़ा है।

यह बात भी ध्यान देने लायक है कि गांधी अब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष नहीं हैं। वह 2019 में आम चुनाव में पार्टी की हार के बाद केरल के वायनाड से सांसद भर रह गए हैं। उत्तर प्रदेश में अपने परिवार का पारंपरिक इलाका भी वह भाजपा के हाथों गंवा चुके हैं। तुलनात्मक रूप से देखें तो रथ यात्रा के समय आडवाणी भाजपा के अध्यक्ष थे। तथ्य यह है कि कांग्रेस ने यात्रा को सफल बनाने की हरसंभव को​शिश की लेकिन एक सांसद की भारत की खोज में हुए खर्च का कोई ब्योरा नहीं है।

इससे पता चलता है कि पार्टी को नेहरू-गांधी परिवार के एक उपक्रम के रूप में बनी कमजोर छवि से अभी भी निजात पानी है। यह संभव है कि गांधी के ऊर्जा से भरे हुए संवादों से एक स्पष्ट और समावेशी एजेंडा सामने आया हो जो पार्टी को एकजुट करता हो और भारतीय मतदाताओं को भी लुभाने वाला हो। इन तमाम बातों की परीक्षा 2024 के संसदीय चुनावों के पहले होने वाले नौ विधानसभा चुनाव रूपी ‘सेमीफाइनल’ में होगी।