औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के दिसंबर और खुदरा महंगाई (सीपीआई) के जनवरी के आंकड़े बुधवार को एक साथ जारी किए गए। आईआईपी के आंकड़े जहां उम्मीदों के अनुरूप रहे और उनमें साल दर साल आधार पर 0.6 फीसदी की गिरावट आई, वहीं सीपीआई के आंकड़ों ने थोड़ा चौंकाया। इन आंकड़ों के मुताबिक कुल मुद्रास्फीति 8.8 फीसदी रही। महंगाई के आंकड़ों में इस कमी के लिए मोटेतौर पर खाद्य महंगाई में गिरावट जिम्मेदार रही जो पिछले कई महीनों की तेजी के बाद घटकर 9.9 फीसदी पर आ गए। ऐसा मोटेतौर पर सब्जियों की कीमत में कमी की वजह से हुआ जो इस अवधि में 22 फीसदी की अपेक्षाकृत कम गति से बढ़ीं। बहरहाल मूल मुद्रास्फीति यानी खाद्य और ऊर्जा कीमतों को छोड़कर शेष महंगाई अभी भी 8 फीसदी से ऊंची बनी हुई है। तमाम महीनों के धीमे विकास के बावजूद इन आंकड़ों में किसी तरह की कोई गिरावट नहीं नजर आई है। आईआईपी की बात करें तो उसके आंकड़े पिछले कुछ महीनों के रुझान के अनुरूप ही रहे। दिसंबर में आई गिरावट के बाद अप्रैल-दिसंबर का प्रदर्शन नकारात्मक श्रेणी में चला गया। आंकड़ों में बाद में भले ही संशोधन हो लेकिन अभी इस बात से किसी को इनकार नहीं होगा कि औद्योगिक क्षेत्र लंबे समय से गिरावट के दौर से गुजर रहा है और इसमें सुधार की कोई संभावना अभी नजर नहीं आ रही है। एक आश्वस्त करने वाली बात वस्त्र उद्योग का दमदार प्रदर्शन है। इसमें साल दर साल आधार पर 20 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई। वर्ष 2013-14 के लिए यह 30 फीसदी से ऊपर निकल चुका है। इसमें रुपये के मूल्य में तेज गिरावट का भी योगदान हो सकता है जिसने इस क्षेत्र को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया है। लेकिन इन बातों के दरमियान हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कपड़ा उत्पादन की दर 4 फीसदी से भी कम बनी हुई है। कई अन्य औद्योगिक समूहों खासतौर पर पूंजीगत वस्तु क्षेत्र में गिरावट देखने को मिली है। यह निवेश में कमी का सीधा संकेत है। लेकिन खर्च खपत पर नकारात्मक दबाव पडऩे की संभावना नजर आ रही है। उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य में साल दर साल आधार पर 5 फीसदी की कमी आई क्योंकि टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य में 16 फीसदी से अधिक की कमी आई। इस वर्ष इनमें अब तक 12.6 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। औद्योगिक क्षेत्र में तेजी लाने के तमाम प्रयास नाकाम हो चुके हैं। इन आंकड़ों में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है विकास और महंगाई के रुझान के बीच का भेद। आरबीआई ने अपनी मौद्रिक नीति को लेकर यह दलील दी है कि मुद्रास्फीति में कमी लाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है भले ही इसकी कीमत विकास के मोर्चे पर चुकानी पड़े। ऐसा इसलिए क्योंकि लंबी अवधि में इसका फायदा मिलने की पूरी संभावना है। यह सब अपनी जगह ठीक है लेकिन जब विकास धीमा होने के बावजूद महंगाई पर कोई असर नहीं पड़ता है तो यह दलील दरकने लगती है। खुदरा महंगाई का यह व्यवहार एक रहस्य ही बना हुआ है। मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाना या ऐसा कोइ भी अन्य लक्ष्य केवल तभी कारगर साबित हो सकता है जब उपायों और लक्ष्य के बीच सीधा संबंध हो। इस असंबद्घता की एक व्याख्या यह हो सकती है कि खाद्यान्न कीमतों का वेतन पर तगड़ा असर होता है और वेतन सेवाओं के मूल्य से सीधे संबंधित है। अगर ऐसा है तो खाद्य महंगाई पर नियंत्रण स्थापित करना सबसे अधिक आवश्यक है।
