लैंड रोवर और जगुआर अब टाटा की झोली में हैं। ऐसे में हर किसी की नजर टाटा पर होगी और हर कोई यह जानना चाहेगा कि आखिर किस तरह की रणनीति अपनाकर टाटा ने इस अधिग्रहण को अंजाम दिया।
इस सौदे की प्रक्रिया महीनों चली, पर यह सही वक्त पर हुआ सौदा है। अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट मार्केट में आए भूचाल का असर टाटा द्वारा सौदे की फंडिंग के लिए हासिल किए जाने वाले कर्ज पर जाहिर तौर पर पड़ेगा। जब फोर्ड ने पहली दफा यह ऐलान किया था कि उसके दोनों लग्जरी बैं्रड्स लैंड रोवर और जगुआर की दौड़ में टाटा सबसे आगे है, तो इस ऐलान के ऐन बाद के्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स (एसऐंडपी) और मूडीज ने टाटा मोटर्स को नेगटिव वॉच की फेहरिस्त में डाल दिया था।
इन क्रेटिड रेटिंग एजेंसियों का तर्क यह था कि यह एक बड़ा सौदा होगा और यदि इस सौदे के लिए बड़ी मात्रा में कर्ज की राशि ली गई, तो इसका बुरा असर सामने आएगा। इसके बाद से ग्लोबल लेवल पर वित्तीय वातावरण की हालत और पतली हुई है, पर टाटा के पक्ष में अच्छी बात यह है कि इन दोनों ब्रैंड्स के लिए टाटा को उतनी रकम भी नहीं देनी पड़ रही है, जितनी रकमें पिछले खरीदार इनके लिए दे चुके हैं।
ऐसे में यदि कर्ज की रकम ज्यादा भी होती है, तो इन गाड़ियों के निर्माण पर आने वाली लागत (कैपिटल कॉस्ट) काफी कम होगी।दिक्कत का एक मसला टाटा की रणनीतिक फिटनेस से जुड़ा है। टाटा साफ तौर यह सोचती है कि वह अपने खुद के बूते बेहतर प्रबंधन कर नए अधिग्रहणों को अंजाम दे सकती है। इस तरह की बात आज से 5 साल पहले कोई भारतीय ऑटोमोबाइल कंपनी नहीं सोच सकती थी।
इन चीजों के मद्देनजर यह महत्वपूर्ण नहीं है कि लैंड रोवर और जगुआर दो प्रीमियम ब्रैंड हैं और खुद टाटा मोटर्स आर्थिक रूप से लोकप्रिय कारें और ट्रक बनाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि टाटा और लैंड रोवर में आपसी तालमेल कायम हो सकता है, पर जगुआर के साथ ऐसा नहीं हो सकता। दूसरी ओर, अजीब विरोधाभास यह भी है कि टाटा मोटर्स और फिएट के बीच पहले से तालमेल संभव है और ऐसा है पहले से है भी।
मैन्युफैक्चरिंग और सेलिंग को लेकर टाटा और फिएट के बीच पहले से करार है, जबकि अपने नए अधिग्रहण के मामले में ऐसे किसी तालमेल का इरादा टाटा की योजना में नजर नहीं आता।एक मसला यह भी है कि यूरोप, जो लग्जरी कारों का एक महत्वपूर्ण बाजार है, में लग्जरी कारों और स्पोट्र्स यूटिलिटी वीइकल (एसयूवी) के लिए वातावरण बहुत अच्छा नहीं है। यूरोपीय देशों के कड़े इमिशन नॉम्स इस तरह की कारों के खिलाफ हैं।
टाटा मोटर्स के लिए इन कारों की कीमतों में कटौती करना भी संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि वह चाहकर भी स्टाफ की संख्या नहीं घटा पाएगी। पर टाटा की आदत चुनौतियों से लड़ने की है। शायद इन मामलों से भी निपटने में टाटा उसी तरह कामयाब हों, जैसी कामयाबी उन्होंने नैनो पेश कर हासिल की है।