भारत को एक आधुनिक राष्ट्र होने की जो प्रसिद्घि मिली है, उसका श्रेय केवल और केवल एक ही व्यक्ति को जाता है। वह शख्स हैं, सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू। बता रहे हैं श्रीकांत सांब्राणी करीब 50 साल पहले की गर्मियों की बात है, मैं और मेरा एक मित्र मुंबई स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के परिसर में घास से भरे एक टीले पर बैठे हुए थे। हम दोनों खामोश थे और एक महान व्यक्ति के निधन पर शोक मना रहे थे। हम यह जानकर स्तब्ध थे कि जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया था। समाचार पत्रों से ऐसे संकेत मिल रहे थे कि वह बहुत सेहतमंद नहीं थे। वह उम्र, कद और हैसियत में हमसे बहुत अलग थे, हमने उनको कभीकभार ही देखा था, वह भी दूर से। सवाल यह उठता था कि एक ऐसे व्यक्ति के निधन से हम इतना दुखी क्यों महसूस कर रहे थे? बीते दशकों पर गौर करें तो हमें एक ही बात नजर आती है: वह एक अत्यंत आधुनिक व्यक्ति थे। भारत में ऐसा व्यक्ति दुर्लभ था। उनके प्रेरक (और मेरी नजर में 20वीं सदी के सबसे महान व्यक्ति) महात्मा गांधी की बात की जाए तो उनमें भी एक हद तक पारंपरिक सोच और व्यवहार शामिल था। नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था। उनके जिस वैज्ञानिक दृष्टिïकोण की बात की जाती है वह महज दिखावा नहीं था। सीवी रमन और रामानुजन जैसे वैज्ञानिकों की बात की जाए तो वे अंदर से बेहद धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन उनकी धार्मिकता उनके वैज्ञानिक कामों में आड़े नहीं आती थी। नेहरू ने अपने निजी व्यवहार में एक नैतिक झुकाव को स्थान दिया। उनको कभी किसी धार्मिक संस्कार को अंजाम देते नहीं देखा गया। वह मंदिरों और आश्रमों में नहीं जाते थे और उन्होंने कभी तीर्थयात्रा नहीं की। उनका कोई गुरु नहीं था। उन्होंने कभी अपने धार्मिक,जातीय या सांस्कृतिक पहचान का किसी तरह से लाभ लेने की कोशिश नहीं की। उनके लिए धार्मिक और आध्यात्मिक मसले पूरी तरह निजी थे। जिन लोगों ने बतौर प्रधानमंत्री नेहरू पर नजर रखी होगी वे मानेंगे उनकी प्रतिबद्घता इस मामले में अक्षुण्ण थी। उस प्रतिबद्घता ने आजादी के बाद देश में पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। सन 1950 और 60 के दशक में लोगों को अपने धर्म या जाति से जुड़े प्रश्न शर्मिंदा करते थे। धर्म और धार्मिक क्रियाकलाप मोटे तौर पर घरों के भीतर सीमित थे और सार्वजनिक स्थान से दूर ही रहते थे। जीवन में सादगी केवल किताबी बात नहीं थी बल्कि वह हर गुजरते दिन का हिस्सा थी। जबकि आज इसका ठीक उलटा देखने को मिल रहा है। आधुनिकता का अर्थ परंपरा को पूरी तरह खारिज करना नहीं है बल्कि तार्किकता का सही आकलन करना है। 'मैं आपकी कही बात को खारिज करता हूं लेकिन अपनी बात कहने के आपके अधिकार का मैं मरते दम तक समर्थन करूंगा।' यह कहावत एक आधुनिक व्यक्ति की पहचान है। नेहरू ने न केवल इसका पालन किया बल्कि उन्होंने इसे प्रोत्साहित भी किया। उन्होंने एक ऐसी समिति की अध्यक्षता की जिसमें वल्लभभाई पटेल, सी राजगोपालाचारी, मौलाना आजाद, जी बी पंत और सीडी देशमुख जैसे लोग शामिल थे। ये वो लोग थे जो अक्सर नेहरू से असहमत रहते थे। उनकी पार्टी ने नेहरू के विरोध के बावजूद पुरुषोत्तम दास टंडन को अध्यक्ष चुना। संसद में उनको रोज श्यामा प्रसाद मुखर्जी, हीरेन मुखर्जी, जे बी कृपलानी और एच वी कामत जैसे नेताओं से बहस करनी पड़ती थी। यहां तक कि अपने दामाद फिरोज गांधी के साथ भी। उन्होंने ऐसा विचारों की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिहाज से किया। उन्होंने विदेशी विद्वानों को भी प्रभावित किया। हैरॉल्ड लास्की, जे बी एस हाल्डेन, निकोलस काल्डर, माइकल कालेकी आदि कुछ ऐसे प्रमुख विदेशी विद्वान थे जिनके भारत आगमन में नेहरू की अहम भूमिका थी। इन विद्वानों ने अपने भारतीय समकक्षों के साथ सकारात्मक संवाद स्थापित किया। इन बातों से ऐसे कई विचार निकले जिन्होंने अगली दो पीढिय़ों तक देश का भाग्य तय किया। आधुनिकता को लेकर नेहरू के सोच में वैयक्तिकता और सामूहिकता दोनों शामिल होते हैं। सबसे बढ़कर वह शिक्षा को काफी तवज्जो देते थे। समाजवाद के साथ देश के त्रासद प्रयोग के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया जाता है लेकिन इसे भी सही संदर्भों में देखा जाना आवश्यक है। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं ने हमें भिलाई, दुर्गापुर, राउरकेला, हीराकुड, भाखड़ा नांगल, सिंदरी, परमाणु ऊर्जा आयोग और आईआईटी जैसे अव्वल संस्थान दिए। क्या बिना पंचवर्षीय योजनाओं के हम इनको हासिल कर पाते? मुझे संदेह है। देश में बॉम्बे क्लब के उद्योगपतियों में उद्यमिता की भारी कमी देखने को मिलती थी और वे विदेशी प्रतिस्पर्धा से संरक्षण चाहते थे। नेहरू ने इसका प्रतिरोध किया। तत्कालीन सोवियत संघ ने पश्चिमी परियोजनाओं के बरअक्स बहुत अच्छे आदर्श पेश किए। इस तरह योजनागत विकास हमारा चयनित पथ बना। नेहरू में काम करने की प्रतिबद्घता किस कदर थी उसे सन 1956 में अमूल फैक्टरी की शुरुआत के ऐन पहले उनकी टिप्पणियों में देखा जा सकता है। वह दुनिया में भैंस के दूध को सुखाने वाला पहला संयंत्र था। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के विशेषज्ञों ने उसके परिचालन को लेकर संदेह जताए थे। नेहरू ने यह कहकर उनको खामोश कर दिया कि अगर संयंत्र विफल रहा तो वह उस फैक्टरी में जूते की पॉलिश बनाएंगे। हालांकि यह कहना बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन यह देखने वाली बात है कि क्या मौजूदा प्रधानमंत्री का मेक इन इंडिया अभियान नेहरू के उस दौर की वापसी का सबब बनेगा। मौजूदा दौर के विपरीत नेहरू के दौर में योजना की पेशेवर आलोचना बहुत कम हुआ करती थी। सांख्यिकी आधारित मॉडल के बीज नेहरू के वक्त में बोये गए थे। सन 1959 की आवड़ी कांग्रेस में समाजवादी रुझान अपनाया गया और राज्य को यह अधिकार दिया गया कि वह अर्थव्यवस्था को ऊंचाइयों पर ले जाए। यह वह दौर था जिसका वक्त तब नहीं आया था। लेकिन इसके बावजूद मैं यह कहूंगा कि अगर नेहरू कुछ समय और रहे होते और सन 1962 के चीन युद्घ ने उन्हें तोड़ नहीं दिया होता तो उन्हें इन अतियों का प्रभाव भी देखने को मिला होता और वह इसे बदलने से पीछे नहीं हटे होते। वहीं उनकी उत्तराधिकारी बनी इंदिरा गांधी ने कुछ ऐसे कदम उठाए जैसे कदम उठाने का साहस चतुर से चतुर व्यक्ति भी करने में डरता। इसके परिणाम कहर बनकर टूटे। भारत की आजादी, इसका लचीला लेकिन सुचारु संविधान, संसदीय लोकतंत्र और नौकरशाही कई ऐसे पहलू हैं जो तमगे जैसे हैं लेकिन भारत को एक आधुनिक राष्ट्र होने की जो प्रसिद्घि मिली है उसका श्रेय केवल और केवल एक ही व्यक्ति को जाता है। वह हैं सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू। अब्राहम लिंकन के चिकित्सक ने उनकी मृत्यु की घोषणा करते हुए कहा था, 'राष्ट्रपति अब एक युग बन गए हैं।' नेहरू पर समूह विशेष की दावेदारी से बहुत पहले 27 मई 1964 की शाम ही मैं और मेरा मित्र अपनी चेतना से यह समझ गए थे कि नेहरू पर भी यह बात लागू होती है।
