केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2024-25 का बजट पेश करते समय उस राजनीतिक संदर्भ का जिक्र नहीं किया, जिसमें उनके मंत्रालय को बजट तैयार करना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली इस नई सरकार के समक्ष पहले की तुलना में अधिक चुनौतियां हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कुछ कट्टर समर्थकों से चुनाव में सरकार को मिले कड़े संदेश के बाद उस पर दबाव काफी बढ़ गया था।
सरकार चलाने के लिए जनता दल यूनाइटेड और तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) पर निर्भरता बढ़ने से इन दोनों दलों की मांगें पूरी करने का दबाव भी बढ़ गया था।
मगर सीतारमण एवं उनकी टीम ने इन राजनीतिक विवशताओं और सरकार की प्राथमिकताओं, विशेषकर राजकोषीय मजबूती के बीच संतुलन साध कर सराहनीय कार्य किया है।
बजट का एक बड़ा हिस्सा बिहार और आंध्र प्रदेश से जुड़ी परियोजनाओं को समर्पित था। परंतु, सीतारमण ने 2021 के बजट में जिस राजकोषीय मजबूती का मार्ग तैयार किया था, उसे कोई बड़ी क्षति नहीं पहुंची है। इस साल फरवरी में लेखानुदान में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.1 प्रतिशत तक सीमित करने का लक्ष्य रखा गया था।
मगर बजट में इसमें किसी तरह का इजाफा करने के बजाय इसे संशोधित कर 4.9 प्रतिशत कर दिया। इतना ही नहीं, वित्त मंत्री ने वादा किया कि अगले वर्ष तक राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.5 प्रतिशत से नीचे रह जाएगा। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से मिले 2.1 लाख करोड़ रुपये के भारी भरकम लाभांश की मदद से बजट आंशिक रूप से राजकोषीय समझबूझ के मोर्चे पर बेहतर साबित हुआ। फरवरी में अंतरिम बजट में लाभांश के अनुमान से सरकार को लगभग दोगुना रकम मिली।
राजकोषीय मोर्चे पर संयम जरूर दिखाया गया है मगर इससे व्यय की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होने दी गई है। पूंजीगत व्यय को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आई है। राजस्व व्यय में बढ़ोतरी कुल व्यय की तुलना में थोड़ी कम रही है। दिलचस्प है कि पूंजीगत व्यय में हुई बढ़ोतरी का कुछ हिस्सा राज्यों को भी आवंटित किया जाएगा।
हालांकि, यह रकम राज्यों को इस शर्त पर दी जाएगी कि वे आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले सुधार करेंगे। हालांकि, इससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच पहले से चला रहा तनावपूर्ण संबंध और बिगड़ जाएगा।
दूसरी तरफ, सुधार को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार के पास सीमित विकल्प हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार इन सभी विकल्पों को आजमाएगी। सरकार उन मामलों में रकम खर्च करने में सतर्क रही है जहां सॉवरिन या सरकार की गारंटी पर्याप्त होती है। सरकार राज्य सरकारों को साथ लाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन का सहारा लेती रही है। ऐसा सूझ-बूझ वाला वित्तीय प्रबंधन सब्सिडी के आंकड़ों में भी साफ तौर पर परिलक्षित होता है।
सरकारी खरीद में कमी लाने से खाद्य सब्सिडी मद में व्यय कम हुआ है। भारत में राजकोषीय गणित तैयार करने में खाद्य सब्सिडी एक बड़ी समस्या रही है मगर अब जीडीपी के प्रतिशत के रूप में इसकी हिस्सेदारी धीरे-धीरे कम हो रही है। रोजगार की कमी एक अन्य बड़ी राजनीतिक बाधा रही है मगर इससे कभी सावधानी से नहीं निपटा गया।
उदाहरण के लिए बजट में ‘इंटर्नशिप’ योजना की घोषणा पूरी तरह सोच-समझकर नहीं की गई है। अगर यह योजना मूल स्वरूप में ही लागू हुई तो इससे मानव संसाधन नीतियों एवं निजी क्षेत्र में उथल-पुथल मच जाएगी। इससे संरक्षण एवं अक्षमता बढ़ जाएगी। इन पर दोबारा विचार करने की आवश्यकता आन पड़ सकती है।
बाजार ने बजट पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। वित्त मंत्री ने दीर्घ अवधि के पूंजीगत लाभ पर कर 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12.5 प्रतिशत कर दिया है और लघु अवधि के पूंजीगत लाभ पर कर भी 15 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया है। वायदा एवं विकल्प कारोबार लेनदेन पर कर दरें बढ़ा दी गईं। हालांकि बाजार की प्रतिक्रिया से इतर इन बदलाव के आधार मजबूत हैं।
बजट में संरक्षणवादी नीति में आंशिक बदलाव करने की भी घोषणा हुई है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। लगभग 50 वस्तुओं पर सीमा शुल्क में कमी की गई है। सीतारमण ने सीमा शुल्क को तर्कसंगत बनाने का भी वादा किया है। कम एवं स्थिर शुल्कों की बदौलत ही भारत वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था का हिस्सा बन सकता है।
करों में बदलाव पर कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं इसलिए आई हैं कि यह स्पष्ट नहीं है कि भविष्य में प्रत्यक्ष करों की राह कैसी होगी। अगले वर्ष राजकोषीय घाटे पर बजट में उत्साहजनक वादा जरूर किया गया है मगर घाटे एवं कर्ज पर लक्ष्य अभी भी स्पष्ट नहीं हैं। इस पर स्थिति साफ होती तो काफी मदद मिली होती।