मंदी की चाल से तेजड़ियों में भूचाल

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 07, 2022 | 4:05 AM IST

यह सब अमेरिकी सबप्राइम संकट और वैश्विक मंदी के साथ शुरू हुआ जिसकी वजह से बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) सूचकांक 10 जनवरी, 2008 के 21,206 अंक से गिर कर 18 मार्च को 14,677 अंक पर रह गया।


कुछ हद तक गिरावट के लिए कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि और भारत के आर्थिक विकास पर इसके प्रभाव को भी जिम्मेदार माना जा रहा है। मुद्रास्फीति में इजाफे और घरेलू औद्योगिक उत्पादन में मंदी से इस प्रतिकूल प्रभाव के कुछ शुरुआती संकेत मिले हैं।

इनकी वजह से ब्याज दर बढ़ने, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मंदी आने और कंपनी की आय में कमी आदि को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं। इस उतार-चढ़ाव को ध्यान में रख कर विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) बाजार से बाहर होने वाले पहले निवेशक हैं और यह भी बाजार में गिरावट का एक कारण रहा।

क्या बाजार में मंदी का घातक दौर खत्म होगा?

विशेषज्ञ यह भविष्यवाणी करने से परहेज नहीं कर रहे हैं कि यदि वैश्विक और घरेलू समस्याएं बनी रहती हैं तो शेयर बाजार का सूचकांक औंधे मुंह गिर कर 12,000-14,500 के आंकड़े के बीच भी पहुंच सकता है, जो इस साल के शुरुआती महीनों के मुकाबले बेहद कम होगा।

कुछ विशेषज्ञ तो सूचकांक के लुढ़क कर 9000 अंक पर पहुंच जाने का भी अनुमान लगा रहे हैं। लेकिन हम सूचकांक के आंकड़ों को लेकर अटकलें करने के पक्ष में नहीं हैं। हम कुछ ऐसे कारकों के बारे में बात करेंगे, जो बाजार का रुख तय करने में सक्षम हैं और हम यह भी बताएंगे कि उथलपुथल भरे इस दौर में निवेशकों को क्या करना चाहिए।

कच्चे तेल का आईना

यदि कम मुनाफा तय हो, तो कोई भी निवेशक परिसंपत्ति में अपना पैसा फंसाना नहीं चाहेगा और अगर वसूली के मुकाबले ज्यादा लागत हो, तो भी कोई निवेश नहीं करेगा। चाहे अर्थव्यवस्था की बात हो या कॉर्पोरेट जगत के मुनाफा कमाने की, कच्चा तेल ही आम तौर पर ज्यादातर परेशानियों की जड़ माना जाता है।

कच्चे तेल की कीमतें 135 डॉलर प्रति बैरल का आंकड़ा छूने के बाद गिरकर 125 डॉलर के स्तर पर आ गई थीं, लेकिन पिछले हफ्ते उन्होंने एक बार फिर 139.12 डॉलर प्रति बैरल का आंकड़ा छू लिया। कई लोगों का तो यह भी कहना है कि कच्चा तेल 150 डॉलर से 200 डॉलर प्रति बैरल का आंकड़ा छू लेगा।

कच्चे तेल की कीमतों में पिछले महीनों में आई बढ़ोतरी के कई कारण हैं, जिनमें वित्तीय निवेश में बढ़ोतरी और तेल उत्पादन की लागत में मामूली इजाफा प्रमुख हैं। कच्चे तेल की कीमतें इतने ऊंचे स्तर पर रहें या न रहें, विशेषज्ञों का तो यही मानना है कि सस्ते तेल के सुहावने पुराने दिन अब शायद लंबे अरसे तक नहीं लौट पाएंगे।

बढ़ता घाटा

अध्ययनों के मुताबिक कच्चे तेल की कीमतों में 10 डॉलर यानी तकरीबन 400 रुपये प्रति बैरल की वृद्धि होने से भारत की जीडीपी विकास दर में 0.3 प्रतिशत की कमी आ सकती है और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में 1.2 प्रतिशत का इजाफा हो सकता है।

भारत तेल की अपनी कुल जरूरत का तकरीबन 70 फीसदी हिस्सा आयात के जरिये पूरा करता है। इससे साफ पता चलता है कि इस समय तेल की जो कीमतें हैं, उनके आधार पर उसे मांग पूरी करने के लिए पहले से भी ज्यादा रकम चुकानी होगी। भारत में व्यापार घाटा पहले से ही जबरदस्त स्तर यानी जीडीपी के 7 प्रतिशत तक पहुंच चुका है।

वित्तीय घाटा फिलहाल जीडीपी का 3 प्रतिशत है, लेकिन अगर इसमें उर्वरक, खाद्य, कृषि और तेल सब्सिडी को शामिल किया जाए तो यह 10 फीसदी तक पहुंच सकता है। इसलिए कच्चे तेल की कीमतों और इजाफा होने से हालात बदतर ही होंगे। इतना ही नहीं, तेल की कीमत बढ़ने से दूसरी बातों पर भी बुरा असर पड़ेगा।

क्वांटम म्युचुअल फंड के मुख्य कार्यकारी देवेन्द्र नेवगी कहते हैं, ‘यदि कच्चे तेल की कीमतें 150 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंचती हैं और वहीं बनी रहती हैं तो यह भारत और पूरी दुनिया को झकझोरने के लिए काफी होगा। वित्त वर्ष में भारत को कच्चे तेल के आयात पर अनुमानित तौर पर 78 अरब डॉलर खर्च करने होंगे, लेकिन कीमत का यह स्तर होने पर यह रकम बढ़कर 140 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगी।’

उच्च मुद्रास्फीति

कच्चे तेल की ऊंची कीमतों का भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। इनमें से कुछ हैं : उच्च मुद्रास्फीति दर, रुपये का अवमूल्यन, व्यापार खाता घाटे ब्याज दरों में बढ़ोतरी।  तेल संकट के अन्य पहलू संभवत: राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक अशांति होंगे।

8 फीसदी के आसपास मंडरा रही मुद्रास्फीति की दर एक प्रमुख चिंता के रूप में उभर सकती है। अर्थशास्त्रियों की बात मानें तो हाल फिलहाल मुद्रास्फीति दोहरे अंक में पहुंच सकती है। यदि ऐसा नहीं होता है, तो भी वह 7-8 फीसदी के बीच ही घूमती रहेगी। पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हालिया बढ़ोतरी के बाद इसके आसार बढ़ गए हैं।

एचएसबीसी के सह-प्रमुख (ग्लोबल मार्केट्स) आनंद कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘तेल कीमतों में हुई ताजा बढ़ोतरी के बुरे असर तो अभी हमारे सामने आने बाकी हैं और इस बढ़ोतरी का सीधा मतलब आने वाले हफ्तों में महंगाई की उछाल ही है। हमारे हिसाब से तो मुद्रास्फीति की दर 9 फीसदी के आंकड़े की ओर बढ़ रही है, लेकिन साल के आखिरी महीनों में यह कम हो जाएगी।’

विश्लेषकों का मानना है कि तेल कीमतों में इजाफा होने से उत्पादों के निर्माण पर आने वाली लागत बढ़ेगी और लॉजिस्टिक लागत में स्वत: ही इजाफा हो जाएगा। ट्रक मालिकों द्वारा किराया बढ़ाए जाने से इसमें 10-15 फीसदी की अतिरिक्त बढ़ोतरी होने की आशंका है। तेल कीमतों में बढ़ोतरी के प्रभाव से विमानन कंपनियां भी बच नहीं पाई हैं।

विमानन कंपनियों ने भी अपने किराए में जो ईंधन अधिभार लगता है, उसमें 15-20 फीसदी का इजाफा कर दिया है। इसलिए या तो कंपनियां बेचे जाने वाले सामानों या मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं की कीमतें बढ़ाएंगी, या फिर उन्हें मुनाफे पर चोट झेलनी पड़ेगी। इससे दूसरे क्षेत्रों में भी लागत में इजाफा हो जाएगा और उपभोक्ता के खर्च पर इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इस तरह या तो कंपनी के बिकने वाले माल की मात्रा कम हो जाएगी या उसका मुनाफा घट जाएगा, दोनों ही हालात में चोट कंपनी पर ही पड़ेगी।

ब्याज दर की चिंताएं

भारत की मौद्रिक नीति के लक्ष्यों में एक खास लक्ष्य कीमतों में स्थिरता लाना है, जिसे हासिल करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआई विकास को भी किनारे रख सकता है। यदि मुद्रास्फीति बढ़ती रहती है, तो आरबीआई नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) को बढ़ा सकता है या रेपो दर में इजाफा कर सकता है।

यदि मुद्रास्फीति 5.5 प्रतिशत पर रहती है, तो आरबीआई को कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन इस समय तो इसका आंकड़ा 8.24 फीसद तक पहुंच चुका है। ब्याज दर में बढ़ोतरी पर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं और अर्थशास्त्री भी ब्याज दरों के और बढ़ने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। इसका मतलब है जीडीपी विकास दर में 0.5 से 0.75 फीसद तक की कमी।

देवेन्द्र नेवगी कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था में मंदी आ जाएगी और अगले पूरे दशक में यह औसतन 6 से 7 फीसद के आंकड़े पर ही घूमती रहेगी। उच्च मुद्रास्फीति और कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बना रहेगा।’

आमदनी में कमी

उच्च ब्याज दर के साथ-साथ मुद्रास्फीति और उच्च जिंस कीमतों से भारतीय कारोबार पर नकारात्मक असर पड़ेगा। 2006 की दूसरी छमाही के बाद से प्रधान उधारी दर में बढ़ोतरी के कारण घरेलू पूंजी खर्च में पहले ही इजाफा हो चुका है। आवासीय ऋण भी और अधिक महंगे हो गए हैं।

कई मामलों में बैंक दुपहिया वाहनों और पर्सनल लोन के लिए 18-22 फीसदी का ब्याज ले रहे हैं। इसके परिणाम के तौर पर बैंकों के ऋण में बढ़ोतरी की दर घटकर 24 फीसदी रह गई है, जो जनवरी 2007 में 30 फीसदी से अधिक थी।

उच्च ब्याज दर से न केवल बैंकों की आय में कमी आएगी, बल्कि उपभोक्ता मांग में कमी आने की वजह से कंपनियों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसके शुरुआती संकेत औद्योगिक उत्पादन में मंदी के रूप में देखे गए हैं। मार्च को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष 2008 की तिमाही के दौरान औद्योगिक उत्पादन 5.8 फीसदी रहा जो कुछ महीने पहले 10 फीसदी से अधिक था। इसका व्यापक असर कंपनियों के कारोबार पर देखने को मिला है।

आंकड़ों के मुताबिक तेल एवं गैस एवं वित्त कंपनियों को छोड़ कर मार्च, 2008 में समाप्त हुई तिमाही के दौरान 1524 कंपनियों के समूह की बिक्री में पिछले पिछले साल के मुकाबले महज 14 फीसदी इजाफा हुआ जो सितंबर, 2006 में समाप्त हुई तिमाही में 28.9 फीसदी था। विश्लेषकों का मानना है कि यदि उच्च ब्याज दर जैसी समस्याएं बरकरार रहीं तो यह चलन आगे भी जारी रह सकता है।

सेंट्रम ब्रोकिंग के शोध प्रमुख हरेन्द्र कुमार कहते हैं, ‘हमारा मानना है कि सेंसेक्स आय वृद्धि में वित्तीय वर्ष 2009 में कमी आएगी क्योंकि बिजली, कोयला और अन्य कच्चे पदार्थों की लागत में बढ़ोतरी से सभी क्षेत्रों में मुनाफा कम हो जाएगा। उच्च ब्याज दर और ऋण की बढ़ोतरी में कमी से बैंकों पर दबाव पड़ेगा।’

असित सी मेहता इन्वेस्टमेंट इंटरमीडिएट्स के उपाध्यक्ष (शोध) भावेश शाह कहते हैं, ‘आय में कमी दिखने लगी है। उत्पादन (सामग्री, मानव संसाधन और पूंजी) लागत में वृद्धि से मार्जिन पर भी दबाव बढ़ा है। हम आईटी, ऑटोमोबाइल्स, इंजीनियरिंग, कैपिटल गुड्स और लॉजिस्टिक क्षेत्रों से जुड़ी कंपनियों के मार्जिन में कमी देख रहे हैं।’

वैसे सभी क्षेत्रों को इस मंदी की मार नहीं झेलनी पड़ेगी। वित्तीय एवं बैंकिंग सेवा, रियल एस्टेट, इंडस्ट्रियल, कैपिटल गुड्स और ऑटो जैसे कुछ क्षेत्रों पर इसका ज्यादा असर पड़ेगा। विश्लेषक वित्तीय वर्ष 2009 में बीएसई सूचकांक से होने वाली आय में तकरीबन 5-10 फीसदी की गिरावट की भविष्यवाणी कर रहे हैं।

यदि कच्चे तेल की कीमतें 150 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंचती हैं तो यह भारत और पूरी दुनिया को झकझोरने के लिए काफी होगा। भारत को कच्चे तेल के आयात पर तकरीबन 78 अरब डॉलर खर्च करने होंगे, लेकिन कीमत का यह स्तर होने पर यह रकम बढ़कर 140 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगी। – देवेन्द्र नेवगी, सीईओ एवं सीआईओ, क्वांटम म्युचुअल फंड

उच्च मुद्रास्फीतिकी वजह से मांग और कंपनियों के राजस्व में कमी हुई है। इसकेअलावा इन कंपनियों के खर्च में काफी इजाफा हुआ है। इससे रियल एस्टेट, बैंकिंग और ऑटो जैसे कई क्षेत्र प्रभावित होंगे।  – अमिताभ चक्रबर्ती, अध्यक्ष (इक्विटी), रेलीगेयर सिक्योरिटीज

हमारी नजर में वैश्विक बाजार अगले 12 महीनों के दौरान कमजोर बना रहेगा। यूएस हाउसिंग के आंकड़ों से इस बात की पुष्टि हो जाती है। अमेरिका में बड़ी संख्या में लघु व्यवसाय दिवालियापन के कगार पर हैं।  अकेले 2008 में 5,000 लघु व्यवसाय दिवालियापन की चपेट में आ चुके हैं।  – मधुसूदन राजगोपालन, निदेशक, अरांका इंडिया ऑपरेशंस

First Published : June 8, 2008 | 10:46 PM IST