किसी भी प्रवासी द्वारा दी जाने वाली सेवाओं पर उसके प्राप्तकर्ताओं से सेवा शुल्क या मूल्य वर्द्धित कर यानी वैट लिया जाना विपरीत शुल्क अधिरोपण या कर स्थानांतरण प्रक्रिया के तहत दुनियाभर में प्रचलित है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगर बात करें, तो सेवाओं के आयात पर विपरीत शुल्क प्रक्रि या का प्रस्ताव उल्लिखित है। भारत में भी, चरण पद्धति के जरिये विपरीत शुल्क प्रक्रिया को अपनाया गया है।
शुरूआत में यह भारत में बतौर विशिष्ट सेवाओं के मामले में लगाया जाता था। उसके बाद यह उन सेवाओं पर लगाया जाने लगा, जो प्रवासी के द्वारा भारत में सेवाओं का आयात करते थे, जिसकी भारत में उपस्थिति संभव नहीं होता था।
अंत में सेवाओं के आयात की हर गतिविधियों के लिए भारत में कर लगाने की प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ।
विपरीत शुल्क के आवेदन की उपादेय तिथि का संदर्भ सभी मामले में किया जाता है। चाहे कोई प्रवासी भारत में सेवाओं का आयात कर रहा हो या इस तरह की गतिविधि वह प्रवासी देश के बाहर कर रहा हो और उसकी प्राप्ति भारत में हो रही हो, तो ऐसे हर मामले में विपरीत शुल्क के अधिरोपण के लिए आवेदन किया जा सकता है।
वैसे इसी वजह से यह मामला थोड़ा विवादास्पद जरूर रहा है। हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड बनाम सीसीई (2008 वीआईएल-18) मामले में ट्रिब्यूनल ने अपने एक निर्णय में इस मामले को सुलझाने की कोशिश की। इस मामले में विपरीत शुल्क अधिरोपण की उपादेय तिथि 1 जनवरी 2005 मानी गई थी।
इस आलेख में यह स्पष्ट करने की कोशिश की जाएगी कि एक प्रवासी के द्वारा देश के बाहर से भारत में सेवाओं के आयात के मामले में आरोपित विपरीत शुल्क की उपादेय तिथि की घोषणा के बारे में किस तरह की बातें प्रचलित हैं और उसके पीछे तर्क क्या हैं।
सेवाओं के आयात पर कर लगाने के सिद्धांत को पहले पहल सेवा कर कानून के तहत जून 2005 में लागू किया गया था। इसकी व्याख्या वित्तीय कानून 1994 की धारा 65(105) में की गई है। इसकी अगली विस्तृत व्याख्या सेवा कर नियम की नियम संख्या 2 (1) (डी) (4) में भी वर्णित किया गया है।
इसमें यह कहा गया है कि सेवाओं के आदान-प्रदान में अगर कोई अप्रवासी किसी भारतीय को सेवा प्रदान करता है, तो इस सेवा के लिए उसे कर चुकाना होगा। इस व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि विश्व के किसी भी क्षेत्र से अगर कोई विदेशी सेवा प्रदाता भारत में सेवा मुहैया कराता है, तो उस सेवा के लिए उसे कर अदा करनी होगी।
इसमें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि भारत में यह सुविधा उपलब्ध हो पाई या नहीं। यह व्याख्या धारा 65 (105) में उल्लिखित की गई। वैसे धारा 64 में यह कहा गया है कि उन्हीं सेवाओं पर इस तरह के कर लगाए जाएंगे, जो भारत के लिए प्रस्तावित है। ये कर उन सेवाओं पर आरोपित नहीं किए जाएंगे, जो दी तो कहीं और से जा रही हो , लेकिन उसकी प्राप्ति भारत में हो रही हो।
इसके अलावा इस कर को लेकर जो प्रायद्वीपीय न्यायसंगतता का मामला है और उसमें जिस प्रकार की व्याख्याएं मौजूद हैं, उस पर तो और ज्यादा बहस की जरूरत है। इसके साथ कर को आरोपित करने के संबंध में धाराओं में जिस प्रकार की व्याख्या की गई है, वह भी संदेह के घेरे में है।
सुलोचना अम्मा बनाम नारायणन नायर (1995, 77 ईएलटी 785) के मामले में सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया था कि, किसी भी धारा में जिस प्रकार की व्याख्या दी गई है, उसकी पूर्ण व्याख्या की आगे जरूरत का कोई प्रस्ताव नहीं होता है। इस धारा में उल्लिखित व्याख्याओं के शब्दों का ही अर्थ निकाला या बदला जा सकता है या उन शब्दों को अस्पष्ट या स्पष्ट किया जा सकता है।
यह इस अधिनियमन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया। इसके अर्थ इसके पदों पर आश्रित होने लगे। इसलिए इन व्याख्याओं को इस प्रकार पढा जाना चाहिए ताकि इस धारा में उल्लिखित पदों और शब्दों की व्याख्या सही और स्पष्ट तरीके से संभव हो पाए। इस प्रकार भारत में सेवाओं के आयात पर कर लगाने संबंधी जितनी भी व्याख्याएं दी गई है, उस पर संदेह होना स्वाभाविक है।
कर के आरोपण को लेकर असंतुष्ट और अस्पष्ट व्याख्या को देखते हुए सरकार ने उक्त व्याख्याओं को हटा दिया और 18 अप्रैल 2006 से धारा 66 ए के तहत कुछ नई व्याख्याओं को समाहित किया। इस नई धारा में सेवाओं के आयात पर लगने वाले करों के बारे में थोडा स्पष्ट दृष्टिकोण रखा गया है।
भारत से बाहर और भारत के भीतर सेवाओं के आयात को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी, उसको लेकर इस नई धारा में जिस कानून का उल्लेख किया गया, उसे 19 अप्रैल 2006 से लागू किया गया। इस कानून में कर आरोपित करने की श्रेणियां विभाजित की गई- पहली, वह सेवाएं जो स्थानांतरणीय हो, दूसरी, ऐसी सामग्री जो बिना किसी कर न्यायसंगतता के प्रदर्शन की मांग करती हो और तीसरी, वे सारी अन्य अवशिष्ट सामग्री जो कर के दायरे में आती हैं।
आयात कानून के तहत सेवाओं को आयात की श्रेणी में रखा गया है और उसके बाद उसे किसी खास श्रेणी में रखने की कोशिश की जाएगी। विशिष्ट श्रेणी में रखने के बाद उसपर तदनुसार कर का प्रावधान किया जाएगा।
इस प्रकार 18 अप्रैल 2006 के बाद से विपरीत शुल्क अधिरोपण की आवेदन योग्यता के संबंध में काफी कुछ बातें स्पष्ट हो गई। हालांकि 16 जून 2005 से लेकर 18 अप्रैल 2006 के बीच आयात होने वाली सेवाओं पर इस विपरीत शुल्क को कैसे लगाया जाए, यह एक बहस का मुद्दा है।
इसकी अस्पष्टता को लेकर क्या वजहें हो सकती है, इसका जिक्र ऊपर किया ही जा चुका है। इस संबंध में फोस्टर ह्वीलर एनर्जी लिमिटेड बनाम सी.सी.एक्साइज (2007 (7) एस.टी.आर. 443) के मामले में जो ट्रिब्यूनल ने निर्णय सुनाया था, वह काफी प्रासंगिक है। इसमें स्पष्ट तौर पर यह कहा गया कि 18 अप्रैल 2006 के बाद आयात की जाने वाली हर सेवाओं पर कर लगाया जाएगा।
हालांकि इसके विपरीत शुरूआती समय में इन सेवाओं पर कर लगाने का कोई प्रावधान नहीं हुआ करता था। ट्रिब्यूनल ने अपने दूसरे निर्णय में भी इसी प्रकार की बातें कही। वैसे इन किसी भी निर्णय में आवेदन की उपादेय तिथि को लेकर किसी प्रकार की बातें नहीं की गई। हाल के हिंदुस्तान जिंक (सुपरा) के मामले में दोनों 65 (105) और 66 ए धाराओं की व्याख्याओं का हवाला लिया गया था। इसमें कहा गया कि पहले वाली धाराओं का इस्तेमाल सिर्फ व्याख्या को स्पष्ट करने के लिए किया जा रहा है, वैसे तो कर का अधिरोपण 66 ए के आधार पर ही किया जाएगा।
आगे के भी कई मामले में यह कहा गया कि सेवाओं के आयात के संबंध में 66 ए धारा में जो बातें कही गई है, उन्हें ही मान्य माना जाएगा।
वैसे 16 जून 2005 से लेकर 18 अप्रैल 2006 के बीच होने वाले सेवा आयातों को लेकर अभी तक भ्रम बना हुआ है। इस संबंध में किसी भी निर्णय में भी किसी प्रकार का स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।
(लेखक प्राइसवाटरहाउस कूपर्स में अप्रत्यक्ष कर मामलों को देखते हैं।)