मुझे लगता है कि भारत में लोग ‘पीई’ की व्याख्या प्राइवेट इक्विटी की बजाय पर्मानेंट इस्टैब्लिशमेंट से करते हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर निदेशकों से अक्सर मेरी बातचीत में ऐसा कभी-कभार ही होता है जब मुझसे भारतीय पीई के बारे में सवाल नहीं पूछा जाता हो। मुझसे पूछा जाता है कि भारत में लोग पीई की व्याख्या किस तरह करते हैं। इसकी व्याख्या को लेकर न सिर्फ कर प्रशासन से जुड़े लोग बल्कि कर सलाहकार भी भ्रमित हैं।
मेरा मानना है कि इसके लिए दो कारक प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। एक तो यह कि लोग कर कानून की व्याख्या नियम के बजाय सिद्धांतों के आधार पर करते हैं। इसके अलावा कर प्रशासन से जुड़े लोगों को कर आधार घटने का भय सताता रहता है। इससे भारत में काम कर रही विदेशी कंपनियों को कई तरह के लाभ हासिल होते हैं।
हाल ही में विकसित देशों के 30 सदस्यीय ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनोमिक कॉ-आपरेशन ऐंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने पर्मानेंट इस्टैब्लिशमेंट (पीई) के लाभ रोपण पर अपनी फाइनल रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में लंबी प्रक्रिया के समापन का जिक्र किया गया है जो 1995 में ‘ट्रांसफर प्राइसिंग गाइडलाइंस फॉर मल्टीनेशनल एंटरप्राइजेज ऐंड टैक्स एडमिनिस्ट्रेशंस’ (ओईसीडी गाइडलाइंस) के लागू होने के साथ ही शुरू हुई थी। उसके बाद से पीई के लिए इसी तरह के सिद्धांतों को लागू करने की संभावना अंतर्राष्ट्रीय कर कानून में सर्वाधिक बहस वाला विषय बनी हुई है।
पीई और प्रॉफिट एट्रीब्यूशन
ओईसीडी ने कराधान को लेकर एक शोध किया जिसमें कर चोरी से लेकर हस्तांतरण के मूल्य निर्धारण जैसे विभिन्न मुद्दों को शामिल किया गया था। इसकी हालिया पहलों – ‘रिपोर्ट ऑन द एट्रीब्यूशन ऑफ प्रॉफिट्स टु पर्मानेंट इस्टैब्लिशमेंट्स’ और ‘अपडेट टु मॉडल टैक्स कन्वेंशन’ से अंतर्राष्ट्रीय कराधान की दो अलग-अलग लेकिन संबद्ध धाराओं ‘ट्रांसफर प्राइसिंग’ और ‘प्रॉफिट एट्रीब्यूशन’ के कनवर्जेन्स की पहचान की गई।
अंतर्राष्ट्रीय कर के सब-डिसीप्लिन के तौर पर ट्रांसफर प्राइसिंग को इंट्रा-गु्रप सौदों के मूल्य निर्धारण के साथ विशेष तौर पर अंजाम दिया जाता है। दूसरी तरफ पीई एक कानूनी फिक्शन है जो विदेशी कंपनी की कर देयता को निर्धारित करता है। यह अंतर्राष्ट्रीय कर का एक मौलिक सिद्धांत है जो विदेशी संस्था के कर का स्रोत है। किस हद तक लाभ का श्रेय पीई को दिया जाए, यह एक गंभीर विचारणीय मुद्दा है।
प्रॉफिट एट्रीब्यूशन का नया दृष्टिकोण
ऐतिहासिक रूप से कुछ अर्थव्यवस्थाओं को छोड़ कर अधिकांश में प्रॉफिट एट्रीब्यूशन अनुमान और क्रूड लॉजिक पर आधारित होता है। इन अधिकांश देशों ने पीई से होने वाले प्रॉफिट एट्रीब्यूशन के निर्धारण के लिए एक फॉर्मूलाबद्ध रास्ता अपनाया है। भारत में भी कुछ इसी तरह का रास्ता अपनाया गया है जो ‘रूल 10’ के नाम से लोकप्रिय है, क्योंकि राजस्व के साथ इस तरह का तरीका लागू है।
‘रोपण के नए रास्ते’ के तौर पर ओईसीडी एप्रोच विभाजन की पुरानी प्रणाली के सिद्धांत को समाप्त करता है। यह मनमाने दृष्टिकोण से अलग है और आधुनिक व्यापार एवं वाणिज्य की वास्तविकता के साथ तालमेल बनाए रखता है।
पीई के लिए हस्तांतरण मूल्य निर्धारण सिद्धांतों का अनुप्रयोग नए दृष्टिकोण का मूल आधार बनता है। पीई एक विदेशी उद्यम का एक वास्तविक उभार है। विश्लेषणात्मक उद्देश्यों के लिए भी यह विदेशी उद्यम से अलग और भिन्न परिकल्पना है। इकाई के लेंग्थ प्रिंसीपल का उप-सिद्धांत है कि लाभ तभी पीई के लिए जिम्मेदार होगा जब तथ्य और परिस्थितियां इसके अनुरूप हों, न कि कानून के मामले के रूप में।
भारत का प्राइवेट इक्विटी कॉकटेल
हमारे पीई और आय वितरण की शुरुआत पर विवाद स्वतंत्रता से पहले से ही चल रही है। उस समय व्यापार कनेक्शन को लेकर लाभों के वितरण के लिए अप्वाइंटमेंट सिद्धांतों का पालन किया जाता है। उस समय घरेलू कानून पीई के समान ही होता था।
इस प्रकार ऐंग्लो-फ्रेंच टेक्सटाइल मामले में और अहमदभाई के मामले में भी, सर्वोच्च न्यायालय ने कर योग्य आय पर हुए लाभ के मोटा-मोटी अनुमान लगाया था। इसमें इस बात का ख्याल रखा गया था कि जो व्यापारिक गतिविधियां भारत में हो रही है, उसकी प्रकृति के हिसाब से ही इसका अनुमान लगाया जाए।
वह ऐसा वक्त था, जब हस्तांतरण प्राइसिंग टूल्स पूरी तरह से नदारद हुआ करता था और सारा काम अनुमानों के आधार पर ही निपटाया जाता था। हालांकि उसके बाद से लेकर अब तक म्युनिसिपल और अंतरराष्ट्रीय कानून में आमूल चूल परिवर्तन हुए हैं। हाथ की लंबाई का सिद्धांत आज सबसे ज्यादा उपयुक्त सिद्धांतों में शुमार किया जाता है। और तो और आज हमारे पास एक विस्तृत हस्तांतरण प्राइसिंग नियमावली मौजूद है।
वर्तमान में एक प्रश्न काफी जोर पकड़ रहा है जो कर ट्रिब्यूनल द्वारा दी गई बहुत सारी नियमों की वजह से उत्पन्न हुई है। इस तरह की प्रवृति से यह वास्तविकता उभर कर सामने आ रही है कि इस एट्रीब्यूशन का भूत भारतीय न्यायालयों के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।
अंगूठे के निशान का नियम , जो किसी भी सिद्धांत पर आधारित नहीं होता है, और इसमें सारा आकलन अनुमानों के आधार पर किया जाता है, का प्रयोग उस समय धड़ल्ले से किया जाता था। चाहे वह 15 प्रतिशत का गैलीलियो का मामला हो (ऑनलाइन बुकिंग सेवा के लिए) या 35 प्रतिशत का रॉल्स एंड रॉयस का मार्केटिंग सेवाओं का मामला, सारे में अंगूठे के नियम का ही प्रतिपालन किया गया था।
आश्चर्य की बात यह है कि पीई की आधुनिक परिकल्पना पर ज्यादा से ज्यादा निर्भरता से भारत में एजेंसी व्यापार (रॉल्स) और ई-कॉमर्स मॉडल (गैलीलियो) के जरिये निर्धारण के आधार पर पीई का निर्धारण किया जाता था। यह बात भी निश्चित थी कि विदेशी उपक्रमों में भी पीई मौजूद था और इसका उद्देश्य एट्रीब्यूशन था। इसमें न्यायालय के द्वारा दी जाने वाली मुख्य निर्देशों का पालन किया जाता था। विदेशी निवेशकों को इससे काफी दिक्कतें आती थी और वे इससे दिग्भ्रमित भी हो जाते थे।
पहले सोनी इंटरटेनमेंट मामले में, कर ट्रिब्यूनल ने एट्रीब्यूशन सिद्धांत को ज्यादा से ज्यादा लाभ के लिए खींचने की कोशिश की । इसमें इस बात का उल्लेख किया गया कि भारतीय उपक्रमों के द्वारा किया जाने वाला भुगतान हाथ की लंबाई सिद्धांत के जरिये किया जाएगा। वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय को साधुवाद देना चाहिए कि उसने सोनी इंटरटेनमेंट के मामले में सुनाए गए फैसले को मॉर्गन स्टेनले के मामले में ओवर रूल कर दिया। इस तरह ओईसीडी सिद्धांत से भारतीय कानूनों को जोड़ने की कोशिश की गई। इसके बावजूद न्यायालयों के लिए इस बात की जरूरत है कि वे एट्रीब्यूशन के मामले में और नए तरीकों का ईजाद करें।
भारत के लिए ओईसीडी के दिशा-निर्देश
चूंकि भारत ओईसीडी का सदस्य देश नहीं है, इसलिए भारतीय विधायिका ओईसीडी के दिशा-निर्देशों को लेकर खामोश है। मॉर्गन स्टेनले से लेकर हालिया मामले तक, कर ट्रिब्यूनलों और न्यायालयों ने जो भी निर्णय सुनाए हैं, उसमें ओईसीडी की झलक दिखाई पड़ती है। इस समान स्थिति में कोई भी इस बात की उम्मीद कर सकता है कि जब भी एट्रीब्यूशन का मामला आएगा, तो भारतीय राजस्व विभाग और न्यायालय ओईसीडी के नियमों और दिशा-निर्देशों का पालन करेगी।
मौजूदा आधुनिक नियम न केवल वैज्ञानिक है, बल्कि इससे कर दाताओं में निश्चितता की भावना भी भरी होती है और दोहरे कराधान से बचने की पूरी गारंटी होती है। वैसे यह तो कहा ही जा सकता है कि ओईसीडी सिद्धांतों के जरिये स्रोत आधारित कर प्रणाली को आवश्यक तौर पर लागू करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
ट्रांसफर प्राइसिंग सिंद्धांत लाभ एट्रीब्यूशन की अनुमति नहीं देता है और इस बात के लिए आश्वस्त करता है कि भारत में किसी प्रकार की आर्थिक गतिविधियों के लिए एक्सचेकर अपना शेष राशि प्राप्त कर सकता है। इसके तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ घाटे वाली कंपनियों के लाभ एट्रीब्यूशन को लेकर भी प्रावधान मौजूद हैं।
इस तरह से खजांची के पूरी तरह से खत्म होने का डर समाप्त हो जाता है और हाथ की लंबाई के सिद्धांत के जरिये निवेश और कर प्रणाली को समान तौर पर तरजीह मिल जाती है।यह देखना काफी रोचक होगा कि भारतीय नीति नियंता किस प्रकार ओईसीडी सिद्धांतों को क्रियान्वित करती है। यह ऐसी स्थिति में और भी महत्वपूर्ण है , जब भारत इस बाबत अपनी स्थिति में सुधार करने की कोशिश कर रहा है। इससे भारत को ओईसीडी के सदस्य देशों के क्लब में प्रवेश करने का भी सुनहरा मौका मिल सकता है।