भारत की डिजिटल अर्थव्यवस्था में डेटा सेंटर से जुड़े निवेश में असाधारण पैमाने पर बढ़ोतरी हो रही है और इस कारण देश, वैश्विक स्तर की दिग्गज तकनीकी कंपनियों के लिए एक अहम केंद्र बन रहा है। इसका उल्लेखनीय उदाहरण है गूगल की यह घोषणा कि वह आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में एक आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) डेटा हब में पांच वर्षों के दौरान 15 अरब डॉलर का निवेश करेगी। भारत के डेटा सेंटर क्षेत्र में अब कुल आईटी लोड (कंप्यूटिंग उपकरणों द्वारा खपत की गई कुल बिजली)1.7 गीगावॉट से अधिक है और जिन डेटा सेंटर का विकास हो रहा है उनसे अतिरिक्त 2.5-3 गीगावॉट की खपत होगी।
एसटीटी ग्लोबल डेटा सेंटर्स इंडिया 400 मेगावॉट की कुल 30 परियोजनाओं का प्रबंधन करती है जबकि योट्टा डेटा सर्विसेज 434 मेगावॉट क्षमता वाले तीन बड़े डेटा सेंटर साइट का संचालन करती है। एनटीटी कम्युनिकेशंस और कंट्रोलएस डेटासेंटर्स क्रमशः 268 मेगावॉट और 250 मेगावॉट का प्रबंधन करते हैं। सिफी टेक्नॉलजीज, नेक्स्ट्रा डेटा और अदाणीकॉनेक्स जैसी भारतीय स्वामित्व वाली कंपनियां 33 मेगावॉट से 200 मेगावॉट के बीच योगदान देती हैं।
हालांकि, इन निवेशों के बावजूद महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक असंतुलन की स्थिति बनी हुई है। भारत दुनिया के लगभग 20 फीसदी डेटा का उत्पादन करता है लेकिन वैश्विक डेटा सेंटर क्षमता में इसका योगदान केवल 3 फीसदी है जिससे मांग-आपूर्ति का एक उल्लेखनीय अंतर पैदा होता है। इसने राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा तेज कर दी है और प्रत्येक राज्य बड़े पैमाने के केंद्रों को आकर्षित करने के लिए राजकोषीय प्रोत्साहन, भूमि अनुदान और नियामकीय फास्ट-ट्रैक सुविधा की पेशकश कर रहे हैं। इसके आर्थिक लाभ स्पष्ट हैं। रोजगार सृजन, बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने और प्रौद्योगिकी के प्रसार से स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में बदलाव आ रहा है।
डेटा सेंटर नीति, 2020 ने नियामक सुधारों और व्यावसायिक परिचालन को सुविधाजनक बनाने के लिए ढांचा स्थापित किया जबकि हाइपरस्केल डेटा सेंटर योजना का लक्ष्य पांच वर्षों में 3 लाख करोड़ रुपये तक निजी निवेश आकर्षित करना है जो सितंबर 2021 में 12,000 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ शुरू की गई थी। इसके अलावा, केंद्रीय बजट 2022 ने डेटा और ऊर्जा भंडारण प्रणालियों को बुनियादी ढांचे का दर्जा दिया, जिससे परिचालकों को लंबी अवधि की कम लागत वाली फंडिंग तक पहुंच बनाने में मदद मिली और डेटा सेंटर को अन्य महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा क्षेत्रों के साथ स्थान मिला।
राष्ट्रीय डेटा सेंटर नीति 2025 के मसौदे पर फिलहाल परामर्श जारी है और इसमें प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहनों का प्रस्ताव है जिसमें क्षमता विस्तार, ऊर्जा दक्षता और रोजगार सृजन के लक्ष्यों को पूरा करने वाली फर्मों के लिए 20 साल तक की सशर्त कर छूट शामिल है। इसके अलावा अतिरिक्त उपायों में पूंजीगत परिसंपत्तियों पर इनपुट टैक्स क्रेडिट का विस्तार करना और आसानी से मंजूरी देने के लिए सिंगल-विंडो क्लियरेंस तंत्र शुरू करना शामिल है। सामूहिक रूप से, इन पहलों का लक्ष्य उद्योग के अगले विकास चरण के लिए एक मजबूत, निवेशक-अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र बनाना है।
हालांकि, इस विस्तार के पर्यावरणीय प्रभाव भी काफी हैं लेकिन इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा। भौगोलिक रूप से, यह उद्योग पश्चिमी और दक्षिणी तटों पर केंद्रित है और इसकी क्षमता में मुंबई का योगदान 41 फीसदी और चेन्नई का 23 फीसदी है। गूगल की विशाखापत्तनम परियोजना से पूर्वी तट की क्षमता बढ़ने और क्षेत्रीय क्लाउड तथा एआई बुनियादी ढांचे के केंद्र के रूप में भारत की स्थिति मजबूत होने की उम्मीद है। लेकिन भारत के तटीय क्षेत्र, पारिस्थितिकी रूप से सबसे नाजुक क्षेत्रों में से हैं।
पानी के अत्यधिक उपयोग से तटों पर ताजे पानी में खारापन बढ़ने और बाढ़ का खतरा बढ़ने जैसे जोखिम हो सकते हैं। भारत के तटीय इलाकों में भूजल स्तर काफी ऊपर है और पीने योग्य ताजे पानी की एक पतली ऊपरी परत ही है। ऐसे में इन नई सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) पहलों के लिए भूजल का अधिक इस्तेमाल करने से खारे पानी के भूजल में घुसने का जोखिम बढ़ सकता है जिससे वह हमेशा के लिए दूषित हो सकता है। पानी का स्तर गिरने से जमीन भी धंस सकती है, जिससे ये समस्याएं और बढ़ सकती हैं। ऐसे भूजल स्रोत बहुत संवेदनशील होते हैं और इन्हें बचाने, नुकसान कम करने और समुद्री पानी को रोकने के लिए खास ध्यान देना होगा।
इन संयंत्रों की पानी की जरूरतें बहुत ज्यादा होती हैं क्योंकि इनके कूलिंग तंत्र हर साल लाखों लीटर पानी इस्तेमाल कर सकते हैं। ज्यादातर इनकी स्थापना उन क्षेत्रों में हो रही है जहां पानी की कमी है, जैसे मुंबई और चेन्नई। कुछ परिचालक अब हवा से ठंडी करने वाली या क्लोज्ड लूप सिस्टम अपना रहे हैं, लेकिन ये विकल्प अब भी सीमित हैं। कई केंद्र अब भी पानी की बहुत खपत करने वाले वाष्पीकरण कूलिंग पर निर्भर हैं। डेटा केंद्र बड़ी मात्रा में बिजली की भी खपत करते हैं। वैश्विक अनुमान बताते हैं कि वर्ष 2030 तक, वे दुनिया की 8 फीसदी तक बिजली उपयोग कर सकते हैं। भारत में, इस क्षेत्र की बढ़ती बिजली की मांग ग्रिड पर अतिरिक्त दबाव डालती है। भारत का ग्रिड अब भी काफी हद तक जीवाश्म ईंंधन पर निर्भर है, जिससे कार्बन उत्सर्जन को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं।
दुनिया भर की समाचार रिपोर्ट (ब्राजील, ब्रिटेन, चिली, आयरलैंड, मलेशिया, मेक्सिको, नीदरलैंड, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका और स्पेन से) यह दर्शाती हैं कि जैसे-जैसे तकनीकी कंपनियां एआई को आगे बढ़ाने के लिए डेटा सेंटर बना रही हैं, वैसे ही कमजोर समुदायों को बिजली कटौती और पानी की कमी का सामना करना पड़ा है। इन गैर-टिकाऊ पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले तरीकों को लगातार जारी रखने से रोकने के लिए, भारत को डेटा केंद्र विस्तार के हर चरण में पर्यावरणीय स्थिरता को शामिल करना होगा। इसका मतलब है कि अक्षय बिजली स्रोतों का उपयोग करना, ऊर्जा-कुशल बुनियादी ढांचा अपनाना और साथ ही, अत्याधुनिक कूलिंग तथा पानी को रिसाइक्लिंग करने वाली प्रणालियां लागू करना जरूरी है।
सभी भारतीय उद्योगों की तरह, डेटा केंद्रों के निवेश के मामले में भी पानी के व्यापक उपयोग की ऑडिट को एक नियमित प्रक्रिया बनाना जरूरी है। सभी कंपनियों को अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अपने वॉटर फुटप्रिंट का विवरण देना चाहिए, साथ ही उन कदमों का भी जिक्र करना चाहिए जो वे पानी की मांग कम करने के लिए उठा रहे हैं। ऐसा करने से उपयोग किए गए पानी की प्रति इकाई अधिक मूल्यवर्धन होगा। इसके साथ ही, अलग-अलग प्रक्रियाओं में पानी के विशिष्ट उपयोग के लिए मानक विकसित किए जाने चाहिए। प्रत्येक उत्पाद के लेबल पर उसका वॉटर फुटप्रिंट दर्शाया जाना चाहिए। प्रौद्योगिकियों और निवेशों के माध्यम से वॉटर फुटप्रिंट को काफी हद तक कम किया जा सकता है जिनका लाभ बहुत कम समय में मिलना शुरू हो जाता है।
माइक्रोसॉफ्ट के हेलसिंकी डेटा केंद्र जैसे अंतरराष्ट्रीय उदाहरण इसकी क्षमता दिखाते हैं। वहां बरबाद हो रही गर्मी की आपूर्ति पास के घरों में की जाती है और अक्षय ऊर्जा को प्राथमिकता दी जाती है, और नए एयर-कूलिंग तरीके पानी के उपयोग को कम करते हैं।
डिजाइन और संचालन में टिकाऊपन को शामिल कर भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि डेटा-संचालित उसकी यह वृद्धि आर्थिक और तकनीकी लक्ष्यों का समर्थन करे और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण भी करे तथा कार्बन उत्सर्जन कम करे।
हरित बुनियादी ढांचे पर ध्यान केंद्रित कर, कुशल जल प्रबंधन और अक्षय ऊर्जा को अपनाकर, भारत खुद को पर्यावरण के प्रति जिम्मेदार डिजिटल विकास में एक वैश्विक अगुआ के रूप में स्थापित कर सकता है।
(लेखक क्रमशः शिव नादर विश्वविद्यालय में विशिष्ट प्रोफेसर तथा सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, तिरुवनंतपुरम और अहमदाबाद विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर हैं)