उत्तराखंड के जोशीमठ में घटित त्रासदी हमें बताती है कि हिमालय क्षेत्र की पारिस्थितिकी के साथ छेड़छाड़ कितनी मुश्किल पैदा करने वाली है। बता रहे हैं श्याम सरन मैं कई वर्षों से हिमालय में ट्रेकिंग (पहाड़ों पर चढ़ाई) के लिए जाता रहा हूं। मैंने बतौर ट्रेकर अक्सर अपना अनुभव इस समाचार पत्र के पन्नों पर भी साझा किया है। अब जबकि मैं उन अनुभवों को याद करता हूं तो मुझे याद आता है कि दुनिया के सबसे ऊंची इस पर्वत श्रृंखला पर चढ़ाई के दौरान जहां मैं उत्साहित रहता था, वहीं मेरे मन में इस बात को लेकर बहुत चिंता भी रहती थी कि ‘विकास’ के नाम पर इस पूरे क्षेत्र के संसाधनों का जमकर शोषण हो रहा है और इनकी स्थिति लगातार बद से बदतर की जा रही है।
दूरदराज के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोगों को विकास से वंचित रखना उनके साथ घोर अन्याय होगा लेकिन वास्तविक मुद्दा हमेशा से यह रहा है कि विकास को इस प्रकार अंजाम दिया जाए कि पर्यावरण को क्षति न पहुंचे। इन्हीं चिंताओं के चलते मैंने जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के विशेष दूत के रूप में 30 जून, 2008 को जारी जलवायु परिवर्तन संबंधी पहली राष्ट्रीय कार्य योजना में नैशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग हिमालयन इकोसिस्टम को आठ राष्ट्रीय मिशन में शामिल कराया। मिशन दस्तावेज में इस बात पर जोर दिया गया है कि हिमालय की पारिस्थितिकी देश की पर्यावास सुरक्षा के लिए आवश्यक है। इसमें समृद्ध जैव विविधता, आर्कटिक और अंटार्कटिका के बाद तीसरा हिम ध्रुव होने के नाते जल उपलब्ध कराना और पूरे उपमहाद्वीप के मौसम को प्रभावित करने जैसी बातें शामिल हैं। हाल ही में जोशीमठ में जमीन धंसने की घटना के संदर्भ में यह याद किया जाना चाहिए कि मिशन ने यह प्रस्ताव रखा था कि पहाड़ी इलाकों में पर्यटकों के आवागमन की सीमा तय की जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि वहां उतने ही पर्यटक आएं जितने कि पहाड़ झेल सकें। जोशीमठ की त्रासदी यह दर्शाती है कि हिमालय के अपेक्षाकृत नए पहाड़ों की क्षमता को आंके बिना कदम उठाने का क्या असर हो सकता है।
राष्ट्रीय मिशन को स्पष्ट करने के लिए कई कदम प्रस्तावित थे और उसकी अनुशंसाएं भी वास्तविकता के करीब थीं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
पहला, अनियोजित ढंग से नई बसावटों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए और पानी तथा पहुंच वाले स्थायी प्रकृति के चुनिंदा अर्द्धशहरी इलाकों में बस्तियों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। वहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं तथा कचरा प्रबंधन की व्यवस्था होनी चाहिए। पर्यटकों के लिए लक्जरी होटल बनाने के बजाय होमस्टे की व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही स्थानीय सौंदर्य और प्रकृति का सम्मान किया जाना चाहिए। जोशीमठ में इन सबका उल्लंघन हुआ। छोटी आबादी वाली एक बसावट को घनी आबादी वाले इलाके में तब्दील कर दिया गया। हिमालय क्षेत्र में कई इलाकों की यही कहानी है।
दूसरा, हिमालय क्षेत्र में अनेक धार्मिक स्थल हैं। इनमें से प्रत्येक को लेकर एक वैज्ञानिक आकलन किया जाना चाहिए कि वह सालाना कितने श्रद्धालुओं का बोझ सहन कर सकता है। यह अनुशंसा की गई थी कि संरक्षित धार्मिक स्थलों से 10 किलोमीटर की दूरी तक सड़क प्रतिबंधित होनी चाहिए ताकि पर्यावास तथा अध्यात्म के स्तर पर एक बफर जोन बनाया जा सके जहां न्यूनतम मानव हस्तक्षेप हो। इस बफर एरिया में किसी निर्माण की इजाजत नहीं होनी चाहिए। बदरीनाथ और केदारनाथ में ऐसे अतिथिगृह हैं जहां गैस की मदद से कमरों को गर्म किया जाता है और खाना बनता है। यहां पर्यटन और धर्म के बीच की रेखा मिट गई है। अब योजना यह है कि यहां पूरे वर्ष पर्यटन कराया जाए। कल्पना कीजिए कि इससे क्या हो सकता है।
तीसरा, पर्यावरण के अनुकूल सड़क निर्माण की अवधारणा भी पेश की गई थी। पांच किलोमीटर से अधिक लंबाई वाले हर मार्ग के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन को अनिवार्य किया जाना था। इसमें मौजूदा सड़कों का विस्तार और चौड़ीकरण भी शामिल था। यह भी कहा गया था कि बिना विनिर्माण कचरे के निस्तारण के प्रावधान के किसी सड़क निर्माण की योजना स्वीकृत नहीं की जाएगी। परंतु इस नियम की भारी अनदेखी हुई जिससे हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक जलधाराएं प्रभावित हुईं।
चौथा, यह बात मानी जा चुकी थी कि जलविद्युत के विकास से हिमालय क्षेत्र के राज्यों की अर्थव्यवस्था बदल सकती है और वहां रहने वाले समुदाय समृद्ध हो सकते हैं। चूंकि कई ऐसी परियोजनाएं बन चुकी हैं और ढेर सारी अभी भी बनने की प्रक्रिया में हैं तो कई सबक भी सीखे जा सकते हैं।
किसी परियोजना के पर्यावरण प्रभाव आकलन में एक नदी बेसिन में ऐसी अनेक परियोजनाओं के समग्र प्रभाव का आकलन नहीं किया जा सकता है। बड़े पैमाने पर पर्यावरण को क्षति पहुंचने से रोकने के लिए यह आवश्यक है। प्रस्ताव यह भी था कि हिमालय क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं को बहती धारा की प्रकृति का होना चाहिए क्योंकि बड़े जलाशय भौगोलिक रूप से अस्थिर इस इलाके को प्रभावित कर सकते हैं। वहां पहले ही कई त्रासदियां घटित हो चुकी हैं। फरवरी 2021 में ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना एक ग्लेशियर झील के फूटने के कारण पूरी तरह समाप्त हो गई थी। वहां जान-माल दोनों का नुकसान हुआ था। मध्य हिमालय में टिहरी बांध भी भूगर्भीय दृष्टि से अस्थिर और सक्रिय इलाके में आता है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी कि अगर बांध फूटता है तो पानी की 200 मीटर ऊंची लहरें नीचे के गांवों और कस्बों को लील लेंगी। जोखिम और लाभ का आकलन करें तो यही बात सामने आती है कि ऐसे संवेदनशील इलाके में इस प्रकार की परियोजनाएं नहीं बननी चाहिए।
हाल के वर्षों में धर्म और रक्षा क्षेत्र की मांगों ने विकास की दलील पर बल दिया है और पर्यावरण संबंधी मानकों को धता बता दिया गया। इस बीच हिमालय में जमकर अधोसंरचना निर्माण हुआ। धार्मिक भावनाओं के सम्मान का यह अर्थ नहीं है कि हिमालय के दूरदराज इलाकों में मौजूद धार्मिक स्थलों तक छह लेने वाले राजमार्ग बनाए जाएं। जहां तक रक्षा की बात है तो यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि अल्पावधि में पहुंच में सुधार की कीमत लंबी अवधि की आपदाओं के रूप में न चुकानी पड़े।
जानकारी तो यह भी है कि जोशीमठ में जिस तरह जमीन धंसी है, वैसा हिमालय क्षेत्र के कई अन्य कस्बों में भी हो रहा है। जरूरत है कि विशेषज्ञ तत्काल इन इलाकों का विस्तृत सर्वेक्षण करें ताकि पता लग सके कि हमारे सामने कितनी बड़ी चुनौती है और हमें उससे निपटने के लिए क्या करना होगा। हमें हिमालय के उन पवित्र देवताओं को नाराज नहीं करना चाहिए जो ऊंचे पहाड़ों पर रहते हैं और हमें नुकसान से बचाते हैं।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)