मंदी की इस हालत में भारतीय फार्मा क्षेत्र दवाओं के लॉन्च में देरी से जूझ रहा है। लेकिन फिर भी इस बाजार राहत महसूस कर रहा है।
इसका कारण एली लिली और मर्क ऐंड कंपनी जैसी अंतरराष्ट्रीय फार्मा कंपनियों की ओर से रैनबैक्सी लैबोरेट्रीज, निकोलस पीरामल, ऑर्किड, एडविनस थेरेपेटिक्स, जुबिलिएंट ओर्गेनोसिस, जीवीके बायो और सुवेन लाइफ साइंसेज के साथ किए गए करार हैं।
इस साल के अभी तक नौ महीनों में ही इन कंपनियों ने एक दर्जन से भी ज्यादा करार किए हैं। जबकि साल 2007 में यह आंकड़ा मात्र 6 ही था। इन कंपनियों ने ऐसे समय में यह करार किए हैं जब अमेरिका में भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की दवाओं के स्तर को लेकर संदेह उठाए जा रहे हैं।
इसके साथ ही वहां भारतीय पेटेंट प्रक्रिया में डैटा की सुरक्षा पर भी सवालिया निशान है। अमेरिका दवाओं के शोध और विकास पर सालाना 1,840 अरब रुपये से लेकर 2,070 अरब रुपये खर्च करता है। इसका लगभग 33 फीसदी हिस्सा भारतीय कंपनियों को आउटसोर्स किया जाता है। लेकिन जिस रफ्तार से भारतीय कंपनियों पर अंतरराष्ट्रीय कंपनियों का भरोसा बढ़ रहा है। उससे साल 2009 तक यह आंकड़ा 41 फीसदी होने की उम्मीद है।
निकोलस पीरामल, ऑर्किड और एडविनस के साथ हुए मर्क के करार और जुबिलिएंट, सुवेन के साथ हुए एली लिली के करार और प्राइसवाटरहाउस कूपर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत अंतरराष्ट्रीय फार्मा क्षेत्र में शोध का केंद्र बनने की ओर बढ़ रहा है।
गौरतलब है कि भारतीय फार्मा क्षेत्र में जो रफ्तार फिलवक्त तक बनी हुई है हो सकता है, कि वह आगे न बनी रहे। इस बात के संकेत यही से मिलते है कि कंपनियों ने अपनी नई दवाओं लॉन्च फिलहाल टाल दिए हैं।
ग्लेनमार्क फार्मास्यूटिकल कंपनी की अस्थमा की दवा ओग्लेमिलास्ट का लॉन्च भी टल गया है। दरअसल अमेरिकी खाद्य एवं दवा विभाग ने कंपनी से दवा के ट्रायल के अतिरिक्त आंकड़े की मांग की है। कंपनी ने सितंबर 2004 में अमेरिका की फॉरेस्ट लैबोरेट्रीज के साथ इस दवा के दूसरे चरण के परीक्षण के लिए करार किया था।
टाटा की कंपनी एडविनस थेरेपेटिक्स की मुख्य कार्यकारी और प्रबंध निदेशक डॉ रश्मि बड़भैया ने बताया, 'बड़ी फार्मा कंपनियों को नई दवाएं विकसित करने में काफी दिक्कत हो रही हैं। दरअसल, ये कंपनियां जल्द और किफायती दामों पर दवा विकसित नहीं कर पा रही हैं। जबकि भारत में इस तरह के शोध के लिए प्रतिभा और बुनियादी सुविधाएं भी मौजूद हैं।'
भारतीय दवा शोध कंपनियों के साथ बिल्कुल नए मॉलेक्यूल्स से दवा विकसित करने के लिए करार किया जाता है। इस करार के तहत शोध में मुनाफे और जोखिम में दोनों कं पनियों की बराबर भागेदारी होती है।
आमतौर पर वैज्ञानिक लाइब्रेरी में पहले से ही मौजूद तत्वों से शोध शुरू करते हैं। लेकिन नोवेल दवाओं के मामले में शोध की शुरुआत सबसे निचले स्तर से करने पड़ती है। इसमें पहले सही तत्व की पहचान करनी होती है। पहले इस तरह के शोध अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियों की लैबोरेट्रीज में ही मुमकिन थे।