इंडोनेशिया के बाली में हाल ही में संपन्न जी-20 शिखर सम्मेलन से हम क्या सीख सकते हैं? और यह अगले वर्ष भारत को मिली जी-20 की अध्यक्षता के बारे में क्या कुछ बताता है?
बाली शिखर बैठक की सबसे पहली और अहम कामयाबी वह थी जिसे तमाम अन्य वर्षों में हल्के में लिया जा सकता है यानी संयुक्त वक्तव्य की घोषणा। आज की विभाजित दुनिया में 20 नेताओं को एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर के लिए राजी करना आसान नहीं है। यह कामयाबी भी हवा में नहीं मिली। इंडोनेशियाई राष्ट्रपति जोको विडोडी ने इस सहमति पर पहुंचने के लिए अपने देश की राजनीतिक पूंजी को दांव पर लगाया। यह सहमति बहुत सावधानीपूर्वक उठाए गए कूटनीतिक कदमों का नतीजा थी जिससे पता चलता है कि कैसे जी-20 की अध्यक्षता एजेंडा तय करने की क्षमता रखती है।
जी-20 को एक बुनियादी सहमति तक पहुंचाने के लक्ष्य में एक सीधी सपाट बात यह थी कि किसी भी अंतिम दस्तावेज को यूक्रेन युद्ध से निपटना होगा। इस बात की संभावना बहुत कम थी कि पश्चिम ऐसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर करेगा जो यह दिखावा करे कि यूरोप में कोई जमीनी लड़ाई नहीं हो रही है। लेकिन इस उल्लेख के लिए इस तथ्य से निपटना था कि उस युद्ध में शामिल रूस खुद जी-20 का एक सदस्य था और उसे एक ऐसे दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने पड़ सकते थे जिसमें आक्रमण के लिए खुद उसकी आलोचना शामिल होती। अन्य देशों का सहज ही यह मानना था कि जी-20 को वैश्विक अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए तैयार किया गया था, न कि कठिन सुरक्षा संबंधी मसलों से निपटने के लिए। यह कई लोगों के लिए दिक्कत की बात थी।
एक बात जिसने इस सहमति के होने में अहम भूमिका निभाई वह थी रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन का बाली से दूर रहने का निर्णय। वह कुछ माह पहले शांघाई सहयोग संगठन के रूप में एक बहुपक्षीय संस्थान की बैठक में हिस्सा लिया था। जहां उन्होंने मध्य एशियाई तथा अन्य देशों के नेताओं से बातचीत की। वहां पुतिन को बार-बार आलोचना का सामना करना पड़ा। जी-20 से वह चाहे जिस वजह से अनुपस्थित रहे हों लेकिन इससे पश्चिमी देशों के लिए प्रदर्शन का एक अवसर हाथ से निकल गया। अब उन्हें ऐसा शिखर बैठक से इतर करना होगा। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने ऐसा किया भी और वह बैठक के तुरंत बाद कीव निकल गए जहां यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमीर जेलेन्स्की ने उनका स्वागत किया।
परंतु इसके बावजूद यूक्रेन युद्ध को एजेंडे में शामिल करने के लिए तैयारी की आवश्यकता थी। इंडोनेशिया ने इसकी शुरुआत आक्रमण के वैश्विक खाद्य आपूर्ति पर पड़ने वाले असर की चर्चा से की। इस बात से इनकार करना तो किसी के लिए भी मुश्किल था कि वैश्विक खाद्य सुरक्षा जी-20 के क्षेत्र की बात है। एक बार जब सहमति बन गई कि खाद्य सुरक्षा के मसले पर चर्चा हो सकती है तो आक्रमण के अन्य पहलुओं पर भी धीरे-धीरे बात होने लगी। समझौते में कहा गया कि सदस्य देश मानते हैं कि यूक्रेन युद्ध वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डाल रहा है।
समझौते में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के मतदान का भी जिक्र किया गया जहां यूक्रेन के खिलाफ रूस के आक्रमण की कड़ी आलोचना करते हुए मांग की गयी थी कि वह वहां से बिना शर्त और पूरी तरह बाहर निकल जाए। कहा गया कि अधिकांश सदस्यों ने युद्ध की आलोचना की थी। समझौते में वैश्विक शांति और स्थिरता की बात करते हुए कहा गया कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
अंत में इसमें प्रधानमंत्री मोदी की बात को भी दोहराया गया जिन्होंने शांघाई में पुतिन से कहा था ‘वर्तमान समय युद्ध का नहीं है।’इसे रूस और उसक समर्थक चीन के कूटनीतिक रूप से पीछे हटने के रूप में नहीं देखा जा सकता है। चीन नहीं चाहता था कि शी चिनफिंग बाली में अलगथलग और मित्र रहित नजर आएं। रूस ने शायद अपनी जनता को संबोधित करने के लिए कहा कि अंतिम दस्तावेज संतुलित था क्योंकि इसमें युद्ध को लेकर नजरियों में अंतर को रेखांकित किया गया। अंतिम पाठ को रूस के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गया यह इस बात के बावजूद किया गया कि रूस में यूक्रेन में चल रही कार्रवाई को युद्ध कहने पर पाबंदी है।
मोदी ने युद्ध का दौर न होने की जो बात कही थी उसे भारत के बाहर भी भारत की वार्ता टीम और जी-20 में भारत के शेरपा अमिताभ कांत के एक सशक्त योगदान के रूप में देखा जाता है कि वह इस मामले में सहमति बनाने में कामयाब रहे। फाइनैंशियल टाइम्स ने लिखा कि वार्ताकारों, अधिकारियों और कूटनयिकों सभी ने विडोडो और भारतीय प्रतिनिधि मंडल की सराहना की कि उसने रूस और पश्चिमी खेमे के बीच सहमति बनाने की अथक कोशिश की।
इन प्रयासों पर सटीक नजर डालने का एक तरीका यह कहना भी हो सकता है कि इंडोनेशिया और भारत ने यह सुनिश्चित किया कि अर्जेन्टीना, मैक्सिको, सऊदी अरब और भारत के बाद अध्यक्षता संभालने वाले ब्राजील जैसे जी-20 की उभरती मझोली शक्तियां पश्चिम और रूस को समझौते की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध बने रहें।
सवाल यह है कि अगले वर्ष के लिए क्या सबक हैं? पहली बात, भारत को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह कड़े मुद्दों, आपात स्थितियों या सुरक्षा संबंधी मसलों को एजेंडे से पूरी तरह बाहर रख पाएगा। इंडोनेशिया ने इस मामले में हमें राह दिखाई है जिससे सबक लिया जा सकता है। दूसरी बात, जी-20 में सफलता की राह यह सुनिश्चित करने में निहित है कि यह न तो पश्चिम द्वारा संचालित है और न ही रूस और चीन द्वारा बल्कि यह मझोली शक्तियों से संचालित है और इस समूह की विफलता उन्हें ही सबसे अधिक प्रभावित करेगी। तीसरा अध्यक्षता की एजेंडा तय करने और चर्चाओं को आकार देने की शक्ति को कम करके नहीं आंका जा सकता है। चौथा, समान सोच वाले साझेदार तलाश करने होंगे। इंडोनेशिया ने साफतौर पर भारत पर भरोसा किया और भारत को भी अन्य देशों को भरोसे में लेना होगा।
अंत में, जी-20 की महत्ता रेखांकित हो चुकी है। भारत बहुत निर्णायक समय पर इसकी अध्यक्षता संभाल रहा है। यूक्रेन में युद्ध की स्थिति ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं और मुद्रास्फीति को जिस तरह प्रभावित किया है वह पूरी तरह खुलकर सामने नहीं आया है। अमेरिका और चीन के बीच के व्यापारिक तनाव कई मोर्चों पर सार्वजनिक असहमति के रूप में सामने आए हैं।
कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज ऑन क्लाइमेट चेंज से लेकर विश्व व्यापार संगठन तक संयुक्त राष्ट्र के समझौते और विवाद निपटान ढांचे की प्रासंगिकता लगातार कमतर होती जा रही है। जी-20 अंतरराष्ट्रीय समझौतों के लिए इकलौता बड़ा मंच है और इसने दिखाया है कि कठिन से कठिन हालात में यहां सहमति बन सकती है। भारत की जी-20 अध्यक्षता के लिए सफलता की परिभाषा सहमति से कहीं आगे निकल गई है।