ज्यादातर भारतीय लघु एवं मझोले उद्योग अपने बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) की सुरक्षा के लिए कोई खास बंदोबस्त नहीं करते हैं।
विश्वनाथ ऐंड ग्लोबल एटॉर्नीज के सीईओ और पेटेन्ट एटॉर्नी रमेश विश्वनाथ मानते हैं कि अब धीरे-धीरे इसमें बदलाव आ रहा है। हालांकि बदलाव की यह बयार अब बहने लगी है। अब एसएमई मानने लगे हैं कि आईपीआर सुरक्षा उनके लिए भी उतनी ही जरूरी है, जितना बड़ी कंपनियों के लिए।
आजकल जैसे जैसे सरकार की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है, एसएमई मुक्त बाजार में स्पद्र्धा करने के लिए कमर कस चुकी है। इसलिए अब एसएमई को आईपीआर सुरक्षा की ज्यादा जरूरत महसूस हो रही है। वैसे आईपीआर की मांग निवेश पर निर्भर करती है, लेकिन इससे एसएमई को प्रतिस्पर्द्धी लाभ भी मिलेगा।
मिसाल के तौर पर एसएमई एलिको को लें, जिसमें 300 कर्मी कार्यरत हैं। उसकी स्थापना 1960 में की गई थी। यह कंपनी अब आईपीआर के रास्ते पर अग्रसर हो रही है। उसने भी आईपीआर का रास्ता तब अख्तियार किया, जब उसकी निर्माण प्रक्रिया और उत्पादों की गुणवत्ता सुरक्षा के अभाव में प्रभावित होने लगी।
एलिको के प्रबंध निदेशक और भारतीय सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्योग महासंघ के प्रमुख रमेश दातला ने इस बात को स्वीकार किया कि उनकी कंपनियों के उत्पादों और उसकी शोध एवं विकास टीम की रणनीतियों का इस्तेमाल दूसरी कंपनियों द्वारा किया जा रहा है।
उन्होंने कहा, ‘दूसरी कंपनियों द्वारा हमारी पहल की नकल करने का हमारे पास कोई कानूनी सबूत नहीं है। इस तरह की घटनाएं यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमें अपनी तकनीक का मालिकाना हक साबित करने के पुख्ता व्यवस्था पर भी ध्यान देना चाहिए। अगर ऐसा संभव नहीं होता है, तो ग्राहक हमारे वास्तविक होने की बात पर कैसे विश्वास कर सकते हैं।’
वैसे एलिको में आई यह जागरूकता सही वक्त पर नहीं आई है। कंपनी ने पेटेंट और डिजाइन कॉपीराइट के लिए आवेदन दे दिया है और उसके पास सात पेटेंट और दो कॉपीराइट हैं। कंपनी को इस मामले में सबसे ज्यादा प्रतिस्पद्र्धा अमेरिकी कंपनी से हो रही है, जो उसकी तकनीक का इस्तेमाल करना चाहता है।
दातला ने कहा, ‘बड़े बड़े ग्राहक हमारे आईपीआर के मूल्य को समझकर हमारे पास आ रहे हैं, लेकिन हमलोग अपनी आईपीआर को बेचने की इच्छा नहीं रखते हैं।’ एलिको ने यह निर्णय किया है कि वे अपने उत्पादों के आउटसोर्स के लिए अमेरिकी कंपनी को पार्टनर बना सकती है, लेकिन ब्रांड नाम के तहत उसकी कंपनी का ही नाम रहना चाहिए। दातला कहते हैं, ‘ इससे हमारे कर्मचारियों का उत्साह बढ़ा है। वैसे भी हमारी कंपनी भारत की पहली कंपनी है, जिसने इस उपकरण का इस्तेमाल अपने घरेलू उत्पादों के लिए किया।’
आईपीआर को कंपनी के आकार आदि का ख्याल रखे बिना भी दिया जा सकता है। दरअसल इसे देने का लक्ष्य मुख्य तौर पर उत्पादों की सुरक्षा करना है। कोई कंपनी अगर किसी खास तकनीक या उत्पाद का ईजाद करती है, तो उसकी ओरिजिनेलिटी पर उस कंपनी का अधिकार हो, इसी को ध्यान में रखते हुए आईपीआर सुरक्षा प्रदान की जाती है।
मिसाल के तौर पर भारतीय पेटेंट कानून 1970 में पेटेंट प्राप्त करने के कई लक्षणों का जिक्र किया है, जिसके आधार पर नोवेल्टी,इकाई और अस्पष्ट पेटेंट देने की घोषणा करने की बात कही गई है। एसएमई जब भी आईपीआर सुरक्षा की बात करते हैं, तो उनके दिमाग में अपने उत्पादों की ओरिजिनेलिटी की रक्षा करना ही सर्वोपरि होता है, लेकिन उसी वक्त कोई दूसरी कंपनी आईपीआर सुरक्षा के उल्लंघन के आधार पर उस पर भी दोषारोपण का दावा कर सकती है।
तेल और गैस उद्योगों के लिए वॉल्व बनाने वाली एक कंपनी को आईपीआर सुरक्षा की पेंचीदगियों का एहसास नही था। जब ब्रिटेन की एक कंपनी ने पेटेंट के मुद्दे पर इस कंपनी को घेरने की कोशिश की तब जाकर उसे एहसास हुआ कि पेटेंट नाम की भी कोई चीज होती है।
कंपनी के एक प्रवक्ता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘यह दरअसल हमारी कंपनी की उत्पादकता पर प्रहार करने के लिए उठाया जाने वाला एक कदम था।’ हालांकि इस मसले को बाद में नाटकीय ढंग से सुलझा लिया गया, लेकिन इससे कंपनी को एक सीख मिल गई कि कंपनी के अपने किसी भी उत्पाद या तकनीक या पहल के लिए पेटेंट कराना जरूरी है अन्यथा उसके बारे में कोई और कंपनी दावा कर सकती है।
एलिको के दातला इस बात पर जोर देते हैं कि जब तक कोई कंपनी स्थानीय बाजार में काम करती है, तब तक वह आईपीआर को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है। लेकिन एक बार अगर यह किसी बाजार में प्रवेश कर जाता है, तो मुश्किलें बढ़नी शुरू हो जाती है। लेकिन अगर सही कंसल्टेंसी के तहत इसे अपनाया जाए, तो यह बेहतर भी हो सकता है।
विश्वनाथ एक हल बताते हैं। वह कहते हैं, ‘ एसएमई को आईपीआर के लिए एक निश्चित रणनीति की आवश्यकता है। ‘ सारे आईपीआर उपकरण जैसे पेटेंट, कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, औद्योगिक डिजाइन और भौतिकीय संकेतकों की सही जानकारी होनी चाहिए।
उनका कहना है, ‘एसएमई प्रबंधन को आईपीआर सेल की तुलना में इसके बारे में कम जानकारी होती है। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ ऐसे उत्पाद डिजाइन भी हो, जिसके पेटेंट कराने की जरूरत नही हो। लेकिन उस डिजाइन में परिवर्तन कर उसकी गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है और यह पेटेंट के दायरे में आता है।’
अगर एक सही आईपीआर रणनीति बनाई जाए, तो समय और लागत दोनों की बचत हो सकती है। ऐसा होने पर किसी ऐसे संसाधनों में समय और पैसा बर्बाद करने की जरूरत नही होती है, जो अक्सर किया जाता है।
चाहे वह कोई भी कंपनी हो, उसके पास उसके निर्माण प्रक्रिया से लेकर आईपीआर तक की एक नियत रणनीति का होना आवश्यक है। अगर वॉल्व निर्माता कंपनी का ही उदाहरण लें, तो जब इसके अधिकारी पानी के इस्तेमाल की जांच करते हैं, तो बहुत तरह की ऐसी प्रक्रिया बनती हैं, तो अलग अलग देशों में आईपीआर की सुरक्षा के लिए काफी जरूरी होता है।
कंपनी के एक प्रवक्ता बताते हैं, ‘अभी हमलोग पूरी तरह बचाव की मुद्रा में हैं। अभी हम अपने उत्पादों और उसके विकास को लेकर सिर्फ आईपीआर सुरक्षा लेने की कोशिश कर रहे हैं। जब हम अपनी उत्पादों की सही पहचान बना लेंगे, तब ज्यादा निवेश के साथ हम विदेशी स्तर पर पेटेंट की बात करेंगे। अब यह हमें निर्णय करना है कि हमें कितनी सुरक्षा की जरूरत है।’
लेकिन रणनीति बनाने से पहले एसएमई को कुछ कुतर्कों से भी बचने की जरूरत है। अगर अपने उत्पादों को लेकर वे सजग रहेंगे, तो विपणन और उत्पादों की आईपीआर सुरक्षा को लेकर उसकी आशा की किरण बनी रहेगी। कभी कभी रॉयल्टी फी प्राप्त करने के ख्याल से अपने आविष्कार या लाइसेंस को बेचा भी जाता है। विश्वनाथ कहते हैं, ‘हम जब यह पूछते हैं कि आविष्कार का वाणिज्यीकरण किया गया है या नहीं , तो वे हमसे कहते हैं कि काफी सालों से यह आविष्कार सही से काम कर रहा है और इससे हमारा लक्ष्य पराजित हो जाता है।’
एसएमई जो आईपीआर के जरिये अपनी आय बढ़ाना चाहते हैं, उसे न केवल यह देखना चाहिए कि उसके उत्पाद या आविष्कार वाणिज्यिक उद्देश्यों से महत्त्वपूर्ण हैं या नहीं। इसका आकलन केवल बाजार के आधार पर ही नही होना चाहिए, बल्कि बड़े ग्राहकों से भी उत्पादों की गुणवत्ता पर मुहर लगनी चाहिए। एक रणनीति केतहत यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आईपीआर के लिए आवेदन करने के लिए संसाधन उतने जरूरी नहीं होते।