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Trump Tariff: क्या इस व्यापारिक उथलपुथल से हुए मंथन में अमृत जैसा कुछ निकल सकता है?

देश के उद्यमी जगत के नेतृत्वकर्ताओं के पास विचारों की कमी नहीं है, लेकिन उनमें इन विचारों को क्रियान्वित करने की इच्छाशक्ति का अभाव नजर आया है।

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देवाशिष बसु   
Last Updated- August 20, 2025 | 11:43 PM IST

हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने चुनिंदा भारतीय निर्यातों पर 25 फीसदी का शुल्क लगा दिया और बहुत जल्दी उन्होंने इसे बढ़ाकर 50 फीसदी करने की घोषणा कर दी क्योंकि भारत रूस से निरंतर कच्चे तेल का आयात कर रहा है। इस प्रकार का दंडात्मक शुल्क प्राय: शत्रु देशों पर लगाया जाता है। अगर इसे जल्दी वापस नहीं लिया गया तो यह भारत से अमेरिका को होने वाले पारंपरिक निर्यात मसलन वस्त्र, चमड़ा तथा रत्न एवं आभूषण आदि को काफी नुकसान पहुंचाने वाला साबित होगा।

भारत ने इसे लेकर जो राजनीतिक प्रतिक्रिया दी है वह अवज्ञा और चरम राष्ट्रवाद का मिलाजुला रूप रही है जिसमें किसानों, श्रमिकों, उद्यमियों, उद्योगपतियों, निर्यातकों और छोटे कारोबारियों के हितों का बचाव करने की बात कही गई है। नीति आयोग के पूर्व कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत ने इस शुल्क को ‘किसी पीढ़ी में एक ही बार आने वाला क्षण’ बताया। फिल्मी भाषा में कहें तो अग्निपथ जैसा निर्णायक मोड़। महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने इसे ‘वैश्विक मंथन’ करार दिया और कहा कि इस व्यापारिक उथलपुथल से हुए मंथन में अमृत जैसा कुछ निकल सकता है। क्या ऐसे अनुमान हकीकत के करीब हैं?

  1. गंभीर सुधारों की वकालत: कांत ने सुझाव दिया कि अफसरशाही और कर ढांचे को सरल बनाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी स्लैब को दो तक सीमित करना और पर्यटन क्षेत्र को नए सिरे से गतिशील बनाना। उन्होंने सुझाव दिया कि कोई भी फॉर्म आधे पन्ने से बड़ा नहीं होना चाहिए और कोई भी कानून दो पन्नों से बड़ा नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा होगा तभी हम उद्यमिता को बढ़ावा दे सकेंगे। महिंद्रा ने निवेश के लिए एक सक्रिय एकल खिड़की व्यवस्था की बात कही। उन्होंने यह भी कहा कि वीजा प्रक्रिया को तेज करके तथा अधोसंरचना को बेहतर बनाकर पर्यटन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। वह चाहते हैं कि उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना यानी पीएलआई का विस्तार किया जाए और विनिर्माण संबंधी कच्चे माल पर आयात शुल्क को युक्तिसंगत बनाया जाए ताकि प्रतिस्पर्धी क्षमता बेहतर हो सके। ये सारी सलाहें अच्छी हैं और पहले सुनी हुई हैं।

ऐसे हर सुझाव के साथ कारोबारी जगत के नेतृत्वकर्ता उन पुरानी ढांचागत कमियों को रेखांकित कर रहे हैं जो हर सरकार के कार्यकाल में नजर आई हैं और जिनका जिक्र हर संकट के समय किया गया है। भारत में मौजूद बेहतरीन पर्यटन संभावनाएं गंदगी, व्यक्तिगत स्वच्छता, बार-बार मचने वाली भगदड़, कमजोर पड़ती अधोसंरचना, ऐतिहासिक इमारतों की आपराधिक अनदेखी, लगातार अवैध निर्माण आदि से प्रभावित होती हैं जिनमें स्थानीय राजनेताओं के निजी हित शामिल होते हैं। ऐसे में पर्यटन पर निर्भर छोटे-मोटे कारोबारों को भारी भरकम कीमत चुकानी पड़ती है। पंचायत से लेकर केंद्र तक कमजोर शासन के चलते इनसे निजात पाना मुश्किल है। अगर महिंद्रा जैसे नेता सही में कुछ जमीनी बदलाव लाने में मदद कर सकें तो नतीजे एकदम अलग होंगे। परंतु सरकार तो खस्ता होती शहरी परिवहन व्यवस्था को ठीक करने के मसौदे को तैयार करने तक में उन्हें शामिल नहीं करती जबकि इससे रोज सफर करने वाले लाखों लोग प्रभावित होते हैं।

  1. संकट और सुधार को लेकर गलत मान्यता: कारोबारी मौजूदा हालात की तुलना 1991 के विदेशी मुद्र संकट से कर रहे हैं जिसके बाद देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई थी। एक व्यापक मान्यता यह है कि देश में सुधार केवल संकट के समय ही हो पाते हैं। मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री 1991 के सुधारों को अंजाम दिया था और वही ऐसा कहा करते थे। ऐसे में जब भी देश किसी मुश्किल से गुजरता है, कारोबारी जगत के नेतृत्वकर्ता सुधारों की बात करते हैं। परंतु शायद ही हमने कोई ऐसी घटना सुनी हो जब आर्थिक संकट के बाद सुधार हुए हों। ऐसे में यह नतीजा निकालना मुश्किल है। इसके उलट बीते 30 साल में भारत में अधोसंरचना, दूरसंचार, पूंजी बाजार, पेंशन, कानून,  जीएसटी जैसे कराधान और अन्य क्षेत्रों में बिना किसी संकट के सुधारों को अंजाम दिया गया।

यहां तक कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद भी कोई सुधार देखने को नहीं मिला था। केवल पश्चिम की नकल की गई जिससे मुद्रास्फीति और फंसे कर्ज बढ़ गए। सबसे अहम बात यह है कि क्या ट्रंप के अनियंत्रित टैरिफ ने भारत के लिए संकट पैदा कर दिया है? शायद उतना भी नहीं। रेटिंग एजेंसी मूडीज का कहना है कि भारतीय निर्यात पर नया अमेरिकी शुल्क निकट भविष्य में भारत के सकल घरेलू उत्पाद पर बमुश्किल 30  आधार अंकों का असर डालेगा। इससे छोटे निर्यातकों को दिक्कत होगी और कुछ रोजगार जाएंगे लेकिन इससे न तो निवेशक बहुत प्रभावित होंगे न बाजार और न ही सरकार पर इतना दबाव बनेगा कि वह ‘कुछ करने’ पर मजबूर हो जाए।

भारत के सुधारों का आधार धीमे और आधे अधूरे मन से किए गए उपायों की एक श्रृंखला है और इस दौरान यह सुनिश्चित किया जाता है कि अफसरशाही का नियंत्रण बना रहे और भ्रष्टाचार का चक्र अप्रभावित रहे। जवाबदेही अत्यंत कम है और इसलिए प्रतिस्पर्धी क्षमता पर इसक प्रभाव भी बहुत कम है। परंतु एक उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिला है। मोदी सरकार राजस्व संग्रह के क्षेत्र में काफी आक्रामक रही है। सकल कर राजस्व और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 11.7 फीसदी हो गया जबकि इस दौरान सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 6.5 रही। इससे पहले 2007-08 में जब वृद्धि दर 9 फीसदी थी तब सकल कर राजस्व 11.9 फीसदी था।

सरकार का इरादा एकदम स्पष्ट रहा है। उसने अपनी प्राथमिकताओं को हासिल करने की दिशा में काम किया है: कर, उपकर और शुल्क लगाना और उन्हें वसूल करना। राजमार्गों से हासिल होने वाले टोल संग्रह की राशि वित्त वर्ष 26 में 80,000 करोड़ रुपये पहुंच जाएगी जो 2018-19 से 18 फीसदी की समेकित वृद्धि है। प्रतिभूति लेनदेन कर के भी वित्त वर्ष 23 के 25,085 करोड़ से बढ़कर वित्त वर्ष26 में 69,000 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है। यह 40 फीसदी की सालाना चक्रवृद्धि को दर्शाता है। ऐसी भारी आवक सामाजिक योजनाओं और सरकार के पूंजीगत व्यय के लिए गुंजाइश तैयार करती है। परंतु इससे उत्पादकता अथवा प्रतिस्पर्धा में सुधार नहीं हुआ।

देश के उद्यमी जगत के नेतृत्वकर्ताओं के पास विचारों की कमी नहीं है, लेकिन उनमें इन विचारों को क्रियान्वित करने की इच्छाशक्ति का अभाव नजर आया है। कारोबारी सुगमता को बेहतर बनाने की राजनीतिक आवश्यकता महसूस नहीं की जा रही है, न ही लॉजिस्टिक्स की लागत कम करने, फैक्ट्री कर्मियों को प्रशिक्षित करने और लालफीताशाही कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। निश्चित तौर पर सरकार इन सभी क्षेत्रों के लिए आसानी से योजनाएं शुरू कर सकती है।

परंतु इसका एक निष्कर्ष जिसे नकारा नहीं जा सकता है वह यह है कि विनिर्माण जीडीपी के 14 फीसदी के स्तर पर ठहरा हुआ है, देश की निर्यात प्रतिस्पर्धा कमजोर है और कारेाबारी नियमित रूप से यह शिकायत करते हैं कि उन्हें कुशल श्रमिक नहीं मिल रहे हैं या उन्हें छोटी मोटी रिश्वत के लिए तंग किया जाता है। संसद में पूर्ण बहुमत में रहते हुए जब सरकार ने यह सब नहीं किया तो अब गठबंधन सरकार में ये सुधार कैसे किए जाएंगे वह भी तब जबकि आर्थिक दबाव भी 1991 की तुलना में बहुत कम है।

First Published : August 20, 2025 | 11:15 PM IST