इस पंचवर्षीय योजना के तहत मुल्क की बिजली की उत्पादन क्षमता को 78 हजार मेगावाट का इजाफा करने का लक्ष्य रखा गया है। इसलिए देसी बिजली आपूर्तिकर्ता कंपनियों और मशीनरी को बनाने वाली कंपनियों के लिए आगे सुनहरे दिन नजर आ रहे हैं।
वैसे बिजली में इतने इजाफे के लिए जरूरत पड़ेगी भारी मात्रा में पूंजी, जिसका इंतजाम करना आर्थिक संकट को देखते हुए कोई आसान काम नहीं होगा। तो कैसे टलेगी यह मुसीबत? वैसे जहां तक कर्जों का सवाल है, मेरी मानें तो सरकारी बैंक और वित्तीय संस्थान तो इन बिजली संयंत्रों की मदद करने के लिए आगे आएंगे ही आएंगे।
लेकिन चिंता इस बात की है कि अगर मुल्क में बिजली का कारोबार आगे भी पहले की तरह ही चलता रहा, तो ये सारे पैसे स्वाहा ही हो जाएंगे। असल में इन बिजली संयंत्रों से बिजली खरीदने वाले तो आज भी कंगाल ही हैं। अगर राज्यों के विद्युत बोर्डों की तरफ गौर से देखें तो इक्का-दुक्का को छोड़कर ज्यादातर बोर्डों के पास तो अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लायक भी पैसे नहीं हैं।
यह हालत सालों से चले आ सुधारों, तीव्र ऊर्जा सुधार पैकेजों और केंद्र से मिलने वाले दूसरे पैकजों के बावजूद जस की तस बनी हुई है। 1991-92 में सभी बोर्डों का मिला-जुला घाटा करीब 12.7 फीसदी था, जो 2007-07 तक दोगुना होकर 24 फीसदी तक पहुंच चुका था।
पिछले वित्त वर्ष के अनुमानों के मुताबिक तो यह घाटा 18 फीसदी का था, लेकिन सही आंकड़ों का इंतजार करना ज्यादा अच्छा होगा। इस पूरी तस्वीर को ध्यान में रखें, तो यह सोचना सही होगा कि आगे ज्यादा बिजली का मतलब होगा, और भी ज्यादा बड़ा घाटा। यकीन नहीं आ रहा?
तो चलिए मान लेते हैं कि इन पांच सालों में आधे लक्ष्य यानी 40 हजार मेगावॉट को तो हासिल किया ही जा सकेगा। वह भी 80 फीसदी प्लांट लोड फैक्टर के साथ। मतलब यह हुआ कि पांचवें साल तक 28000 करोड़ यूनिट का अतिरिक्त उत्पादन होने लगेगा।
अगर इसमें प्रति यूनिट घाटे को जोड़ दें तो इसका मतलब यह हुआ कि साल में सरकार को 35 हजार करोड़ रुपये का मोटा-ताजा घाटा उठाना पड़ेगा। 35 हजार करोड़ रुपये का घाटा! अब आप ही बताइए कि इतने मोटे घाटे वाले उस प्रोजेक्ट से बैंक और वित्तीय संस्थान अपने पैसे कैसे निकाल पाएंगे?
अब उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड को ही ले लीजिए। वह हर साल करीब 5600 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन करता है, लेकिन उस पर उसे 5200 करोड़ रुपये का नकद घाटा उठाना पड़ता है। बड़ी बात यह है कि इस घाटे में 1500 करोड़ रुपये की सब्सिडी या पेंशन और प्रोविडेंट फंड के मद किए जाने वाला मोटा-ताजा भुगतान शामिल नहीं है। इसलिए अगर बोर्ड अगले पांच साल में अपनी क्षमता में 4000 करोड़ यूनिट का इजाफा करता है, तो उसे हर साल कम से कम 6000 करोड़ रुपये का और नकद घाटा झेलना होगा।
कुल मिलाकर उसका नकद घाटा बढ़कर 11 हजार करोड़ रुपये का हो जाएगा। अगर यह मान लेते हैं कि वह कीमतों में पांच साल में 10 फीसदी का भी इजाफा करती है, तो भी उसे 7,000 करोड़ रुपये का नकद घाटा तो झेलना ही होगा। चलिए यह भी मान लेते हैं कि बोर्ड अपनी जबरदस्त काबिलियत दिखाते हुए अपने घाटे को और 10 फीसदी कम कर देती, तो भी उसे कम से कम हर साल 4000 करोड़ रुपये का घाटा तो उठाना ही होगा।
हालांकि, आपको बता दें कि अपने घाटे को केवल अपनी काबिलियत के बूते पर 10 फीसदी तक कम करने का करिश्मा तो अच्छे से अच्छे बिजली बोर्ड नहीं कर पाए हैं। तो कैसे बिजली बोर्ड उस पैसे को चुका पाएगा, जो वह बिजली संयंत्र लगाने के लिए ले रहा है? और इस बात की तरफ कर्ज देने वालों का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है?
इन सारी बातों को ध्यान में रखें तो एक सवाल तो मन में कौंधता ही है कि तो फिर नए बिजली घर क्यों बनाए जा रहे हैं? पहली बात तो राज्यों के खजानों की हालत का बेहतर होने और इस दशक की शुरुआत में ही सरकारी बिजली कंपनियों के बकायों के भुगतान की वजह से बिजली बोर्ड की आर्थिक सेहत ठीक-ठाक है।
साथ ही, अब उन्हें टाइम पर ही सब्सिडी के लिए पैसे मिल जाते हैं। दूसरी तरफ, जहां तक अल्ट्रा मेगा पॉवर प्रोजेक्ट्स (यूएमपीपी) जैसी सस्ती बिजली पैदा करने वाली परियोजनाओं की बात है, तो बिजली बोर्डों को इनकी बिजली पहले खरीदनी होगी। इसका मतलब यह हुआ कि चाहे कुछ भी हो जाए, इनको तो खरीदार मिल ही जाएंगे। लेकिन 78 हजार मेगावॉट की अतिरिक्त क्षमता में यूएमपीपी का हिस्सा बस थोड़ा सा ही है।
तो क्या इस मतलब यह हुआ कि बिजली उत्पादन में इजाफा नहीं हो पाएगा? बिल्कुल नहीं, किसी भी नए बिजली सुधार के लिए तो ज्यादा ऊर्जा की तो जरूरत होगी ही होगी। अगर आज कोई शख्स बिजली के लिए बहुत कम या नहीं भुगतान करता है, तो उससे तुरंत पूरा भुगतान की उम्मीद करना नादानी होगी।
साथ ही, उससे यह उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि वह कीमतों में इजाफे का विरोध नहीं करेगा। आप बिजली की कीमत तभी बढ़ा सकते हैं, जब लोगों को यह लगेगा कि इसके बाद उन्हें बेखटक बिजली मिलती रहेगी। किताबी जुबान में कहूं तो आप ज्यादा बिजली तभी मिल सकती है, जब बिजली की चोरी पर लगाम लगे। लेकिन इसमें वक्त लगेगा। इसलिए उस बीच के वक्त में आपके पास बिजली के उत्पादन में इजाफा करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
इन सुधारों की वजह से ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन में होने वाले घाटे में कमी आती है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल है, पश्चिम बंगाल का बिजली बोर्ड। उसका ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन घाटा 2004-05 में 27 फीसदी था, जो पिछले वित्त वर्ष में घटकर 23 फीसदी रह गया। साथ ही, उसकी उगाही भी 65 फीसदी से बढ़कर 98 फीसदी हो गई। दावों की मानें तो उसने अपनी क्षमता में केवल 2500 मेगावॉट का इजाफा किया, लेकिन उसका सैकड़ों करोड़ रुपये का घाटा तीन-चार सालों में ही करोड़ों के फायदे में तब्दील हो चुका है।
दूसरे शब्दों में कहें तो बिजली उत्पादन में इजाफा करने के साथ-साथ सरकार को बिजली बोर्डों के काम करने के तरीके को भी बदलना होगा। अगर ऐसा नहीं हो पाया, तो सरकार को या तो बिजली उत्पादन में इजाफा करने में लगे विद्युत बोर्डों या फिर उसके वास्ते पैसे देने वाले बैंकों के लिए बेल-ऑउट पैकेज की तैयारी कर लेनी चाहिए।