सूरत को टक्कर देने में जुट गए बनारसी बुनकर | अजय मिश्र / वाराणसी May 09, 2014 | | | | |
एक जमाना था, जब पूर्वांचल की बुनकर कला के कद्रदान दुनिया भर में होते थे लेकिन पिछले कुछ साल से यहां के हालात खराब होने लगे और बुनकरों के समक्ष रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। दरअसल परंपरागत बनारसी साड़ी की नकल होने और चीन से बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण बनारस के हथकरघा उद्योग पर संकट के बादल मंडराने लगे। इसके बाद जो थोड़ी बहुत कसर बाकी थी, उसे गुजरात के सूरत ने पूरी कर दी।
कारोबार घटा तो बुनकरों ने अपनी पुश्तैनी कर्मभूमि छोड़कर सूरत या बेंगलूर जैसे शहरों का रुख कर लिया। कुछ कारीगरों ने दूसरा काम करना भी शुरू कर दिया। आलम यह है कि वाराणसी समेत पूर्वांचल में पारंपरिक बुनकर अब नहीं के बराबर हैं। बदले हालात में अब नई पीढ़ी हथकरघा और बुनकरी कला को अपनाना नहीं चाहते। वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ रहे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के सामने दोहरा संकट है क्योंकि वाराणसी के हथकरघा उद्योग की इस हालत के लिए गुजरात के सूरत को जिम्मेदार माना जा रहा है। स्थानीय बुनकरों का कहना है कि यहां से पलायन करने वाले बुनकरों के बूते ही सूरत के पावरलूम सस्ती साडिय़ां बना रहे हैं।
उत्तर प्रदेश हथकरघा व वस्त्रोद्योग विभाग के सहायक निदेशक के पी वर्मा के अनुसार 1995-1996 में वाराणसी और चंदौली के 75,324 हथकरघा कारखानों में करीब 1.24 लाख बुनकर काम करते थे जबकि 1700 पावरलूम में 7 हजार बुनकरों का काम मिला था। लेकिन 2009-2010 में वाराणसी में हथकरघा बुनकरों की संख्या घटकर 95,372 रह गई रही तो हथकरघा कारखाने 52 हजार ।
चंदौली में 8 हजार हथकरघा कारखानों में महज 8,669 बुनकर कार्यरत हैं। इस बीच पावरलूम की संख्या तेजी से बढ़कर 30,000 के पार पहुंच चुकी है और इनमें कार्यरत कारीगरों का आंकड़ा भी 1.25 लाख के करीब है। वर्मा बताते हैं कि बुनकरों का पलायन थोड़ा थमा है और हथकरघा उद्योग और कपड़ों में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। उन्होंने बताया कि इस समय देश मे 43.31 लाख बुनकर हैं, जिनमें 27.83 लाख हथकरघा बुनकर कार्यरत हैं। सहायक निदेशक के पी वर्मा ने बताया कि भले ही तकनीक के मामले में चीन काफी आगे हो, लेकिन भारतीय हथकरघा व बुनकरों की कला की नकल नहीं कर सकता और यही हाल सूरत का भी है।
कारोबारी मोहम्मद हुसैन कहते हैं कि सूरत के कारखानों में सिंथेटिक और पॉलिएस्टर धागों से ऐसी साडिय़ां बन रही हैं, जो देखने में हूबहू बनारसी सिल्क जैसी लगती हैं और यही वजह है कि सूरत की साडिय़ों की लागत बनारसी साडिय़ों से काफी कम है। मानवाधिकार एवं जन निगरानी समिति के डॉ. लेनिन का कहना है कि वर्ष 2005 के बाद सरकार ने स्वास्थ्य बीमा और बुनकर के्रडिट कार्ड व ऋण माफी करके इस उद्योग को उबारने का काम किया। लेकिन इनका लाभ मझोले और बड़े कारोबारियों को ही हुआ है। मानव कल्याण संगठन के डॉ रजनीकांत का कहना है कि असल लड़ाई बनारस के हैंडलूम को बचाने की है।
काम की तलाश में सूरत गए बुनकर मोहम्मद रियाज ने बताया कि सूरत में रंगाई, भराई का काम कंप्यूटराइज्ड है और वहां की पुरानी मशीनें यहां आ रही हैं, जिससे यहां भी वैसा ही काम हो सके। हालांकि अब वाराणसी का परंपरागत उद्योग पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा है। पलायन कर चुके बुनकर धीरे-धीरे वापस आ रहे हैं। पूर्वांचल निर्यातक संघ के अध्यक्ष अमिताभ ने बनारसी बुनकरों ने सूरत और बेंगलूर को टक्कर देने की राह खोज निकाली है और उसी तर्ज पर सस्ती साडियां बना कर उन्हें जवाब देकर यहां के माल को दक्षिण भारतीय बाजार में भेज रहे हैं।
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