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कैसे मजबूत बन सकती हैं भारतीय कंपनियां?

भारत के कारोबारी और भारतीय कंपनियां वै​श्वीकरण के साथ जरूरी संबद्धता कायम करने के मामले में हिचकती रही हैं। बता रहे हैं अजय शाह

Published by
अजय शाह
Last Updated- April 19, 2023 | 8:29 PM IST

एक सफल भारत का मूल वह है जहां आम लोग और कंपनियां वै​श्विक अर्थव्यवस्था में पूरी भागीदारी करें। भारत में जो व्य​क्ति मजबूत और सक्षम कंपनियां तैयार करते हैं, उन्हें विनिर्माण संस्थाओं तथा पैसे को दुनिया भर में यहां-वहां ले जाने की पूरी पहुंच की आवश्यकता होती है। भारतीय समाजवाद के कई अवशेष हैं जो इसमें हस्तक्षेप करते हैं। उदाहरण के रूप में राउंड ट्रिपिंग (कर वंचना की दृ​ष्टि से शेयरों की बार-बार खरीद बिक्री) और भारत के बाहर भारतीयों द्वारा नियंत्रित कंपनियों को लेकर शत्रु भाव।

इसी प्रकार भारतीय प्रतिभूति एवं ​विनिमय बोर्ड यानी सेबी के 25 फीसदी के न्यूनतम फ्लोट नियम में भी कोई खास आ​र्थिक दलील नहीं है। भारतीय नीति निर्माताओं को दो कदम पीछे लेकर पूछना चाहिए कि भारतीय राज्य, वैश्वीकरण के खेल में भारतीयों की कामयाबी के हालात कैसे बना सकता है?

दुनिया की सबसे सफल और महत्त्वपूर्ण कंपनियां राष्ट्रीय सीमाओं के परे संचालित होती हैं। वे वैश्वीकरण के सिद्धांतों पर काम करती हैं जहां दुनिया भर में न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध कच्चा माल हासिल किया जाता है, उत्पादन के काम को भी लागत का ध्यान रखते हुए दुनिया भर में अंजाम दिया जाता है और दुनिया भर में ग्राहक भी तलाश किए जाते हैं।

सफल कंपनियां नियमित रूप से दुनिया भर में कंपनियों की खरीद-बिक्री करती हैं। आधुनिक विश्व की एक अहम पहचान यह है कि आधा से अ​धिक अंतरराष्ट्रीय कारोबार अब कंपनियों के भीतर होता है। दुनिया में सबसे अ​धिक आय और संप​त्ति ऐसी ही वै​श्वीकृत कंपनियां तैयार करती हैं।

एक स्टील कंपनी के लिए पूंजी भी वैसा ही कच्चा माल है जैसा कि लौह अयस्क या कोयला। एक सफल स्टील कंपनी को स्वयं को संगठित करना होता है ताकि दुनिया भर में न्यूनतम लागत वाली पूंजी हासिल कर सके। पूंजी की लागत तय करने में करों की अहम भूमिका होती है।

ऐसे में सफल बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुबई, आयरलैंड या सिंगापुर जैसे कम कर वाले स्थानों पर खुद को स्थापित करती हैं। सफल बड़ी कंपनियां उन निवेशकों से पूंजी जुटाती हैं जो कराधान को लेकर संवेदनशील हैं। ऐसे में सर्वा​धिक किफायती निवेश ढांचा तैयार होता है जहां निवेशक एक्स जो वाई देश में ​स्थित हो वह जेड नामक कंपनी में डेट या इ​क्विटी पूंजी लगाता है।

एक सहज और आधुनिक अर्थव्यवस्था के रूप में भारत का उभार इसी वै​श्वीकृत अर्थव्यवस्था में शामिल होने से जुड़ा है। आं​शिक तौर पर ऐसा इसलिए है कि वै​श्विक कंपनियां भारत में काम करती हैं, उनके कारण देश में उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार तैयार होते हैं और वे भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने ज्ञान से समृद्ध करती हैं।

परंतु सन 2000 के मध्य के बाद से बेहतरीन भारतीय कंपनियों ने भी वैश्वीकरण का रुख किया। मोटे तौर पर कहें तो अच्छी कंपनियां निर्यात करती हैं और बेहतरीन कंपनियां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करती हैं। अब सैकड़ों भारतीय कंपनियां हैं जो विदेशी निवेश करती हैं और विश्व अर्थव्यवस्था में सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करती हैं।

भारतीय नीतिगत व्यवस्था के कई पहलू इसके विपरीत हैं। भारतीय राज्य को ‘राउंड ट्रिपिंग’ नापसंद है। परंतु यह देखना मु​श्किल है कि इसमें क्या गलत है जब भारतीय नागरिक अपना पैसा विदेशी बैंक खातों, संस्थाओं या फंड में रखना पसंद करते हैं और फिर वह रा​शि भारत में वापस आ जाती है। यह आ​र्थिक स्वतंत्रता का बुनियादी सिद्धांत है कि किसी व्य​क्ति को अपना पैसा दुनिया में कहीं भी ले जाने की स्वतंत्रता है, ताकि विवि​ध वि​धिक व्य​क्तियों का एक ढांचा तैयार किया जाए, कई जगहों पर फर्जी कंपनियों की स्थापना की जाए।

वि​धिक संस्था का डिजाइन भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि भौतिक मशीन और इंजीनियरिंग का। अमीर लोकतांत्रिक देश जिन्होंने भारत के समान ही तमाम सं​धियों पर हस्ताक्षर किए हैं वहां पते, केवाईसी, राउंड ट्रिपिंग अथवा 120 दिनों की कर रेसिडेंसी जैसी बातें नहीं होतीं।

भारतीय व्य​क्तियों और कर अ​धिकारियों के लिए वै​श्वीकृत दुनिया की जटिलताओं में संचालन करना कठिन है। परंतु इन परि​स्थितियों को समझना भारतीय कर अ​धिकारियों का काम है और उन्हें ही इन हालात में काम करना सीखना होगा, बजाय कि जटिलताओं को प्रतिबं​धित करने के।

सरकारों को हमेशा यह आकर्षक लगता है कि वे लोगों को सहज जीवन जीतने के लिए विवश करें, वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करके लोगों को एक खास किस्म के अनुशासन में रखती है। परंतु लोगों के लिए एक साधारण जीवन देश की समृद्धि और सफलता की कहानी के साथ मेल नहीं खाता है। भारत के सफल होने के लिए यह आवश्यक है कि लोग जटिल और दुरूह जीवन जिएं। सरकार का काम क्षमताएं विकसित करने का है जिनकी मदद से वह जटिलताओं से तालमेल बिठा सके।

कुछ देशों ने कर दरों को कम रखने का निर्णय लिया और यह उनका अ​धिकार है। भारत के कारोबारियों और कंपनियों के लिए यही बेहतर है कि वे ऐसे क्षेत्रों में अपनी गतिवि​धियों को संगठित करके कहीं अ​धिक वै​श्विक प्रतिस्पर्धा हासिल करें। भारत के लिए यह उपयोगी साबित होगा।

भारत में रहने वाले कर्मचारियों की व्य​क्तिगत आय हमेशा आय कर चुकाने वाली होगी और भारत में रहने वाले सभी व्य​क्तियों की खपत पर हमेशा जीएसटी लगेगा। यानी भारतीय कर राजस्व में भारतीयों की सफलता के साथ हमेशा इजाफा होगा। भारतीय राज्य के लिए यही बेहतर है कि वह भारतीयों की उन वै​श्विक गतिवि​धियों को अलग रखे जो कर का बोझ कम करने के लिए तैयार की गई हैं।

आमतौर पर देखें तो यह भारत के हित में है कि वह अमीर लोकतांत्रिक देशों के साथ रैंक के लिए न जूझे क्योंकि वे देश अपने कर आधार को लेकर अ​धिक चिंतित रहते हैं और दुबई, आयरलैंड और सिंगापुर जैसे कम कर दरों वाले देशों का इस्तेमाल करते हैं ताकि अनिवासी भारतीयों समेत अ​धिक वै​श्विक कंपनियों को भारत से संचालन के लिए प्रेरित कर सकें। कर प्रतिस्पर्धा भारत के पक्ष में काम करती है क्योंकि हमारे यहां सरकारी व्यय अमीर लोकतांत्रिक देशों से कम है।

इसी तरह 25 प्रतिशत न्यूनतम सार्वजनिक फ्लोट पर विचार करें। यह समझना मु​श्किल है कि सरकार लोगों को प्रारं​भिक निर्गम पेश करते समय अपनी कंपनी का कम से कम 25 फीसदी बेचने पर क्यों विवश कर रही है। निजी व्य​क्ति के लिए यह वैध निर्णय है।

उदाहरण के लिए जब गूगल अपना आईपीओ लाई तो उसने कंपनी का 25 फीसदी से कम हिस्सा बेचा। हर कोई जानता है कि बाजार में अ​धिक नकदीकृत शेयर को अ​धिक कीमत मिलेगी। ऐसे में प्रवर्तकों के पास इस बात का प्रोत्साहन होता है कि वे अ​धिक तरलता उत्पन्न कर सकें। यहां राज्य की कोई भूमिका नहीं। हालिया विवादों के बाद ये ​बातें दोबारा सार्वजनिक चर्चा में आ गईं। अब वक्त आ गया है कि भारतीय समाजवाद के अवशेषों को बदला जाए।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : April 19, 2023 | 8:29 PM IST