आईबीएम के सीईओ और चेयरमैन अरविंद कृष्णा ने हाल में कहा कि वह कंपनी के भारत स्थित आर ऐंड डी सेंटर में विकसित हो रहे नवाचारों को लेकर बेहद उत्साहित हैं। इस बात पर हम अपनी देसी तकनीकी विशेषज्ञता पर खुद की पीठ थपथपा सकते हैं। असल में भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियां सेमीकंडक्टर और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) में जितना व्यापक और गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान कर रही हैं, वह दुनिया में हाई-टेक तेजी का काफी हद तक अनजाना पहलू है। उसके बारे में लोगों को बहुत कुछ नहीं पता।
ब्रेन-ड्रेन या प्रतिभा पलायन का यह एक पहलू है। पहले सरकारी खर्च पर देश के आला संस्थानों से शिक्षित और योग्य इंजीनियर और प्रबंधन छात्र रोजगार के अवसरों के लिए पश्चिम के देशों में चले जाते थे जो उनके कौशल का फायदा उठाकर उनको करियर में आगे बढ़ने का मौका उपलब्ध कराते थे। लेकिन अब ब्रेन-ड्रेन 2 खुद भारत में ही हो रहा है। आईबीएम जैसी अभिजात्य अमेरिकी कंपनी वास्तव में भारत में भारत की ही बौद्धिक क्षमताओं से मूल्य हासिल कर रही है।
इन नवाचारों से मिलने वाले वाणिज्यिक इस्तेमाल से न्यू यॉर्क में सूचीबद्ध और वहीं के मुख्यालय वाली कंपनी के मुनाफे में ही इजाफा होगा। देश के भीतर विकसित बौद्धिक संपदा का भारत स्थित विदेशी कंपनी को चले जाना देश के कार्यकारी रोजगार बाजार की मांग के तौर-तरीके में मौजूद विसंगति की झलक देता है।
प्राथमिकता के क्रम में बात करें तो विदेशी कंपनियां, खासतौर पर टेक, इंजीनियरिंग या उपभोक्ता सामान, इसमें सबसे ऊपर हैं। भारतीय निजी क्षेत्र इसका अनुसरण करता है, पर उनकी संख्या बहुत कम है। इसमें आप टाटा समूह, रिलांयस, बजाज, महिंद्रा और भारत में विकसित इन्फोसिस, एचसीएल जैसी तकनीकी दिग्गज को शामिल कर सकते हैं।
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अगर आप महत्त्वाकांक्षी हैं तो इतने बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरियां उपलब्ध ही नहीं है। पहले सार्वजनिक क्षेत्र को उन लोगों के लिए सुरक्षित जगह माना जाता था जिनकी अपना करियर आगे बढ़ाने में दिलचस्पी होती थी। लेकिन अब जिस तरह अनुबंधीकरण बढ़ रहा है, उससे सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यकारी स्तर की नौकरियों का स्वरूप भी बदल रहा है।
पश्चिम या बहुराष्ट्रीय कंपनी में रोजगार की प्राथमिकता समझ आती है। कारण कि ये कंपनियां न केवल ऊंचा वेतन देती हैं बल्कि कुछ विकसित देशों में जाने (और देश छोड़ने तक ) की संभावना के साथ-साथ सार्थक पेशेवर प्रगति भी मुहैया कराती है। भारतीय उद्योग जगत प्रतिभाओं के मामले में स्वाभाविक रूप से नुकसान की स्थिति में है। कारण कि उसका शुरू से ही घरेलू फोकस और परिवार नियंत्रित संस्कृतिहोना है। यह लंबे समय तक चली बंद अर्थव्यवस्था का नतीजा है। साथ ही घरेलू कंपनियों ने वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए सत्ता में लॉबीइंग करके इसका आसानी से फायदा उठाया।
लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि उदारीकरण के तीन दशक बाद भी भारतीय उद्योग जगत की विश्व में सबसे हलकी पदछाप है। इसके बचाव में तर्क दिया जा सकता है कि इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय कंपनी जगत अमेरिकी दिग्गजों की तुलना में आयु और अनुभव के मामले में ज्यादा युवा है। यह दलील 112 वर्ष पुरानी बिग ब्लू या 131 साल पुरानी जीई के मामले में सही हो सकती है। लेकिन जरा फांग (फेसबुक, एमेजॉन, ऐपल, नेटफ्लिक्स और गूगल) पर विचार कीजिए जिनके संस्थानों का भारत में दबदबा है। इनमें एक को छोड़कर बाकी सब मध्य वय में प्रवेश कर चुकी हैं। इनमें ऐपल 47 वर्ष की है जो निश्चय ही एमेजॉन 29, नेटफ्लिक्स 26 और गूगल 25 से बड़ी है। फेसबुक सिर्फ 19 साल की है।
इनकी तुलना में भारतीय शेयर बाजार में पूंजीकरण के लिहाज से दिग्गज ज्यादा आयु के हैं। रिलायंस, 50 वर्ष , देश में सबसे ताकतवर दिग्गज है। टीसीएस और इन्फोसिस का अपने बिजनेस मॉडल के कारण व्यापक वैश्विक कामकाज है, दोनों क्रम से 55 और 42 साल की हैं।
अपने अफ्रीकी कामकाज के कारण भारती एयरटेल भी अंतरराष्ट्रीय दिग्गज मानी जाएगी लेकिन देश से बाहर जाने वाले कार्यकारियों के लिए अफ्रीका अभी तक महत्त्वाकांक्षी जगह नहीं है। 68 साल पुराने सरकारी स्वामित्व वाले भारतीय स्टेट बैंक की विदेश में शाखाएं हैं पर उसे भी अंतरराष्ट्रीय वित्त में बड़ा खिलाड़ी या वित्तीय पेशेवरों के लिए पसंदीदा बैंक नहीं माना जा सकता।
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अगर भारत के सर्वश्रेष्ठ और सबसे मेधावी अब भी विदेशी निगमों में रोजगार को प्राथमिकता देते हैं, चाहे वह भारत हो या विदेश, तो देश का धनाढ्य वर्ग भी अपनी सरजमीं छोड़ने में पीछे नहीं है। इस साल जून में आई हेनली प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2023 में 6500 करोड़पतियों के भारत छोड़ने की संभावना है। यह पिछले साल भारत छोड़ने वालों के 7,500 के आंकड़े से थोड़ा कम है।
वे क्यों भारत छोड़ रहे हैं? हेनली में एक वरिष्ठ पार्टनर घुमा-फिरा कर इसे ‘हाल की और लगातार उथल-पुथल’ बताते हैं। उन्होंने कहा कि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि और भी ज्यादा निवेशक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल तथा जलवायु परिवर्तन के असर के कारण अपने परिवारों को भारत से निकालकर विदेश ले जाने पर विचार कर रहे हैं।
दूसरे शब्दों में, न केवल अमीर भारतीय अपने देश को लेकर असहज हैं और अपने संसाधनों के साथ यहां से जा रहे हैं, वहीं देश की भावी प्रतिभा यानी उनके बच्चे भी भारत छोड़ रहे हैं और इसकी संभावना कम ही है कि विदेश में शिक्षा हासिल करने के बाद वे स्वदेश लौट आएंगे।
ऐसा लगता है कि हेनली इस वजह को लेकर चिंतित नहीं है और कहते हैं कि भारत में हर साल कई करोड़पति पैदा हो रहे हैं। लेकिन पिछले दशक में जिस रफ्तार से भारतीयों ने अपनी नागरिकता थोड़ी है, उसे देखते हुए कह सकते हैं कि की दोहरा ब्रेन ड्रेन भारत की मानव पूंजी को ऐसे समय में गंभीरता से प्रभावित कर सकता है जब शिक्षा में सार्वजनिक निवेश बहुत कम है। यह एक सच्चाई है जिस पर निश्चित ही ज्यादा गंभीरता के साथ ध्यान देना चाहिए क्योंकि भारत की हैसियत अब वैश्विक ताकत जैसी है।