देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सहयोग से एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के असंतुष्ट विधायकों के एक समूह ने उद्धव ठाकरे की सरकार गिरा दी थी और पिछली सरकार के गिरने के 40 दिन बाद पिछले हफ्ते हुए शपथ ग्रहण के बाद महाराष्ट्र मंत्रिपरिषद में कौन शामिल है और किसे बाहर रखा गया है, इस पर पहले ही गहमागहमी शुरू हो गई है।
मंत्रालय तय करने की कवायद में ही लंबा समय लगा क्योंकि कई कारकों को संतुलित करने की जरूरत थी। लेकिन अब इस पर फैसला हो चुका है तो सभी लोग इस समीकरण से खुश नजर नहीं आ रहे हैं।
अपनी पार्टी में बगावत कर दूसरे पाले में आए विधायकों सब कुछ दांव पर लगाकर नए मुख्यमंत्री को सहयोग किया और ऐसे निराश विधायकों को शांत करने के लिए शिंदे ने मंत्रिपरिषद के विस्तार के बाद कहा, ‘हमने मंत्रिपरिषद विस्तार का पहला चरण पूरा किया है। दूसरे चरण में, हम निश्चित रूप से अधिक उम्मीदवारों को मंत्रिपरिषद में शामिल करेंगे।’
हालांकि कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की इस मुद्दे पर अलग राय है। वह कहते हैं, ‘उन्हें (शिंदे-फडणवीस सरकार को) अब एहसास होगा कि अब कैसी स्थिति बन गई है। ऐसे कई गुट हैं जिनका तुष्टीकरण करना होगा जिनमें भाजपा के मूल कार्यकर्ता जो वर्षों से कड़ी मेहनत कर रहे हैं, वे शामिल हैं। इनके अलावा वैसे लोग भी हैं जिन्होंने कुछ साल पहले कांग्रेस या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) छोड़कर भाजपा या शिवसेना का दामन थाम लिया था। इसके साथ ही शिवसेना के एकनाथ शिंदे का समर्थन करने के लिए उद्धव ठाकरे के समूह को छोड़ चुके लोग भी शामिल हैं जो शिंदे के प्रति वफादार हैं और वे शिवसेना के पुराने कार्यकर्ता भी हैं। प्रश्न यह है कि इनमें से किसे इनाम दिया जाए? इस तरह के सवालों से निपटना गठबंधन के लिए एक बड़ी समस्या बनने जा रही है।’
महाराष्ट्र सरकार में फिलहाल 18 मंत्री हैं, जिनमें शिवसेना के शिंदे गुट और भाजपा के 9-9 मंत्री शामिल हैं। महाराष्ट्र की 287 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा के 106 विधायक हैं। शिंदे ने विश्वास मत हासिल करने के लिए शिवसेना के 55 में से 40 विधायकों का समर्थन हासिल किया था। ऐसे में प्रतिनिधित्व के लिहाज से भाजपा के अधिक मंत्री होने चाहिए।
शिंदे के वफादारों का तर्क है कि चूंकि उन्होंने इसके लिए काफी कुछ न्योछावर किया है (उदाहरण के तौर पर पाला बदलने वाले कई मंत्री भी थे, जिन्होंने बिना शर्त या गारंटी के अपना पद छोड़ दिया था) ऐसे में उन्हें अधिक सम्मान मिलना चाहिए।
संजय राठौड़ जैसे लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल करने से अन्याय और असहजता की भावना बढ़ जाती है जिनका नाम अपनी एक परिचित युवती की आत्महत्या के मामले से जुड़ा हुआ है। राठौड़ पिछली सरकार का हिस्सा थे और भाजपा ने तब मांग की थी कि वह पद छोड़ दें। विपक्षी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के अजित पवार ने कहा, ‘सरकार को विवादास्पद मंत्रियों को मंत्रिमंडल से बाहर रखने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए थी।’
मंत्री बनने वालों में विजयकुमार गावित हैं जो आदिवासी बहुल क्षेत्र नंदुरबार का प्रतिनिधित्व करते हैं और वह वर्ष 2014 में भाजपा में शामिल हुए थे। वह कांग्रेस-राकांपा सरकार में वर्ष 2004 से 2012 के बीच आदिवासी विकास मंत्री थे और उस अवधि के दौरान बंबई उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका के कारण उन्हें बर्खास्त कर दिया गया और 15 अप्रैल, 2014 को सेवानिवृत्त न्यायाधीश एम जी गायकवाड़ की अध्यक्षता में जांच समिति गठित की गई।
अपनी 3,000 पन्नों की रिपोर्ट में, समिति ने पाया कि गावित ने कुछ कार्यों और अन्य रिपोर्ट तैयार करने के लिए राज्य सरकार के विभागों के बजाय ठेकेदारों को अनुमति दी थी और फिर उन लोगों को ही ठेका दे दिया गया था।
समिति ने बताया कि कई मामलों में निविदा प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया जबकि कई अन्य में लाभार्थियों का चयन उचित प्रक्रिया के साथ नहीं किया गया। यह घोटाला करीब 6,000 करोड़ रुपये तक का माना जाता है। उस समय भाजपा ने उनके इस्तीफे के लिए अभियान तेज कर दिया था। हालांकि विडंबना यह है कि इसके बाद वह भाजपा में शामिल हो गए।
नई मंत्रिपरिषद के समक्ष केवल यही एकमात्र चुनौतियां नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने निर्वाचन आयोग से कहा है कि अदालत विधायकों के दलबदल के बाद असली शिवसेना किसकी है इसको लेकर फैसला करेगी और इसलिए इस मामले पर सुनवाई कर रहे निर्वाचन आयोग को भी तब तक इंतजार करना चाहिए जब तक कि अदालत इस मामले की सुनवाई नहीं कर लेती है।
इस महीने की शुरुआत में भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय इस मामले में शामिल कानून के सवालों पर फैसला करेगा कि महाराष्ट्र राजनीतिक संकट की वजह से विधायकों की अयोग्यता से जुड़े संवैधानिक मामले को पांच न्यायाधीशों के पीठ को भेजा जाए या नहीं। यह सुनवाई अभी होनी है। ऐसे में तकनीकी रूप से तलवार नई सरकार पर लटकी हुई है। इस बीच बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के चुनाव का बिगुल बज चुका है।
महाराष्ट्र में हुए घटनाक्रम के नतीजों पर सभी पार्टियों के लिए काफी कुछ दांव पर लगा है। शिवसेना के लिए यह उसके अस्तित्व का मामला है। अन्य पक्षों के लिए यह न्याय का मामला है। लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में अनिश्चितता का पहलू जुड़ा रहेगा।