देश के नेता और अर्थ नीति में है सीधा संबंध | अभीक बरुआ / February 05, 2014 | | | | |
इस वर्ष होने जा रहे आम चुनाव में देश की कमान किसके हाथ जाती है, यह बात देश की आर्थिक नीति के लिहाज से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं अभीक बरुआ
इसमें कोई शक नहीं कि यह बात खासी मायने रखती है कि चुनाव में जीत हासिल करके सरकार कौन बनाता है। मैं इस समाचार पत्र समेत विभिन्न स्थानों पर टीकाकारों द्वारा व्यक्त उन विचारों से अपनी असहमति दर्ज कराता हूं कि चाहे किसी भी दल की सरकार बने उसे मौजूदा आर्थिक समस्याओं से सीधा टकराव मोल लेना ही होगा। अगर हमारे पास कोई तगड़ा नेतृत्व नहीं हुआ तो केवल बाहर से रेटिंग घटाए जाने अथवा विदेशी निवेशकों की बेरुखी जैसी वजहें ही सरकार को ठोस तरीके से काम करने पर मजबूर करने की वजह नहीं बन सकेंगी। ऐसे में अर्थव्यवस्था को आगे और अधिक नुकसान पहुंचने का जोखिम बरकरार है।
हां, आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह जरूर कहा जा सकता है कि ताजा चुनाव पिछले आम चुनाव के मुकाबले अधिक ताजगी भरे होने जा रहे हैं। पिछले चुनावों की थोथी नारेबाजी और वोट बैंक को लेकर तुष्टीकरण हावी रहते थे लेकिन अब हमारे पास अधिक ठोस राजनीतिक और आर्थिक वजहें मौजूद हैं जिन पर चुनावों के दौरान चर्चा की जानी है। साथ ही यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि इन विकल्पों को स्थानीय प्रयोगों में सफलता हासिल हो चुकी है। इनमें से कुछ प्रयोगों के परिणामों के बारे में तो सबको जानकारी है जबकि अन्य की अभी केवल शुरुआत ही हुई है। मेरा मानना है कि ये उभरते हुए रुझान आने वाले समय में भी जिंदा रहेंगे और भविष्य में देश की राजनीति और उसकी नीतियों को भी प्रभावित करेंगे।
आइए बात करते हैं कुछ ऐसे प्रयोगों के बारे में जिनका मैंने पहले जिक्र किया। शुरुआत करते हैं आम आदमी पार्टी अर्थात आप के मॉडल से। मुझे नहीं पता कि यह अपने मौजूदा स्वरूप में बरकरार रह पाएगी अथवा आम चुनाव में इसका प्रदर्शन कैसा रहेगा? बहरहाल मुझे यह भरोसा जरूर है कि इसका मूल मॉडल बरकरार रहेगा और बेहतर होगा कि हाल की घटनाओं से प्रभावित हुए बिना हम इसका विश्लेषण करें।
मुझे इस मॉडल में तीन संबद्घ बातें नजर आती हैं। पहला, यह जिस चीज का प्रतिनिधित्व करता है उसे मैं 'राजनीति के बादÓ की बात कहता हूं। सैद्घांतिक रूप से यह समस्याओं से निपटने में आदर्शवादी तरीका अपनाने से इनकार करती है और उसकी जगह समस्याओं के फौरी हल तलाश करने की दिशा में आगे बढ़ती नजर आती है। इस लिहाज से देखा जाए तो राजनीति के बाद वाली बात अमेरिका की चाय पार्टी अथवा फ्रांस में मरीन ला पेन के नैशनल फ्रंट जैसे दक्षिणपंथी दलों से इसको अलग करती है। इन राजनीतिक दलों के पास अपनी राजनीतिक विचारधारा और अपना अलहदा इतिहास था। उदाहरण के लिए चाय पार्टी आंदोलन उस संविधान की पुनस्र्थापना की मांग करता है जिसका स्वप्न अमेरिका के पुरखों ने देखा था। राजनीति के बाद वाले सिद्घांत में इतिहास के लिए कोई खास स्थान नहीं है।
दूसरा पहलू है अधिक भागीदारी (नागरिकों के लिए) वाली प्रशासनिक प्रक्रिया अथवा प्रत्यक्ष लोकतंत्र की। यह कोई नया विचार नहीं है। खुद दिल्ली में शीला दीक्षित सकरार ने भागीदारी जैसी योजनाओं को सफलतापूर्वक आजमाया। बहरहाल, नए मॉडल में इसे और आगे बढ़ाकर जनता से लगातार प्रतिपुष्टिï हासिल करने की मंशा है। निश्चित तौर पर इसकी अलग समस्याएं हैं। बहुमतवादी प्रत्यक्ष लोकतंत्र तब सफलतापूर्वक काम कर सकता है जबकि सवाल सार्वजनिक बेहतरी से जुड़े फैसलों का हो। क्या सरकार को राष्टï्रमंडल खेलों का आयोजन करना चाहिए था या फिर उसमें लगे धन का महज एक हिस्सा देश में वंचितों के लिए खेल सुविधाएं सुधारने में लगाना चाहिए था? जाहिर सी बात है कि बहुमत वाले शासन की अपनी समस्या है क्योंकि इसके अल्पमत समूह के अधिकारों को प्रभावित करने का जोखिम होता है। बहरहाल यह भी जरूरी नहीं कि प्रत्यक्ष लोकतंत्र हमेशा अल्पसंख्यक समूह के पक्ष में ही खड़ा हो।
यह सारी बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इस प्रक्रिया में केवल चुनिंदा लोग नहीं बल्कि सभी संबंधित लोग शामिल होते हैं। इसके अलावा भी एक जोखिम है। प्रत्यक्ष लोकतंत्र में अल्पावधि के लोकलुभावन फैसले लेने की प्रवृत्ति होती है लेकिन तभी जबकि नागरिकों को इस बारे में भरपूर जानकारी नहीं हो। एक मजबूत भागीदारी वाले मॉडल के सफल होने के लिए जरूरी है कि नागरिक सूचित हों और उन्हें किसी भी फैसले की लागत और उसके लाभों की पूरी जानकारी हो।
साधारण बुद्घिमता तो यही कहती है कि इस तरह की निर्णय प्रक्रिया का इस्तेमाल राष्टï्रीय सुरक्षा नीति अथवा आर्थिक नीति में नहीं करना चाहिए। मैं इस बात पर सहमत हूं कि राष्टï्रीय सुरक्षा नीति में इतिहास की समझ और राजनयिक संवेदनशीलता दोनों शामिल होते हैं जबकि आम आदमी को इनकी पूरी समझ नहीं होती है। जब बात आर्थिक नीति की आती है तो निश्चित तौर पर अधिक समावेशी बहस की पूरी गुंजाइश मौजूद है। इसमें भी घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने की कोई आवश्यकता नहीं है, बस निर्णय प्रक्रिया में मुख्य अंशधारकों का ख्याल रखा जाना ही पर्याप्त होगा।
मुझे यह कहते हुए बहुत खेद होता है कि देश में महंगाई से मुकाबला करने और ब्याज दर से संबंधित नीति को लेकर जो भी बहस होती है उसमें भारतीय उद्योग जगत को पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया है। उद्योग जगत के लोगों को कुछ ऐसे मुनाफा चाहने वाले लोगों का समूह मान लिया गया है जो केवल विकास की ही परवाह करते हैं।
तीसरा पहलू है भ्रष्टïाचार के विरोध का। सरकार को नागरिकों के लिए सक्षम सेवा प्रदाता बनाने के क्रम में यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इससे कुछ लाभांश अर्जित किया जा सकता है लेकिन इसके लिए आमूलचूल बदलाव आवश्यक होगा। यानी ऊपर से नीचे तक सांस्थानिक बदलावों को अंजाम देना होगा जो पारंपरिक शासन व्यवस्था की जड़ों पर गहरी चोट करें। इस वक्त तो आप का मॉडल जमीनी स्तर पर मौजूद समस्याओं के हल तलाशने में जिस कदर जुटी हुई है उसे देखकर लगता है वह व्यापक पैमाने पर व्यवस्थित बदलावों का विरोध कर रही है।
आखिर में बात करते हैं विकास के तथाकथित गुजरात मॉडल की। इस मॉडल में औद्योगीकरण तथा अच्छे प्रशासन को लेकर गहरी प्रतिबद्घता की बात कही जा रही है। कुछ विश्लेषकों ने देश के अन्य हिस्सों में इसे अपनाए जाने को लेकर सवाल भी उठाए हैं जबकि अन्य ने पूछा है कि कहीं यह गहरे आर्थिक खाके के बिना केवल प्रभावी प्रशासन का ही मॉडल तो नहीं है?
बहरहाल अगर इस पर बारीकी से नजर डाली जाए तो इसमें सतत और समावेशी विकास (रोजगार सृजन समेत) को लेकर गहरी समझ नजर आती है। ऐसे में विनिर्माण में सुधार होना अनिवार्य नजर आता है। देश की इस जटिल समस्या के निदान की बात की जाए तो नरेंद्र मोदी के साथ कुछ बेहतरीन अर्थशास्त्री जुड़े हुए हैं। विनिर्माण के काम को गति देने की प्रतिबद्घता अर्थव्यवस्था को लेकर एक सकारात्मक बदलाव हो सकता है। मेरी इच्छा है कि नरेंद्र मोदी अपने आर्थिक दर्शन के इस पहलू के बारे में थोड़ी और बात करें।
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