हिंदी दिवसहिंदी साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन अब दिल्ली, इलाहाबाद, पटना जैसे पुराने गढ़ों से भोपाल, सीहोर और जयपुर जैसे नए और छोटे ठिकानों में पहुंच गया है। इस लोकतंत्रीकरण का फायदा लेखकों और प्रकाशकों दोनों को हुआ हैपि छले कुछ वर्षों में देश के हिंदी भाषी शहरों में ऐसे छोटे प्रकाशन समूह सामने आए हैं, जो बड़े प्रकाशकों को तगड़ी चुनौती दे रहे हैं। ये प्रकाशक प्रेरक पुस्तकों, विश्व साहित्य की बेहतरीन कृतियों के अनुवादों और लेखकों की नई किताबों के साथ न केवल बड़े प्रकाशकों को टक्कर दे रहे हैं बल्कि साहित्यिक हलचल और प्रकाशन उद्योग के लिहाज से नए और छोटे शहरों में अपनी पहचान भी बना रहे हैं। इन प्रकाशकों ने पाठकों और लेखकों दोनों के सामने नए विकल्प प्रस्तुत किए हैं।प्रकाशन उद्योग को अब तक ठीक ढंग से उद्योग का दर्जा हासिल नहीं है और नीतिगत क्षेत्रों में इसका प्रतिनिधित्व भी मजबूत नहीं है। ऐसे में प्रकाशन क्षेत्र में चुनिंदा बड़े समूहों का दबदबा रहा है। परंतु धीरे-धीरे छोटे प्रकाशन समूहों ने अपनी जगह बनाई और उन्हें तगड़ी चुनौती देना शुरू किया। इसका फायदा छोटे शहरों में रहने वाले लेखकों को भी मिला है। पहले उन्हें अपनी पांडुलिपियां दिल्ली के बड़े प्रकाशकों के पास भेजकर महीनों और कई बार तो वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। मगर अब कई लेखकों ने इंटरनेट के जरिये तेजी से पहचान बनाई है और किंडल सेल्फ पब्लिशिंग जैसे माध्यमों से शुरुआत के बाद प्रकाशकों ने भी उन्हें हाथोहाथ लिया।भोपाल के मैंड्रेक प्रकाशन समूह के प्रकाशक डॉ. अबरार मुल्तानी कहते हैं कि निश्चित रूप से छोटे शहरों में प्रकाशन समूहों की आमद ने प्रकाशन जगत को लोकतांत्रिक बनाया है। पेशे से आयुर्वेद के चिकित्सक डॉ. मुल्तानी स्वयं स्वास्थ्य पर केंद्रित कई पुस्तकें लिख चुके हैं जो राजकमल जैसे बड़े प्रकाशन गृह से प्रकाशित हुई हैं। वह कहते हैं, 'पहले लेखकों की आम शिकायत होती थी कि बड़े प्रकाशकों के पास उनकी पांडुलिपियां वर्षों तक अटकी रहती थीं। एक लेखक तो तीन वर्ष से प्रकाशक के उत्तर का इंतजार कर रहे हैं।' मुल्तानी कहते हैं कि लेखन और किताबों में गहरी रुचि के कारण ही उन्होंने इसे व्यवसाय बनाया। उन्होंने विश्व साहित्य की उत्कृष्ट पुस्तकों के अनुवाद से शुरुआत की और एक वर्ष से भी कम समय में वह पाठकों के सामने 100 किताबें ला चुके हैं। किताबों का मूल्य तय करने के तरीके पर वह कहते हैं, 'पुस्तकों का मूल्य निर्धारित करने के लिए मुद्रण का खर्च, कूरियर खर्च, डिजाइनर का शुल्क, लेखक की रॉयल्टी, प्रचार-प्रसार पर किया जाने वाला खर्च, वितरण की लागत और अपनी बचत जैसी बातों का ध्यान रखना पड़ता है।' मैंड्रेक प्रकाशन 15 लोगों को रोजगार दे रहा है। छोटे प्रकाशकों पर बड़ा आरोप! कई लेखकों का आरोप है कि इस बीच कई ऐसे प्रकाशक आए हैं जो पैसे लेकर कुछ भी छाप देते हैं। तकनीक की मदद लेकर किताबों का बेहतर मुद्रण किया जाता है और सोशल मीडिया के दौर में प्रायोजित समीक्षाएं छपवाई जाती हैं। एक प्रकाशक नाम जाहिर न करने की शर्त पर यह बात कबूल करते हैं और इसका गणित समझाते हैं। वह कहते हैं, 'अगर कोई किताब अपने दम पर बिकने लायक नहीं हो मगर लेखक उसे छपवाने की जिद करे तो लेखक से 15,000 रुपये पेशगी ले ली जाती है। इसके बाद किताब की 200 प्रतियां छापकर 100 प्रतियां लेखक को दे दी जाती हैं। अब प्रकाशक का पूरा खर्च वापस आ जाता है और पहले दिन से ही वह मुनाफे में होता है। बाकी 100 प्रतियां बिकने पर उसका मुनाफा बढ़ जाता है। किताब की मांग बढ़ती है तो नई प्रतियां और संस्करण छापे जाते हैं।' वह कहते हैं कि हिंदी के मध्यवर्ग के एक तबके को सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए लेखक बनना आसान लगता है। उनके पास पैसा है और प्रकाशक इसका फायदा उठाते हैं। जयपुर के एक प्रकाशक ने यही मॉडल अपनाकर पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों कविता संग्रह छाप दिए। उक्त प्रकाशक बड़े प्रकाशकों पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि लाभ कमाने की आकांक्षा और पुस्तकालय संस्करण तथा संस्थागत खरीद पर उनकी निर्भरता ने किताबों को पाठकों से दूर करने में अहम भूमिका निभाई। पुस्तकालयों के लिए महंगे हार्ड कवर (जिल्द वाले) संस्करण लाए जाते हैं, जिनकी कीमत आम पाठकों की जेब से बिल्कुल बाहर होती है। लेकिन नए प्रकाशनों के पैठ बनाने के बाद प्रकाशन जगत का लोकतंत्रीकरण हुआ है। अब तस्वीर बदल रही है और बड़े प्रकाशक भी सोशल मीडिया पर आम पाठकों से सीधे संवाद कर रहे हैं तथा उनके लिए पेपरबैक संस्करण ला रहे हैं। प्रकाशकों की बढ़ती भीड़ में पाठकों के लिए भी चुनौतियां हैं। यदि पाठक बहुत जानकार नहीं है तो उसे शोध करके ही पुस्तक चयन करना होता है क्योंकि सोशल मीडिया के आगमन के बाद पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के तौर तरीके बहुत आक्रामक हो गए हैं।प्रभात प्रकाशन के निदेशक पीयूष कुमार कहते हैं कि प्रकाशन का काम मुद्रण या बाइंडिंग की तरह नहीं है और इसे केवल पैसे कमाने के लिए इस्तेमाल करने वाले कभी सफल नहीं हो सकते। वह कहते हैं, 'प्रकाशन बहुत मेहनत और जुनून से होने वाला काम है। दशकों की मेहनत के बाद आपको यह संतुष्टि मिल पाती है कि आप अच्छे प्रकाशक बन सके हैं।' पीयूष छोटे और बड़े शहरों जैसे किसी भी विभाजन को नकारते हैं। उनका कहना है, 'डिजिटल युग में बड़े या छोटे प्रकाशक जैसा कुछ नहीं रह गया है। पाठक के पास हर किताब ऑनलाइन खरीदने का मौका है। ऑनलाइन खरीद की सुविधा ने भौगोलिक दूरियों को बेमानी कर दिया है।' पीयूष कहते हैं कि पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देना समाज के रूप में हमारी बेहतरी का सबसे सहज माध्यम है। पैसे लेकर पुस्तक छापने के मामलों पर वह दो टूक कहते हैं कि ऐसा काम कभी किसी के हित में नहीं हो सकता चाहे बड़ा प्रकाशक करे या छोटा प्रकाशक।प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े युवा कवि अनिल करमेले का कविता संग्रह 'बाकी बचे कुछ लोग' हाल ही में आया है वह कहते हैं, 'हम यह मान लें कि पुस्तक प्रकाशन भी अन्य व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय है। इसमें भी नफा-नुकसान का गणित तो रहता ही है। पारंपरिक छपाई के दौर में बड़े प्रकाशकों का बोलबाला था लेकिन कंप्यूटर टाइपिंग के साथ ही यह दूसरों के लिए भी आसान हो गया। प्रकाशन जगत के लिए लेखकों की कमी कभी नहीं रही है मगर प्रकाशन समूह हमेशा ही महत्त्वपूर्ण लेखकों को तरजीह देते रहे हैं। नतीजा, छोटे या बिना चर्चा के लेखकों को प्रकाशन में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में छोटे प्रकाशकों का उदय हुआ। पुस्तक प्रकाशन में हाल के वर्षों में जो क्रांति आई है वह सोशल मीडिया की देन है। अधिकतर छोटे प्रकाशक लेखकों से पैसे लेकर किताब छापते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। लेकिन ऑनलाइन क्रांति ने प्रकाशनों में बड़े-छोटे का भेद बेमानी कर दिया है। अब बाजार सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है।' करमेले कहते हैं कि छोटे प्रकाशकों के सामने एक चुनौती यह भी है कि कैसे नामचीन लेखकों को अपने साथ जोड़ा जाए। कोई भी प्रकाशन तभी महत्त्वपूर्ण होता है जब वह अपने समकालीन लेखकों की किताबें छापे। लेकिन बड़े लेखक छोटे प्रकाशकों से किताब छपवाने में इसलिए हिचकिचाते हैं क्योंकि अक्सर छोटे प्रकाशन पांच-सात वर्षों में बंद होते देखे गए हैं। भोपाल के निकट सीहोर जिले का शिवना प्रकाशन समूह साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन में विशिष्ट पहचान बना चुका है। शिवना प्रकाशन के प्रकाशक कथाकार पंकज सुबीर कहते हैं कि बड़े प्रकाशकों के पास पांडुलिपि लंबे समय तक पड़ी रहती है। लेखक को साथ जोड़कर लोकतांत्रिक बनाया सीहोर के शिवना प्रकाशन के प्रकाशक और कहानीकार पंकज सुबीर को रूस का प्रतिष्ठित पुश्किन सम्मान देने की घोषणा हाल ही में हुई है। सुबीर कहते हैं कि ज्ञानपीठ में पांडुलिपि देने के बाद उन्हें अपनी किताब के दर्शन छपने के बाद ही हुए। किताब के आवरण से लेकर कहानियों के क्रम तक उनसे कुछ भी नहीं पूछा गया। इसके उलट उनका प्रकाशन समूह लेखकों को हर कदम पर साथ लेकर चलता है। एक बार पांडुलिपि स्वीकार होने के बाद आवरण चयन से लेकर, प्रूफ की गलतियां दूर करने, रचनाओं को क्रमबद्ध तरीके से रखने तक हर कदम पर लेखक की राय ली जाती है और मुद्रण के ठीक पहले अंतिम पीडीएफ भी लेखक को भेजा जाता है ताकि गलती की कोई आशंका न रहे। पैसे लेकर किताब छापे जाने के आरोप के बारे में सुबीर कहते हैं कि छोटे प्रकाशकों को कठघरे में खड़ा करना ठीक नहीं। वह कहते हैं, 'मैं नाम नहीं लूंगा लेकिन मैं ऐसे बड़े प्रकाशकों को भी जानता हूं जिन्होंने लेखक से किताब छापने के लिए ढाई लाख रुपये तक लिए हैं। हमारा दर्शन बिल्कुल अलग है। हम मानते हैं कि प्रकाशक को लेखक का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने अपनी किताब प्रकाशन के लिए दी है।' सुबीर कहते हैं कि नए लेखकों की पांडुलिपियां एक से दो महीने में स्वीकृत या अस्वीकृत कर दी जाती हैं और स्वीकृत पांडुलिपि अधिकतम छह माह में प्रकाशित हो जाती है। शिवना प्रकाशन से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 15 लोग जुड़े हुए हैं। इन तमाम बातों के बीच नए और छोटे शहरों में तेजी से पनपते प्रकाशन गृहों का आगमन लेखकों के लिए अच्छा साबित हुआ है। बड़े प्रकाशकों के पास पांडुलिपि भेजकर लंबा इंतजार करने के बजाय वे अपनी पुस्तकें अब ज्यादा आसानी से छपवा सकते हैं और ऑनलाइन माध्यमों के कारण पुस्तकों का प्रचार-प्रसार भी आसान हुआ है।
