प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका में अत्यंत मुखर ढंग से ‘भारत के जनमानस में गहराई से जड़ें जमाए लोकतांत्रिक मूल्यों’ के बारे में बात की थी। उनके इस बयान के करीब एक महीने के भीतर घटित हुई दो घटनाएं बताती हैं कि भारतीय राजनेताओं में इसके प्रभाव को लेकर कितनी कम समझ है।
सात जुलाई को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय ने सेवानिवृत्त अफसरशाहों की सेवा शर्तों को संशोधित किया और उनकी पेंशन रोक कर रखने से संबद्ध नियमों में बदलाव कर दिया।
गत सप्ताह परिवहन पर्यटन और संस्कृति पर संसद की स्थायी समिति ने एक रिपोर्ट पेश की जिससे संकेत निकलता है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले कलाकारों को यह लिखकर देना होगा कि वे किसी राजनीतिक घटना के विरोध में अपना पुरस्कार नहीं लौटाएंगे।
ये दोनों बातें यह संकेत देती हैं कि उन दो समूहों को हतोत्साहित करने का प्रयास किया जा रहा है जो सार्वजनिक नीति की आलोचना करने और आम जनता की धारणा को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये दोनों पहल इस वर्ष के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के ऐन पहले की गई हैं।
अफसरशाहों के सेवा नियमों में बदलाव केंद्रीय अफसरशाहों की पेंशन से संबंधित 2021 के एक नियम पर आधारित है जिसके मुताबिक सेवानिवृत्त खुफिया और सुरक्षा अधिकारी उन विभागों के बारे में बिना पूर्व अनुमति के आलेख नहीं लिख सकते या सार्वजनिक रूप से बात नहीं कर सकते जहां वे काम करते थे।
‘पेंशन को भविष्य के आचरण से जोड़ने’ वाले इस नियम में बदलाव से 2008 के संशोधन का दायरा बढ़ गया है जो सरकारी गोपनीयता कानून और सामान्य आपराधिक कानूनों के तहत संवेदनशील सामग्री के प्रकाशन को प्रतिबंधित करता है। अब अगर संबंधित दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया जाता है तो सेवानिवृत्त सुरक्षा या खुफिया अधिकारी की पेंशन खतरे में आ सकती है।
Also read: Editorial: आर्थिक वृद्धि में धीमापन
ताजा संशोधन सभी अफसरशाहों पर ऐसे ही प्रतिबंध लागू करना चाहती है। इसके लिए संबंधित नियम की भाषा में बदलाव किया गया। पहले अफसरशाहों की पेंशन को कदाचार या अपराध की स्थिति में राज्य सरकार के कहने पर रोका जा सकता था। अब इसमें संशोधन कर दिया गया है और अब पेंशन रोकने का निर्णय या तो राज्य सरकार के कहने पर किया जाएगा या फिर अन्य वजहों से। इसका सीधा अर्थ है कि केंद्र सरकार के प्रभाव का इस्तेमाल करके ऐसा किया जा सकता है।
हालांकि सरकारों को यह अधिकार है कि वे पूर्व अफसरशाहों से अपेक्षा रखें लेकिन ‘अच्छे आचरण’ को परिभाषित नहीं किया गया है। राज्य की गोपनीय बातों को लीक करने या अपराध करने जैसे उल्लंघनों को बहुत व्यापक तौर पर परिभाषित किया जा सकता है।
नए नियमों के तहत आशंका यह भी है कि यदि सरकार को किसी आलोचक द्वारा सार्वजनिक नीति की आलोचना पसंद नहीं आती है तो वह उसके विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई भी कर सकती है। यह बात तो भविष्य के साहित्य अकादमी विजेताओं को लेकर संसदीय समिति के निर्देशों से ही स्पष्ट होती है। इस समिति की अध्यक्षता एक गैर भाजपा सांसद के पास है और इसमें सभी दलों के सदस्य शामिल हैं।
Also read: राष्ट्र की बात: सीधे आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी
यह अनुशंसा इसलिए की गई क्योंकि 39 लेखकों ने साहित्य अकादमी विजेता लेखक एम.एम. कलबुर्गी की कथित रूप से दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं द्वारा हत्या किए जाने के विरोध में अपना पुरस्कार लौटा दिया।
परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार ऐसी शर्त कैसे लागू कर सकती है जबकि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्थान है। दूसरी बात, ये पुरस्कार कला के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए दिए जाते हैं, न कि सरकार की सेवा के लिए। निश्चित तौर पर इन दोनों ही नियमों को लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से अच्छा उदाहरण नहीं माना जा सकता है।