जब पाकिस्तानी सेना किसी राजनेता की शिकायत लेकर मीडिया के पास जाए और यह कहे कि उसकी छवि खराब की जा रही है तो आप समझ जाइए कि वहां की राजनीति ने एक ऐतिहासिक मोड़ ले लिया है
अपनी स्थापना के बाद से ही पाकिस्तान की सेना ने निरंतर भारत के खिलाफ जंग छेड़ी और वह शिकस्त खाती रही। इसमें कमाल की निरंतरता देखने को मिली है। हालांकि लड़ाई का एक मैदान ऐसा भी है जहां उसे लगातार जीत मिली है लेकिन अब वह वहां भी हारने लगी है। हम इस बात को आगे विस्तार से समझेंगे।
भारत के साथ जंग लड़ने और हारने को लेकर कुछ ना नुकुर संभव है लेकिन सच यह है कि इतनी जंगों के बाद पाकिस्तानी सेना करीब आधा पाकिस्तान (बांग्लादेश) गंवा चुकी है, अपने देश की राजनीति, संस्थाओं, अर्थव्यवस्था और उद्यमिता को नष्ट कर चुकी है और वहां प्रतिभाओं का अकाल हो गया है। कश्मीर की बात करें तो अब उसके पास उतना भी कश्मीर नहीं है जितना शुरुआत में था।
तो वह कौन सा क्षेत्र है जहां उसका निरंतर जीत का रिकॉर्ड था लेकिन अब वहां भी उसे पराजय मिल रही है?
संभव हो तो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के मौजूदा प्रमुख लेफि्टनेंट जनरल नदीम अहमद अंजुम के हालिया संवाददाता सम्मेलन को देखिए। यह वही आईएसआई है जिसने अफगानिस्तान में सोवियत और अमेरिकी खुफिया सेवाओं केजीबी और सीआईए को मात दी थी। इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) के बाबर इफि्तखार तकरीबन डेढ़ घंटे बोले। इस दौरान उन्होंने बस अपना, आईएसआई का, उसके प्रमुख का और सेना का बचाव ही किया।
हालांकि इस जुमले को ईलॉन मस्क ने चुरा लिया है लेकिन हमें इसका इस्तेमाल करने की इजाजत दीजिए: लेट दैट सिंक यानी चलो इसका असर होने दो। यह वही आईएसआई है जिसे पूरा पाकिस्तान प्यार भी करता था और डरता भी था, प्यार भी करता था और नफरत भी, जिससे दोस्त और दुश्मन दोनों घबराते थे।
वह पलक भर झपका कर पाकिस्तानी मीडिया को सीधी राह पर ले आता था। जो नहीं समझते थे उन्हें जेल या निर्वासन की सजा भुगतनी होती या उनकी लाश किसी गटर या खाली जगह पर मिलती। कुछ मामलों में तो यह सबकुछ एक साथ होता। एआरवाई के पूर्व एंकर अरशद शरीफ के बारे में सोचिए। उनके बॉस की तरह उन्हें भी नौकरी से निकालकर निर्वासित कर दिया गया था।
वह केन्या में मृत पाए गए और कहा गया कि वहां की पुलिस ने गलत पहचान के चलते उन्हें गोली मार दी। अगर आपको इस बात पर यकीन हो तो मानना चाहिए कि आपने नशा कर रखा होगा।
अब हम आईएसआई प्रमुख को सुन रहे थे जिसे एक समय दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों में गिना जाता था। वह चुनिंदा मित्रवत लोगों को संबोधित कर रहे थे। आमतौर पर उनकी और उनके प्रमुख की बातों को पाकिस्तानी मीडिया और अक्सर न्यायपालिका के लिए भी आदेश की तरह माना जाता था। आईएसपीआर के मुखिया उनके संदेशवाहक थे।
अब ये दोनों अपने-अपने संस्थान की ओर से पीड़ित होने का दावा कर रहे थे। जब भी पाकिस्तानी सेना मीडिया के पास किसी राजनेता की शिकायत लेकर जाती है तो आपको पता चल जाता है कि वहां की सियासत ने ऐतिहासिक मोड़ ले लिया है।
पाकिस्तान की सेना राजनीतिक वर्ग से निपटने और कामयाब होने में सिद्धहस्त रही है लेकिन अब उसे राजनेताओं के हाथों हार का भी डर सताने लगा है। उस लिहाज से देखें तो इमरान खान ऐसी जीत के कगार पर हैं जिसे शायद 1992 की क्रिकेट विश्वकप जीत से भी अधिक तवज्जो दी जाएगी।
अगर पाकिस्तानी सेना को एक लोकप्रिय असैन्य शक्ति के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा तो यह उपमहाद्वीप के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ वाला अवसर होगा।
इसलिए कि एक ऐसा संस्थान जिसने शायद 1971 की पराजय के बाद के कुछ वर्षों को छोड़कर कभी अपनी सर्वोच्च ताकत कम नहीं होने दी, अब वह जनता से सहानुभूति बटोरने का प्रयास कर रहा है। वह सत्ताधारी, पूर्व और संभावित प्रधानमंत्रियों को पद से हटा सकता है, जेल भेज सकता है, निर्वासित कर सकता है या उनकी हत्या तक करवा सकता है और यह सब जानने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं।
सन 2007 में ऐसा प्रतीत हुआ मानो बेनजीर भुट्टो दूसरे लंबे निर्वासन के बाद देश वापसी (पहले देश निकाले के बाद वह1986 में लौटी थीं और मैंने पाकिस्तान से इंडिया टुडे के लिए एक रिपोर्ट लिखी थी) के बाद जीत की ओर बढ़ रही हैं लेकिन उनकी जिंदगी को खतरे को लेकर तमाम चेतावनियों के बीच भी उनकी हत्या कर दी गई।
उस मामले में किसी को सजा नहीं हुई और वह पाकिस्तान के षड्यंत्रों के इतिहास में दफन हो गया। उनकी पार्टी की सरकार को पंगु बना दिया गया और उनके पति नाममात्र के राष्ट्रपति बन कर रह गए।
नवाज शरीफ ने अच्छे बहुमत के साथ वापसी की। उनकी ही सेना के नजरिये से वह स्वयं गलतफहमी के शिकार हो गए और उन्हें लगने लगा कि वह वास्तव में प्रधानमंत्री बन गए हैं। 2018 आते-आते उनके ही द्वारा नियुक्त सैन्य प्रमुख वाली सेना ने षड्यंत्र करके उन्हें न केवल पद से हटाया बल्कि जेल और निर्वासन तक करा दिया। यह सुनिश्चित किया गया कि इसके बाद होने वाले चुनाव में उनकी पार्टी न जीते। इस प्रक्रिया में पाकिस्तान के सबसे कट्टर सुन्नी इस्लामिक समूह तहरीक ए लब्बैक को भी पाला पोसा गया।
इमरान खान तब सेना के प्रत्याशी थे इसलिए उनके बहुमत से दूर रह जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा। सेना और आईएसआई ने पर्याप्त संख्या में छोटे दल और निर्दलीय सदस्य जुटाकर उन्हें आरामदेह बहुमत उपलब्ध करा दिया। लेकिन फिर हुआ यह कि इमरान खान भी खुद को सचमुच का प्रधानमंत्री मानने लगे और सेना मुख्यालय के लिए असहजता उत्पन्न करने लगे।
इमरान खान का यह भ्रम केवल देश तक सीमित नहीं था बल्कि वह खुद को अपनी तरह से इस्लामिक उम्मा के नए नेता और 21वीं सदी के खलीफा जैसा कुछ समझने लगे। वह शरीयत का जिक्र करने लगे, कुरान आधारित पाठ्यक्रम ले आए और एक नया एजेंडा तैयार करने लगे जो इस्लामिक और पश्चिम विरोधी दोनों था।
इन बातों ने सेना को सतर्क कर दिया। इस बीच इमरान खान को लगने लगा कि सेना भी उनके नियंत्रण में है। इसके साथ ही शीर्ष स्तर की नियुक्तियों को लेकर निर्णायक जंग छिड़ी। पहली लड़ाई थी नए आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति की। सेना प्रमुख अपनी ओर से नदीम अंजुम को नियुक्त कराने में कामयाब रहे और इमरान खान की लेफि्टनेंट जनरल फैज हमीद को बरकरार रखने की कोशिश नाकाम रही। बहरहाल यह लड़ाई तो फाइनल के पहले के लीग मैच की तरह थी जब नवंबर में नए सेना प्रमुख की नियुक्त होनी थी।
जरा सोचिये कि साजिश, धोखे और अब शायद हत्या तक की इस बदशक्ल कहानी में कौन सी साझा कड़ी है। इस दौरान जनरल कवर जावेद बाजवा सेना के प्रमुख रहे। उनकी नियुक्ति नवाज शरीफ ने की थी जिन्हें बाजवा ने सत्ता से हटाकर देश निकाला दिलवा दिया। इमरान खान ने बाजवा का कार्यकाल तीन वर्ष के लिए बढ़वाया।
बाजवा ने पहले उन्हें आगे बढ़ाया, फिर उनको सत्ताच्युत करवाया और अब उनसे ही चुनौती का सामना कर रहे हैं। बीते पांच दशक में पाकिस्तान में दो बड़े राजनीतिक परिवार लोकतंत्र के लिए अपने-अपने ढंग से लड़े हैं। हालांकि इस दौरान उन्होंने सेना को अपने पाले में ही रखा। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का भुट्टो परिवार और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज का शरीफ परिवार दोनों अब थक चुके हैं। एक की पकड़ पंजाब में कमजोर पड़ रही है तो दूसरे का इकलौता लोकप्रिय नेता यानी नवाज शरीफ लंदन का सुरक्षित निर्वासन छोड़ने से हिचक रहे हैं। दोनों अपनी गद्दी बचाने के लिए सेना की ओर तक रहे हैं।
पाकिस्तान में अगर सेना आपके साथ है तो आप सबकुछ हैं। लेकिन आज हालात अलग हैं और पाकिस्तानी सेना की ताकत और उसके कद को भारी चुनौती उत्पन्न हो गई है। यह चुनौती एक लोकलुभावन लोकतांत्रिक शक्ति से मिली है। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि यह इमरान खान से है जो अक्सर गड़बड़ नजर आते हैं। क्या हमने कभी यह कहा है कि लोकतंत्र अपने आप में संपूर्ण है।