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पाकिस्तान में चुनाव और सेना का दखल

इतिहास में यह पहला मौका है जब पाकिस्तान की अवाम ने सेना के खिलाफ मतदान किया और उसे पराजित किया है। अगर इसे लोकतंत्र की जीत नहीं कहा जाएगा तो फिर क्या कहा जाएगा?

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- February 18, 2024 | 9:18 PM IST

पाकिस्तान में आम चुनाव के नतीजे आने के सप्ताह भर बाद भी हम यह नहीं कह सकते हैं कि किसकी जीत या हार हुई है। हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि सरकार किसकी बनेगी-जीतने वालों की या हारने वालों की या फिर जीतने वालों तथा कुछ हारने वालों अथवा सभी हारने वालों की मिली जुली सरकार? जब तक यह तमाशा चल रहा है, आइए इस बात पर विचार करें कि इस चुनाव में पाकिस्तान में लोकतंत्र की जीत हुई है या हार?

वर्ष 2002 में जनरल मुशर्रफ के दौर में हुए पार्टीविहीन चुनावों को छोड़ दिया जाए तो आमतौर पर यह एक स्वीकार्य बात है कि हर चुनाव ने पाकिस्तान में लोकतंत्र की भावना को मजबूत किया है। यह भी पाकिस्तान का ही नवाचार है जहां तानाशाह चुनाव का प्रहसन रचते हैं ताकि खुद को वैधता दिला सकें और यह दावा करने का अधिकार पा सकें, ‘देखो मैं तानाशाह नहीं हूं। देखिए मैंने जनमत संग्रह में 98.5 फीसदी मत हासिल किए।’ 

जनरल जिया उल हक ने 1984 में ऐसा ही किया था। हक के बाद अगले तानाशाह मुशर्रफ 1999 में सामने आए। आरंभ में उन्हें खुद को चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर या फिर राष्ट्रपति कहलाना तक पसंद नहीं था उन्होंने खुद को चीफ एग्जीक्यूटिव कहकर आरंभ किया।

पाकिस्तानी अधिकारियों में औपचारिक तानाशाही को लेकर हिचक बढ़ने लगी थी। मुशर्रफ के बाद उन्होंने एकदम विशिष्ट सिद्धांत तैयार किया जहां वे बिना सत्ता धारण किए पूरी सत्ता अपने पर पास रख सकते थे, भले ही चुनाव कोई भी जीते। अब सेना परदे के पीछे से कठपुतली का संचालन करती थी। ये हाइब्रिड सरकारें भी पाकिस्तान का विशिष्ट आविष्कार थीं लेकिन 2018 में सेना ने इमरान खान को अपनी कठपुतली के रूप में चुनकर गलती कर दी। यही वजह है कि हमने यह प्रश्न किया कि पाकिस्तान में चाहे जो पार्टी सत्ता में आए, इस चुनाव में लोकतंत्र की जीत हुई या हार? मैं आपको दोनों विकल्प देता हूं और दोनों के पक्ष में तक भी।

पहली बात, यह तर्क देना आसान है कि लोकतंत्र की जीत क्यों हुई। सेना और न्यायपालिका दुर्भाग्यवश लेकिन चरित्रगत रूप से मिलीभगत करके प्रमुख दावेदार और उसके दल को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया और उसे तथा उसके समर्थकों को जेल भेज दिया। उसका चुनाव चिह्न तक जब्त कर लिया गया। उन्होंने अपने नए पसंदीदा नेता मोहम्मद नवाज शरीफ को भी वापस लाया जिसे उन्होंने मनमाने ढंग से पद से हटाकर 2018 में देश से निर्वासित कर दिया था। वही न्यायपालिका जिसने उन्हें सजा सुनाई थी, जेल भेजा था और पद के अयोग्य ठहराया था, उसने सभी निर्णय बदल दिए।

चूंकि यह पाकिस्तान है इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। चौंकाने का काम मतदाताओं ने किया। उन्होंने सेना द्वारा अपने चुने हुए दलों को हराने के संकेतों को खारिज कर दिया और उन स्वतंत्र उम्मीदवारों को जिता दिया जिन्हें इमरान खान ने जेल में रहते हुए अलग-अलग चुनाव चिह्न पर चुनाव मैदान में उतारा था। यह सेना के लिए स्तब्ध करने वाली राजनीतिक और नैतिक पराजय है। 

अब हम जानते हैं कि सेना के अधिकारी नैतिकता की परवाह नहीं करते और राजनीति को वे हमेशा अपने मुताबिक अंजाम दे लेते हैं जैसा कि वे अभी प्रयास कर रहे हैं। परंतु इन बातों से यह तथ्य नहीं बदलता है कि यह इतिहास में पहला मौका है जब पाकिस्तान के लोगों ने सेना के खिलाफ मतदान किया है। इस चुनाव में 70 फीसदी से अधिक मतदान हुआ जबकि पहले 40-42 फीसदी मतदान होता था। यह लोकतंत्र की जीत है।

इमरान सेना के पसंदीदा बेटे की तरह थे जो बहुत जल्दी हाथ से निकल गया। उसने इमरानियत नामक एक नई विचारधारा के साथ उनका सामना किया। यह रूढ़िवादी इस्लाम, अति राष्ट्रवाद, आर्थिक लोकलुभावनवाद और व्यवस्था के विरुद्ध बगावत का मिश्रण था।

अब तक सेना का सामना ऐसे नेताओं से हुआ था जो कम से कम इतने तर्कसंगत थे कि अपने संरक्षण को समझ सकें। वे इमरान से निपटने के लिए नहीं बने थे इसलिए उसे उनको कुचलना पड़ा। इस चुनाव ने बता दिया कि सेना कितनी बुरी तरह नाकाम हुई है। अगर पाकिस्तान की जनता उस सेना को अंगूठा दिखाया है जिसका वह बीते तमाम दशकों में सम्मान करती रही है तो यह लोकतंत्र की जीत है। 

मैं कहूंगा कि इमरान चाहे जितने अतार्किक रहे हों, उनकी राजनीति देश के लिए चाहे जितनी नुकसानदेह रही हो और पड़ोसियों खासकर भारत के लिए चाहे जितनी खतरनाक रही हो, लब्बोलुआब यही है कि उन्होंने कैद खाने में में रहते हुए सेना को पराजित कर दिया।

तब हम यह दलील कैसे  दें कि वास्तव में इस चुनाव में लोकतंत्र पराजित हुआ है। यह तक कि जीतने वाला पक्ष बाहर है और हारने वालों का गठबंधन सरकार बना सकता है, कहानी का केवल एक हिस्सा है। बड़ी बात यह है कि सेना अभी भी इतनी शक्तिशाली है कि वह चुनाव हारने के बाद मतदाताओं की इच्छा का हनन कर सकती है। आमतौर पर वह दो या तीन सालों तक प्रतीक्षा करने के बाद ही निर्वाचित सरकार को गिराती है। इस बार उसने मत पत्रों की स्याही सूखने तक का इंतजार नहीं किया।

नियम बदलने और तमाम छेड़छाड़ तथा मतगणना प्रक्रिया में ऐसा कुछ करने के बावजूद कि इमरान के दौर की गेंद से छेड़छाड़ भी शर्मा जाए, वह चुनाव हार गई। अगर हम इस नजरिये के साथ चलें कि लोकतंत्र की जीत हुई क्योंकि मतदाताओं ने सेना को पराजित कर दिया तो हम इस कड़वी हकीकत को कैसे स्वीकार करेंगे कि आने वाली सरकार सेना के सामने अतीत की सरकारों से कहीं अधिक झुककर रहेगी।

पाकिस्तान में हुए घटनाक्रम की तुलना बहुत आसानी से पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों में अरब उभार से की जा सकती है। उनमें से कई देशों में चुनाव हुए, कुछ देशों में तो आधुनिक इतिहास में पहली बार चुनाव हुए इसके बावजूद वहां ऐसी विचारधारा या राजनीतिक शक्ति ही सत्ता में आई जिसे ‘व्यवस्था’ ने स्वीकार्य पाया।

ये ताकतें पूरी तरह इस्लामिक, लोकलुभावनवादी, पश्चिम विरोधी और रूढ़िवादी थीं। हर मामले में या तो सेना या पुराने सैन्यीकृत प्रशासन ने इन्हें बाहर कर दिया और तानाशाही को बहाल कर दिया। मिस्र, सीरिया, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया आदि देशों में ऐसा हुी हुआ। इस्लामिक दुनिया के इन देशों में सेना को आधुनिकता की शक्ति के रूप में देखा गया। पाकिस्तान में अब वही हो रहा है।

सच यह है कि लोकतंत्र का यह ध्वंस चाहे जितना निंदनीय हो, अभी भी यह पाकिस्तान और वहां की जनता के हितों की रक्षा कर सकता है। अगर इमरान खान के नेतृत्व वाले इस्लामिक लोकलुभावनवाद को बाहर रखा जाता है तो अमेरिका समेत शेष विश्व और यहां तक कि चीन को भी राहत मिलेगी। पाकिस्तान के पड़ोसियों को भी राहत मिलेगी। भारत ऐसी सरकार से अधिक प्रसन्न होगा जो शरीफ के नेतृत्व में बने और जिसे पीछे से सेना का समर्थन हासिल होगा। यह उचित होगा और इमरान खान की तरह आत्मघाती जैकेट में लिपटा नहीं होगा।

यहां पाकिस्तान में लोकतंत्र की जीत या हार से इतर तीसरा सवाल आता है। क्या कोई देश इसलिए लोकतंत्र के लिए तैयार है क्योंकि वह चुनाव करवा सकता है जबकि उसके संस्थान परिपक्व नहीं हैं और उसकी रक्षा करने लायक कद नहीं बना सकी हैं? ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के लोग न्यायपालिका और चुनाव आयोग की तरह सेना के अधीन रहकर भी निष्ठा से उसके आदेशों का पालन कर सकते हैं। एक वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना संस्थानों के माध्यम से की जाती है, जिसे दीर्घकाल में और अक्सर धैर्यपूर्वक दशकों में तैयार किया जाता है। तब तक चुनाव में लोकतंत्र की जीत या हार का प्रश्न अकादमिक बना रहेगा।

First Published : February 18, 2024 | 9:18 PM IST