अमेरिकी डॉलर के मुकाबले स्थानीय मुद्रा घटकर 80 रुपये पर पहुंचने के बाद भारतीय कंपनियां इससे बचने की तैयारी कर रही हैं। जिन कंपनियों के पास निर्यात से होने वाली आमदनी जैसे प्राकृतिक बचाव नहीं हैं, वे फॉरवर्ड कवर की कवायद में हैं, क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि अगले एक साल तक रुपये में धीरे धीरे गिरावट आएगी और यह डॉलर के मुकाबले 86-87 तक पहुंच जाएगा।
सीएफओ कंपनियों को सुझाव दे रहे हैं कि लघु और मध्यम अवधि के हिसाब से वे अपने जोखिम के आधार पर सही तरह के डेरिवेटिव उत्पाद लें। इंटरनैशनल फाइनैंस पर शीर्ष कंपनियों के एक सलाहकार प्रबाल बनर्जी ने कहा, ‘अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा जैसे ही दरों में बढ़ोतरी खत्म कर दी जाएगी और बाजार द्वारा छूट दी जाएगी, अमेरिकी इक्विटी बाजार बढ़ना शुरू हो जाएगा। निवेशक भारत से अपनी पूंजी अमेरिका में डालना शुरू कर देंगे और इससे आगे रुपये में और गिरावट आएगी।
इसके अलावा भारत में महंगाई और तेल की कीमतों का नकारात्मक असर रहा है, जिसकी वजह से रुपये में गिरावट की आशंका बहुत ज्यादा होगी और इस पर दबाव बनेगा।’दिलचस्प है कि इस साल जून में जारी भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की कंपनियों द्वारा विदेश से लिया गया करीब 44 प्रतिशत धन हेजिंग वाला नहीं है, ऐसे में रुपये में गिरावट से उनकी देनदारी बढ़ती है।
बड़ी संख्या में मझोली और छोटी कंपनियां फॉरवर्ड कवर नहीं लेती हैं क्योंकि इससे उनकी लागत बढ़ जाती है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बकाया वाह्य वाणिज्यिक उधारी(ईसीबी) की कुल राशि 180 अरब डॉलर के करीब है और इसमें से करीब 79 अरब डॉलर बगैर हेजिंग वाला कर्ज है। ईसीबी का करीब 80 प्रतिशत अमेरिकी डॉलर में है, जबकि शेष ऋण यूरो और जापानी येन में है।
बीपीसीएल के निदेशक (वित्त) वत्स रामकृष्ण गुप्त ने कहा कि उनकी कंपनी के मामले में मुद्रा में गिरावट पहले ही उनकी उधारी में अहम बन गई है। गुप्त ने कहा, ‘औसतन जब हम 10 साल की अवधि के लिए विदेशी मुद्रा में उधारी लेते हैं तो मुद्रा में 3.5 से 4 प्रतिशत की गिरावट मानकर चलते हैं। हम उम्मीद कर रहे हैं कि 80-81 के स्तर पर अगले 3 से 4 महीने में रुपया स्थिर हो जाएगा। इसका जितना असर पड़ना था, वह जून में समाप्त पहली तिमाही में पड़ चुका है।’
रिलायंस इंडस्ट्रीज और वेदांता जैसी भारत की तेल व गैस कंपनियों ने निर्यात से अपने राजस्व का उल्लेखनीय हिस्सा कमाया है और रुपया कमजोर होने की स्थिति में उनके पास प्राकृतिक कवर है। बीपीसीएल के अधिकारियों ने कहा कि उनकी खरीद और कीमत आयात मूल्य पर निर्भर है। उन्होंने कहा, ‘हमारे खरीद भंडार व कीमतों के हिसाब से विदेशी मुद्रा में उतार चढ़ाव को लेकर कोई जोखिम नहीं है। एकमात्र जोखिम विदेशी मुद्रा में ली गई उधारी के मामले में है।
सामान्यतया हम फॉरवर्ड कवर की ओर नहीं जाते। अगर हम फॉरवर्ड की ओर जाएंगे तो फॉरवर्ड की लागत ही जोखिम की तुलना में बहुत ज्यादा होगी। यहां तक कि अगर हम विदेशी मुद्रा उधारी का विकल्प अपनाते हैं तो किसी चीज को हम हेज नहीं करेंगे।’
विश्लेषकों का कहना है कि भारत की मुद्रा में इस साल तेज गिरावट बुनियादी ढांचा कंपनियों के लिए बुरी खबर है, क्योंकि पिछले 2 साल के दौरान उन्होंने डॉलर में कर्ज लिया है। इन कंपनियों की कमाई रुपये में होगी। हालांकि कई कंपनियां वित्तीय हेज व अन्य तरीके अपनाकर कमजोर होते रुपये के दुष्प्रभाव से बचने में सक्षम होंगी।
मूडीज के एक विश्लेषण के मुताबिक, ‘रेटिंग वाले जारीकर्ताओं के छोटे उपसमूह को नकारात्मक दबाव का सामना करना पड़ सकता है, अगर अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये पर नकारात्मक दबाव पड़ता है और रुपया 80 की सीमा से ऊपर जाता है।’सरकार की बिजली उत्पादक एनटीपीसी जैसी कंपनियां रुपये में गिरावट का प्रबंधन करने के मामले में बेहतर स्थिति में हैं क्योंकि इस उद्योग के नियामक का इतिहास रहा है कि मुद्रा की गति के कारण बढ़ी लागत की वसूली के लिए अनुमति देता रहा है। एनटीपीसी की 90 प्रतिशत से ज्यादा आमदनी नियमन के दायरे में आने वाले स्रोतों से होती है।
विश्लेषकों का कहना है कि नियामकीय संरक्षण का असर सेक्टर और नियामक के मुताबिक अलग अलग होगा। उदारहण के लिए दिल्ली इंटरनैशनल एयरपोर्ट जैसी कंपनियां भी फाइनैंशियल हेज का इस्तेमाल करती हैं, जिससे मुद्रा के जोखिम का प्रबंधन हो सके।
