पात्रता से निजात | संपादकीय / February 05, 2014 | | | | |
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने चुनाव अभियान में एक संदेश अत्यंत महत्त्वपूर्ण बनाकर दे रही है कि देश में नीतिगत बदलाव लाकर उसे पात्रता से सशक्तीकरण की ओर ले जाना होगा। पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी भाषण दर भाषण में कहते हैं कि लोगों को सरकार द्वारा दी जाने वाली चीजों पर निर्भरता खत्म करनी चाहिए और आत्मनिर्भर बनना चाहिए।
एक स्तर पर यह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के तमाम सुरक्षा योजनाओं मसलन महात्मा गांधी राष्टï्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना अधिनियम और खाद्य सुरक्षा कानून आदि पर सीधा हमला है। जबकि इन दोनों योजनाओं की शुरुआत सख्त जरूरतमंद लोगों को आजीविका और भोजन उपलब्ध कराने के लिए की गई थी। इनकी जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इनके डिजाइन को लेकर चिंताएं हो सकती हैं। मनरेगा के तो क्रियान्वयन और निगरानी पर भी सवाल उठते रहे हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या योजनाएं खामियों से भरपूर हैं? दूसरे शब्दों में कहा जाए तो क्या इनका लाभ उन लोगों को मिल रहा है जो इसके पात्र नहीं हैं जबकि पात्र लोगों को इनका फायदा नहीं मिल पा रहा है। खाद्य सुरक्षा को लेकर यह चिंता अधिक रही है क्योंकि इस अधिनियम के तहत देश की 67 फीसदी से अधिक आबादी को रियायती दर पर खाद्यान्न देने की बात है जबकि आधिकारिक गरीबी रेखा के नीचे इससे महज एक तिहाई लोग ही आते हैं। सही लोगों तक नहीं पहुंच पाने वाली योजनाओं के राजकोषीय परिणाम बहुत बुरे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि भ्रष्टïाचार इसमें और अधिक इजाफा कर देता है। लेकिन केवल भाषणों में ही पात्रता से सशक्तीकरण की ओर पेशकदमी पर्याप्त नहीं है। इसके लिए ठोस नीतिगत प्रस्ताव आगे बढ़ाया जाना चाहिए। पात्रता योजनाओं के ढांचे में प्रभावी सुधार के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होगी। पहली बात, उत्पादक रोजगारों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी करनी होगी ताकि सुरक्षा योजनाओं की मांग में कमी लाई जा सके। इसका मतलब यह है कि एक ओर जहां बुनियादी ढांचे और श्रम बाजार में सुधार हो वहीं दूसरी ओर शिक्षा और कौशल विकास पर भी पूरा ध्यान दिया जाए। इनमें से कुछ मुद्दे तो लंबे समय से नीतिगत प्राथमिकता में शामिल हैं लेकिन क्रियान्वयन के मोर्चे पर वे कमजोर पड़ गए। इसमें कैसे बदलाव लाया जा सकता है? दूसरी बात, राजकोषीय सुदृढ़ीकरण पर भी जमकर ध्यान देना होगा।
शायद इसके लिए वित्तीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएफ) अधिनियम को दोबारा लागू किया जा सकता है। इससे सरकार को कुछ सब्सिडी कम करने की मोहलत मिलेगी। इसमें पेट्रोलियम और उर्वरक सब्सिडी शामिल है जिसका अर्थव्यवस्था के तमाम स्तरों पर बुरा असर पड़ रहा है। तीसरी बात विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में कृषि संबंधी रुख ठोस और प्रभावी लक्षित खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम की वकालत करता है।
इस प्रक्रिया के जरिये जो सीमाएं निर्धारित की गई हैं उनका इस्तेमाल खाद्य सुरक्षा प्रणाली की पहुंच को सीमित करने के लिए किया जा सकता है जबकि साथ ही साथ कृषि उत्पादों की खरीद और सब्सिडी ढांचे में सुधार भी लाया जा सकता है। नई सरकार को जहां इस नीतिगत एजेंडे पर आगे बढऩा चाहिए वहीं पात्रता योजनाओं की राजनीतिक अर्थव्यवस्था सुधारों की राह का बड़ा रोड़ा है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को उन पात्रता योजनाओं से कहीं न कहीं लाभ मिलता है जिन्हें वे खत्म करना चाहेंगे। खासतौर जब जीत का अंतर कम रहने की आशंका हो और बहुमत का आंकड़ा बहुत सीमित हो तो पात्रता योजनाओं से छेड़छाड़ करना राजनीतिक रूप से बहुत जोखिम भरी बात साबित हो सकता है। बहुप्रतीक्षित सुधार केवल तभी काम करेंगे जब इनको लेकर व्यापक राजनीतिक सहमति होगी। यह देश के नए नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी।
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