सफलता के तीन पैमानों पर कैसा रहा संप्रग का प्रदर्शन! | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / February 05, 2014 | | | | |
जल्द ही केंद्र की सत्ता में कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को 10 वर्ष पूरे हो जाएंगे। आर्थिक सुधारों के बाद के दौर में किसी एक पार्टी या राजनीतिक गठबंधन ने यह उपलब्धि हासिल नहीं की है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि पिछले 10 वर्षों में सरकारी खजाने को संभालने में संप्रग के प्रदर्शन का आकलन किया जाए। इसका एक तरीका तो यही होगा कि इस दौरान आए 10 बजटों को तीन कसौटियों पर कसा जाए। एक राजकोषीय अनुशासन, दूसरा कर सुधार और तीसरा व्यय प्रबंधन।
राजकोषीय मोर्चे पर देखें तो वर्ष 2004 में जब संप्रग सरकार ने कमान संभाली तो उसे जीडीपी के 4.5 फीसदी के बराबर राजकोषीय घाटा विरासत में मिला, जिसके लिए वर्ष 2003-04 के दौरान जसवंत सिंह की बजट कवायद जिम्मेदार थी लेकिन इस अंतर से जल्दी ही निजात पा ली गई। निश्चित रूप से तेज आर्थिक वृद्घि से राजस्व में आई तेजी ने इसे संभव बनाया लेकिन तथ्य यही है कि संप्रग सरकार के पहले चार वर्षों में राजकोषीय घाटे में लगातार कमी देखी गई और वर्ष 2007-08 के दौरान यह आंकड़ा जीडीपी के 2.7 फीसदी के बराबर तक पहुंच गया। मगर यह सुनहरा दौर लंबा नहीं चला और वर्ष 2007-08 में यह समाप्त हो गया। तबसे यह बढऩे पर है और इसके लिए 2008 की मंदी से निपटने के लिए दिए गए प्रोत्साहन पैकेजों को बड़ा जिम्मेदार माना गया और सरकार का राजकोषीय घाटा वर्ष 2009-10 के दौरान बढ़कर जीडीपी के 6.4 फीसदी के बराबर तक पहुंच गया। हालांकि इसमें कुछ सुधार हुआ है और इस साल राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.8 फीसदी से कम के स्तर पर रह सकता है।
बीते वर्षों में राजकोषीय घाटे में कमी बावजूद राजकोषीय फिसलन के चलते चिंताएं बढ़ी हैं। पहली तो यही कि चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा भले ही वित्त वर्ष 2009-10 के स्तर से कम रहे लेकिन फिर भी वह अर्थव्यवस्था में सहजता के स्तर से काफी ऊंचा है। दूसरी बात यही कि सरकार ने घाटे पर नियंत्रण लगाने की योजना पर अमल करने के मोर्चे पर ठहराव के पीछे यही तर्क दिया कि वित्तीय मंदी से निपटने के लिए राजकोषीय प्रोत्साहनों की दरकार थी और उसके बाद से सरकार में वित्तीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएफ) अधिनियम, 2003 के तहत लक्षित राजकोषीय अनुशासन को कायम करने के ज्यादा स्वर सुनाई नहीं दिए।
फरवरी, 2012 में बजट भाषण में प्रणव मुखर्जी ने एफआरबीएम अधिनियम में संशोधन के जरिये घाटे के लक्ष्यों को नए सिरे से तय करने की बात की थी। मगर कुछ नहीं हुआ। तीसरी बात यही कि संप्रग सरकार ने बीते कुछ वर्षों में घाटे को बजट के मुताबिक लाने के लिए जीतोड़ कोशिशें की हैं लेकिन यह प्रयास भी एक बार हासिल किए गए राजस्व के दम पर ही हुए हैं। विनिवेश और दूरसंचार स्पेक्ट्रम जैसे विकल्पों का ही सहारा लिया गया। इस तरह सरकारी राजस्व और खर्च में बुनियादी असंतुलन की तस्वीर और खराब होती गई। कई योजनाओं के चलते लंबे दौर के लिए किए गए वादों को पूरा करने से उसका खर्च लगातार बढऩे पर है तो वहीं वृद्घि के मंद पडऩे से सरकार की प्राप्तियां भी काफी प्रभावित हुई हैं। पिछले 10 वर्षों में करों के मामले में कोई खास सुधार न होना भी कम चिंताजनक नहीं है। देश के करों के मामले में आखिरी कवायद राज्यों के मूल्य वर्धित कर (वैट) के रूप में हुई थी। वाजपेयी सरकार ने इस कदम को आक्रामक रूप से बढ़ावा दिया और संप्रग सरकार के शुरुआती दिनों तक आखिरकार नई कर व्यवस्था पूरी तरह अमल में आ पाई। तब से देश प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर अधिक सुधारों की उम्मीद कर रहा है।
न तो प्रत्यक्ष करों के क्षेत्र को और अधिक सक्षम और स्थायित्व देने वाली नई प्रत्यक्ष कर संहिता पर कदम बढ़ पाए हैं और न ही वस्तु एवं सेवा कर के स्तर पर बात आगे बढ़ी, जिससे भारतीय बाजार को एकीकृत बनाकर सभी क्षेत्रों में बचत और सक्षमता को बढ़ावा दिया जा सके। आप इसके लिए राजनीति को दोष देंगे। मगर क्या संप्रग नेतृत्व को इसके लिए राजनीतिक सहमति बनाने और अंदरूनी स्तर पर कायम असहमति दूर करने के लिए राजनीतिक कौशल नहीं दिखाना चाहिए था, जिससे देश में कराधान प्रणाली में निश्चित रूप से कुछ बुनियादी सुधार संभव हो पाते?
संप्रग सरकार के शासन के दौरान व्यय प्रबंधन में तीन खामियां दिखती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार पिछले 10 वर्षों के दौरान समग्र व्यय को जीडीपी के 15 फीसदी के आसपास रखने में सफल रही है, यह 2003-04 में जसवंत सिंह द्वारा की गई कवायद से कुछ कम है।
ऐसा सरकार के पूंजीगत खर्च में भारी कमी करके ही किया गया है। वर्ष 2003-04 में पूंजीगत खर्च जीडीपी के 4 फीसदी के स्तर पर था जो संप्रग के पिछले छह वर्षों के दौरान जीडीपी के 2 फीसदी से भी कम पर रहा। यह कमी संभवत: राजस्व व्यय योजना को दुरुस्त रखने के लिए की गई होगी लेकिन फिर भी यह बढ़ता गया जो वर्ष 2004-05 में जीडीपी के 11.85 फीसदी से बढ़कर चालू वर्ष में जीडीपी के 12.63 फीसदी पर आ गया। वर्ष 2007-08 और 2008-09 के दौरान तो यह जीडीपी के 14 फीसदी तक पहुंच गया था।
यह इशारा करता है कि संप्रग सरकार सब्सिडी पर लगाम लगाने में नाकाम रही है। वर्ष 2003-04 में राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के आखिरी बजट में सब्सिडी जीडीपी के 1.61 फीसदी के बराबर थी। उसके बाद चार वर्षों में इसमें कुछ कमी देखी गई और 2008-09 में यह जीडीपी के 2 फीसदी तक पहुंची लेकिन उसके बाद से लगातार बढऩे पर है, जो यह दर्शाता है कि सरकार गैर जरूरतमंदों को दी जाने वाली सब्सिडी पर विराम नहीं लगा पाई है। इसके साथ ही नौकरशाही के आकार को घटाने में सरकार विफल रही। वर्ष 2003-04 में नौकरशाही का आंकड़ा 33 लाख था, जो फिलहाल 34.5 लाख पर पहुंच गया। पीछे मुड़कर देखने पर यही लगता है कि संप्रग के पास एक अवसर था, जो उसने खो दिया।
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