अंतरराष्ट्रीय बाजार हिचकोले खा रहा है, मुद्रा में गिरावट आ रही है और महंगाई दर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। विकट परिस्थितियों और अस्थिर माहौल के बीच भारतीय रिजर्व बैंक कैसी मौद्रिक नीतियां बनाए, यह एक कड़ी चुनौती है।
बाजार में नकदी खत्म होने पर फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में कटौती करता रहा है और पीपुल्स बैंक आफ चाइना (पीबीओसी) ने भी इस बात के स्पष्ट संकेत दिए हैं कि ब्याज दरों में मामूली कटौती करते हुए मौद्रिक नीतियों में ढील दी जाएगी।
अब ऐसे में रिजर्व बैंक के लिए महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या वह भी फेडरल रिजर्व के रास्ते पर चलेगा? अगर ऐसा नहीं करेगा, तो क्यों?
समय के इस मोड़ पर फेड की ही तरह रिजर्व बैंक के सामने दो प्रमुख उद्देश्य हैं। महंगाई दर को नीचे लाना और ऐसा माहौल बनाए रखना कि वैश्विक वित्तीय बाजार में आए भूचाल के बीच भी वित्तीय व्यवस्था में भरोसा कायम रहे।
विश्वास का माहौल बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में कुछ ठोस कदम उठाए जाएं और वित्तीय क्षेत्र में तनाव रहित कार्य निष्पादन को बरकरार रखा जाए।
सामान्य उद्देश्यों और समान परिस्थितियां होने के बावजूद दो ऐसे कारण हैं जिनके चलते रिजर्व बैंक - फेड का अनुसरण नहीं करेगा। पहला महंगाई दर का परिदृश्य है।
दोनों देशों में इस समय महंगाई दर नीति निर्माताओं के लक्ष्य से ज्यादा है और वे इसे लेकर सहज नहीं हैं। दोनों देशों के लिए राहत की बात यह है कि कच्चे तेल और जिंसों की कीमतों में गिरावट आ रही है, लेकिन पूरे हालात पर गौर करने पर पता चलता है कि महंगाई के स्तर पर भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू मुद्रा का भी है।
इस सच्चाई पर कई लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि वित्तीय संकट का केंद्रविंदु अमेरिका है, इसके बावजूद डॉलर तुलनात्मक रूप से मजबूत हो रहा है।
रुपये के मूल्य में तेजी से गिरावट आई है और यह एक डॉलर के मुकाबले 39 रुपये से घटकर 45.5 रुपये पर पहुंच गया है। प्रभाव के लिहाज से देखें तो विनिमय दर में गिरावट शायद इसलिए आ रही है कि इस पर खाद्यान्न और तेल की कीमतों का प्रभाव पड़ रहा है।
विनिमय दर का प्रभाव सभी आयातित सामान पर करीब 20 प्रतिशत है। तेल की घटती कीमतों का महंगाई दर पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है, क्योंकि घरेलू कीमतें पहले से ही नियंत्रित हैं और वे वैश्विक कीमतों से बहुत कम हैं।
हालांकि इसका प्रभाव लंबे समय तक वित्त पर पड़ेगा। खाद्यान्न की कीमत का तात्कालिक प्रभाव महंगाई दर पर होता है, इसकी कीमतों में कोई करिश्माई बदलाव नहीं आया है।
कुल मिलाकर देखें तो महंगाई का दबाव बना हुआ है और ब्याज दरों में किसी भी तरह की कटौती करने पर रुपया कमजोर होगा। यह खतरा ऐसा है कि असंतुलन का जो माहौल बना है, उससे विश्वास का माहौल बिगड़ सकता है।
दूसरे कारण का संबंध वित्तीय व्यवस्था से है। अमेरिका में क्रेडिट मार्केट के बंद होने और नकदी में कमी आने का प्रभाव भारत पर पड़ सकता है। अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा उठाए गए तमाम कदम रिजर्व बैंक को दिशा दिखाते हैं।
फेडरल रिजर्व के फैसलों से यह स्पष्ट होता है कि उसके सभी उद्देश्य, जिसमें महंगाई दर को नियंत्रित करना भी शामिल है, वित्तीय व्यवस्था को ध्वस्त करने से बचाने और वास्तविक अर्थव्यवस्था के साथ चलने से संबंधित हैं।
फेडरल रिजर्व ने विश्वास को बरकरार रखने की कोशिश दो स्तरों पर की है। पहला आपातकालीन नकदी के प्रावधानों के माध्यम से। उसने अपनी पुरानी परिपाटी को तोड़ते हुए संस्थानों का दायरा बढ़ा दिया है।
अब निवेश बैंक भी कर्ज दे सकेंगे, जिन पर फेड नियमों के मुताबिक पहले प्रतिबंध था। इसके साथ ही जमानत का दायरा बढ़ा दिया है, जिसके माध्यम से नकदी दी जाती है।
फेडरल रिजर्व का दूसरा कदम ब्याज दरों में कटौती है, जो संपूर्ण मांग को बरकरार रखने के लिए पहले से जाना जाता है। इसके चलते भी आत्मविश्वास में जो कमी आई थी वह दूर हुई। लेकिन दरों में कटौती को कम महत्त्वपूर्ण कदम माना जाता है।
इस कठिन समय में वित्तीय व्यवस्था को कारगर रखने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए जरूरी होता है कि पूंजी हासिल करें और अपनी बैलेंस शीट मजबूत करें, जिसके माध्यम से उनकी उधारी की गतिविधियां बरकरार रह सकें।
कम ब्याज दरें, बैंकों को फिर से पूंजीकृत करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। ऐसा कैसे होगा?
फेडरल रिजर्व से कम समय केलिए कम ब्याज दर पर लिए गए कर्ज को लंबे समय के लिए उच्च ब्याज दर पर कर्ज के रूप में दिया जाता है।
बैंक कम समय के लिए कर्ज लेते हैं और लंबे समय की उधारी के रूप में देते हैं। कम समय के लिए कम ब्याज दर पर लिए गए कर्ज, बैंक को विस्तार देते हैं और उनका मुनाफा बढ़ाते हैं।
फेडरल रिजर्व की दरों में कटौती, जरूरतों के अनुरूप होती है जो अमेरिका के वित्तीय क्षेत्र के लाभ को बढ़ाती है। इसमें भारत के लिए सीखने की क्या बात है? अगर भारतीय वित्त संस्थानों की बैलेंस शीट बढ़िया है और हाल फिलहाल कोई खतरा नहीं है तो ऐसी स्थिति में ब्याज दरों में कटौती से वित्तीय तंत्र कमजोर होगा।
दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में समस्या कमोबेश वैसी नहीं है जैसी अमेरिका में है। कुल मिलाकर देखें तो यहां पर अमेरिका की तुलना में दो प्रमुख विषमताएं हैं। मुद्रा की चाल को देखते हुए भारत कम ब्याज दरों का भार नहीं सह सकता।
और उसी तरह से महंगाई के मामले में भी बहुत भिन्नता है। इसी तरह से वर्तमान में वित्तीय व्यवस्था में साल्वेंसी को बरकरार रखने के लिए भी कम दरों की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह तुलनात्मक रूप से बेहतर है।
इसका मतलब यह है कि भारत में तरलता की स्थिति बेहतर है और जरूरत यह है कि रिजर्व बैंक चौकसी के साथ स्थितियों पर निगरानी रखे। रिजर्व बैंक को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि
निकट भविष्य में ज्यों ही जरूरत पड़े, नकदी बढ़ा दे। इस क्षमता में सुधार के लिए एक सुझाव यह हो सकता है कि ब्याज दरों के स्तर पर मध्य काल में नीतिगत दरें तय की जाएं।
वर्तमान में नीति दरें उच्च स्तर पर हैं, जिससे रिजर्व बैंक पर यह दबाव बन रहा है कि वह नकदी को बढ़ाए. अंत में तीसरी और सामान्य कारण भी है, जिसकी वजह से मौद्रिक नीति में ढील नहीं दी जानी चाहिए।
इस समय के अस्थिरता के माहौल में कोई भी फैसला नीतिगत रूप से गलत हो सकता है। इस समय कड़ी नीति एक गलत फैसला हो सकता है क्योंकि भारतीय बाजार, आत्मविश्वास की कमी के दौर से गुजर रहा है।
इसके साथ ही इस समय किसी भी तरह की ढील देने से रुपया कमजोर हो सकता है, जिससे महंगाई दर का दबाव बढ़ेगा और इससे एक बार फिर कड़ी नीति की जरूरत पड़ेगी।
अहम सवाल यह होगा कि कौन सी कमजोरी है, जिसे ठीक किया जा सकता है। आत्मविश्वास का अभाव एक बहुत बड़ी समस्या है और अगर यह और कम होता है तो नकदी में बढ़ोतरी करनी होगी।
लेकिन यह महंगाई दर को रोकने के मामले में उतना सही नहीं है, जो लंबे समय तक प्रभावी होता है। इस तरह के तमाम मतभेद से यही संकेत मिलता है कि अभी चल रही कड़ी मौद्रिक नीति को जारी रखा जाना चाहिए।
केंद्रीय बैंकिंग एक मानवीय कला है, जिसमें नीतिगत चुनाव कठिन होते हैं। इसमें कोई भी त्रुटि अपरिहार्य हो सकती है। लेकिन उसमें तत्काल सुधार करना जरूरी होता है।
