कई मानकों पर देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंद महासागर के तीन द्वीपीय देशों- मॉरीशस, सेशल्स और श्रीलंका की यात्रा सफल रही। इस यात्रा से यह जाहिर हुआ कि भारत अपने दक्षिण में स्थित समुद्र और समुद्री सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और यह बात दूरगामी सोच वाली ही नहीं बल्कि स्वागतयोग्य भी है। तीनों देशों के भारत से पुराने ताल्लुकात रहे हैं और मोदी ने स्वभाव के मुताबिक ही इन देशों के साथ भारत के सांस्कृतिक रिश्तों पर जोर दिया और उसके प्रभाव पर भी। इस दौरान कई सुरक्षा समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए गए लेकिन समस्या यह है कि भारत की महत्त्वाकांक्षाएं शायद उसकी क्षमताओं से ज्यादा हैं। देश के दक्षिणी पड़ोसी देश श्रीलंका में मोदी की यात्रा उन चुनावों के ऐन बाद हुई जिनमें पराजित होकर देश के पूर्व राष्टï्रपति महिंदा राजपक्षे को सत्ताच्युत होना पड़ा। इसका अर्थ यह है कि मोदी के पास फिलहाल वहां अपनी युक्ति लगाने की गुंजाइश ज्यादा है। राजपक्षे ने श्रीलंका में छिड़े गृहयुद्घ के दौरान और उसके बाद तमिल नागरिकों के साथ जो व्यवहार किया था उसने उन्हें तमिलनाडु में बहुत अलोकप्रिय कर दिया था।
अब उनकी जगह एक ऐसा प्रशासन सत्ता में है जो युद्घ के दौरान हुई ज्यादतियों के बारे में चर्चा से दूरी नहीं बनाना चाहता। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रीलंका के साथ सुलह और हस्तांतरण के भारतीय प्रस्ताव का वहां पहले के मुकाबले अधिक स्वागत होना निश्चित है। मोदी ने श्रीलंका में कई वादे किए जिनमें वहां रेलवे, और त्रिंकोमाली में बंदरगाह बनाने में मदद करने की बात शामिल है।
इस बीच दो अन्य और अपेक्षाकृत छोटे देशों में प्रधानमंत्री ने अपेक्षाकृत अस्वाभाविक एजेंडे को आगे बढ़ाया। भारत ने मॉरीशस के अगलेगा और सेशल्स के असम्पशन द्वीपों में बुनियादी विकास संबंधी समझौतों पर हस्ताक्षर किए। यह कदम इन्हें भारत के लिए सामरिक संपत्ति बना सकता है। अगलेगा मॉरीशस का हिस्सा है लेकिन वह करीब 1,000 किलोमीटर उत्तर में है। यह दरअसल दो द्वीपों का युग्म है और भारत काफी समय से इनमें से उत्तरी द्वीप की हवाई पट्टïी का इस्तेमाल करना चाहता है। मॉरीशस में दिएगो गार्सिया के अधिग्रहण को लेकर ब्रिटेन और अमेरिका के प्रति निराशा और नाराजगी का भाव है। ऐसे में भारत अगर वैसी ही भावनाएं नहीं भड़काता है तो अच्छा होगा। यह जानकारी भी नहीं हो सकी कि प्रधानमंत्री ने कर वंचकों द्वारा मॉरीशस के जरिये निवेश के इस्तेमाल को खत्म करने के इरादे कितनी दृढ़ता से जताये। दरअसल दोनों देशों की करसंधि की कमियों का इस्तेमाल काले धन को सफेद करने के लिए किया जाता है। दिक्कत यह है कि इन मामलों में भारत की महत्त्वाकांक्षा उसकी जेब पर भारी पड़ती दिख रही है। प्रधानमंत्री त्रिंकोमाली को पेट्रोलियम हब बनाने का वादा कर सकते हैं लेकिन श्रीलंका को यह याद होगा कि पिछली बार जब भी उसने विकास को लेकर भारतीय मदद की कोशिश की थी तो वह भारतीय नौकरशाही के चलते सफल नहीं हो सकी।
हालांकि देश के समुद्री पड़ोसियों के साथ मजबूत सामरिक रिश्ते कायम करने की योजना बहुत अच्छी है लेकिन इन महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धन कहां है? सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने सात नए युद्घपोतों के निर्माण की अनुमति दी है लेकिन इसके बावजूद इनमें से पहला पोत पांच साल बाद बनकर तैयार होगा क्योंकि उसके पहले कई पोत निर्माण प्रक्रिया में हैं।
रक्षा मंत्रालय ने इस वर्ष अपने पूंजीगत खर्च में केवल 82,000 करोड़ रुपये खर्च किए जबकि उसे 94,600 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। आने वाले वर्षों के लिहाज से रक्षा क्षेत्र के पूंजीगत खर्च में जो इजाफा हुआ है वह जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से कम ही लग रहा है। ऐसे में मोदी की विदेशों से जुड़ी महत्त्वाकांक्षाओं में घरेलू बाधाएं उत्पन्न होने का जोखिम है।
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