जनवरी की अपनी अधिकतम ऊंचाई से अब तक शेयर बाजार में 35 फीसदी से भी ज्यादा गिरावट आ चुकी है। इस गिरावट के दौर में अधिकांश म्युचुअल फंड स्कीमों ने निगेटिव रिटर्न दिया है।
लेकिन इसी दौरान जिन म्युचुअल फंडों का फार्मा सेक्टर पर एक्सपोजर ज्यादा रहा है, उन्होंने शेयर बाजार को आउटपरफार्म किया है। जून 2008 में समाप्त हुई तिमाही के दौरान फार्मा सेक्टर पर एक्सपोजर वाले म्युचुअल फंडों का औसत रिटर्न पांच फीसदी रहा।
क्रिसिल फंड रिसर्च के प्रमुख कृष्णन सीतारमन का कहना है कि इस तिमाही में फार्मा सेक्टर पर एक्सपोजर वाले फंडों के बेहतर प्रदर्शन के बेहतर प्रदर्शन की वजह इन फार्मा कंपनियों का विदेशी बाजारों के प्रति ज्यादा एक्सपोजर रहा है। इसके अलावा इन्हें रुपये की कीमतों में आई कमी का फायदा भी मिला।
भारत में फार्मा सेक्टर पर एक्सपोजर वाले म्युचुअल फंडों का इतिहास पुराना नहीं है। फार्मा सेक्टर पर फोकस करने वाले म्युचुअल फंडों को नौ साल पहले ही लॉन्च किया गया है। हालांकि अभी इस कैटेगरी में पांच ही ऐसे म्युचुअल फंड हैं जिनका फार्मा सेक्टर की ओर एक्सपोजर है। हालांकि इन फंडों का पैक अभी 286 करोड़ का ही है और इस सेक्टर पर फोकस करने वाले फंडों की संख्या पांच ही है लेकिन इस मंदी के दौर में जिस तरह फार्मा सेक्टर के फंडों ने प्रदर्शन किया है तो ज्यादा संभावना यह दिखती है कि भविष्य में कई और फंड हाउस भी फार्मा सेक्टर पर एक्सपोजर वाले फंड लेकर आए।
मुंबई की स्टॉक रिसर्च फर्म क्विकइन्वेस्ट के ब्रोकर सुधीर बागले का कहना है कि तेजी से विकास कर रही भारतीय दवा कंपनियों के स्टॉक निवेश करने के लिए आकर्षक हैं ही, इसके साथ ही इस सेक्टर की ओर एक्सपोजर वाले म्युचुअल फंड में निवेश भी अब बढ़ सकता है। इस प्रदर्शन के अलावा कई ऐसी वजहें हैं जो जिनसे ये फार्मा सेक्टर पर फोकस करने वाले फंड आकर्षक प्रतीत होते हैं। फार्मा कंपनियों के लगातार बेहतर प्रदर्शन ने जहां इन म्युचुअल फंड के यूनिट धारकों के चेहरे पर रौनक बरकरार रखी है, बल्कि भविष्य में म्युचुअल फंड फार्मा सेक्टर के अपने एक्सपोजर में बढ़ोतरी कर सकते हैं।
विदेशों में कारोबार
पिछले एक दशक में फार्मा कंपनियों मे तेजी से खुद को वैश्विक परिदृश्य में स्थापित किया है। रैनबैक्सी, सिपला, ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन जैसी कंपनियों ने देश में सिर्फ किफायती मूल्यों पर दवा उपलब्ध कराई हैं बल्कि विदेशी कंपनियों के वर्चस्व को भी चुनौती दी है। घरेलू अर्थव्यवस्था में मंदी की मार के बीच भी स्टॉक कंपनियों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया। इसकी वजह रही कि इन कंपनियों के राजस्व का अधिकांश भाग विदेशों में फैले इनके कारोबार से आता है।
भारतीय कंपनियों ने तेजी से विदेशों में अपना प्रसार किया है। देश की सर्वोच्च दस दवा कंपनियों ने पिछले दो सालों के दौरान 35 से भी अधिक विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण या विलय कर लिया है। यहां तक कि अकेले रैनबैक्सी ने ही 12 विदेशी कंपनियों को अपने आक्रामक विस्तार अभियान का निशाना बनाया है। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान ही भारतीय दवा कंपनियों ने 15.2 करोड़ डॉलर के कुल आठ अधिग्रहण किए। इन कंपनियों का ज्यादातर कारोबार यूरो या डॉलर में होता है। इसलिए रुपये में हुई किसी भी तरह की कमजोरी का फायदा इन फार्मा कंपनियों को मिलेगा।
घरेलू बाजार में भी पक्ष में बनता माहौल
आर्थिक एवं मौद्रिक नीति पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट समिति ने स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चों में 2010 तक 22 करोड़ रुपये की कटौती करने का प्रस्ताव किया है। सरकार खर्चों में प्रस्तावित इस कटौती के लिए जेनेरिक दवाओं के इस्तेमाल पर ज्यादा गौर करेगी। इसके लिए सरकारी अस्पतालों में जेनेरिक दवाओं की ज्यादा से ज्यादा आपूर्ति की जाएगी। ऐसे माहौल में सिर्फ विदेशी बाजार ही नहीं बल्कि घरेलू दवा बाजार में भी फार्मा कंपनियों के लिए बेहतर अवसर बनते नजर आ रहे हैं।
बढ़ती लागत
दवाओं के शोध एवं विकास से लेकर उत्पादन तक आने वाले खर्चों ने वैश्विक दवा कंपनियों को तंगहाल कर दिया है। फाइजर जैसी बढ़ी कंपनियों के बढ़ती लागत के चलते अपने कई प्लांट और रिसर्च सेंटर की संख्या में कमी करनी पड़ी। 2003 में जहां फाइजर के पास 93 दवा निर्माण इकाइयां थी , वहीं इनकी संख्या इस साल घटकर 48 पहुंच गईं। सिर्फ फाइजर ही नहीं मर्क जैसी बड़ी कंपनियों को बीते वित्तीय वर्ष में 3,000 करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा।
इसके अलावा वाइथ, ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन, जेनेका, जैसी कंपनियों को कारोबार में नुकसान का सामना करना पड़ा। इसका यह परिणाम रहा कि ये कंपनियां तेजी से आउटसोर्सिंग की ओर बढ़ रही हैं। 2006 में जहां दवा बाजार में वैश्विक आउटसोर्सिंग का कारोबार 34 अरब डॉलर का था, इसके 2011 तक दोगुना पहुंच जाने की संभावना है। गौरतलब है कि अमेरिकी दवा कंपनियां उन्हीं कंपनियों से आउटसोर्सिंग करा सकती हैं जिन्हें फेडरल ड्रग एसोसिएशन से अनुमति मिली हैं। इसमें भारतीय कंपनियां अपने प्रतियोगियों से कोसों आगे हैं।
क्रैम यानी सोने का अंडा देने वाली मुर्गी
क्रैम यानी कांट्रेक्ट रिसर्च ऐंड मैन्यूफैक्चरिंग सर्विस (क्रैम)का बाजार भारत में मौजूदा समय 43 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा है। यह अभी विकास की ही अवस्था में ही है। इसके 2008 से 2013 तक 32 से 35 फीसदी की रफ्तार के बीच बढ़ने की संभावना है। इस बाजार ने उन भारतीय दवा कंपनियों के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराए हैं जो कांट्रेक्ट रिसर्च और मैन्यूफैक्चरिंग का कारोबार करती हैं। यहां यह बात गौर करने लायक है कि अमेरिकी दवा कंपनियों के करीब 40 अरब डॉलर तक के पेटेंट और यूरोपीय दवा कंपनियों के करीब 25 अरब डॉलर तक के पेटेंट 2010 तक समाप्त होने वाले हैं।
इस आंकड़े को देखकर तो कुछ विश्लेषकों तो यहां तक मानना है कि भारत के यह सेक्टर दूसरा सूचना प्रोद्योगिकी क्षेत्र साबित होने वाला है। भारत में दिवीज लैबोरेटरीज, डिशमान फार्मास्युटिकल्स ऐंड केमिकल्स, निकोलस पीरामल, शासुन केमिकल्स ऐंड ड्रग्स और जुबिलिएंट ऑर्गेनोसिस जैसी कंपनियां हैं, जिन्हें कॉन्ट्रेक्ट रिसर्च और मैन्यूफैक्चरिंग सर्विस में महारत हासिल है।
म्युचुअल फंडों की पसंदीदा 10 कंपनियां
कंपनी कुल परिसंपत्ति में म्युचुअल
फंड निवेश की हिस्सेदारी(करोड में)
डिशमान फार्मा 13.01
ल्यूपिन लिमिटेड 9.36
सन फार्मास्युटिकल्स 7.81
रैनबैक्सी फार्मास्युटिकल्स 6.05
ग्लेनमार्क फार्मास्युटिकल्स 4.83
कैडिला हेल्थकेयर 3.92
निकोलस पीरामल 3.57
अरविंदो फार्मा 3.51
इपका लैबोरेटरीज 3.44
एवेंटिस फार्मा 3.16