डॉलर केसबसे निचले स्तर (ट्रेड वेटेड आधार पर) पर पहुंचने की आशंका आखिकार सच साबित हो ही गई। येन और स्विस फ्रैंक केमुकाबले डॉलर धराशायी हो गया।
साथ ही सोना भी 1 हजार डॉलर केरेकॉर्ड स्तर को पार कर गया। पूरे बाजार में निराशा का माहौल है। लोगों का मानना है कि डॉलर में अभी और गिरावट हो सकती है। आर्थिक बदहाली को दूर करने के लिए पुराने जी-3 ग्रुप (ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी) के हस्तक्षेप की चर्चा भी जोरों पर है।इस बीच, क्रेडिट मार्केट की हालत हर हफ्ते बिगड़ती जा रही है। अमेरिकी शेयर बाजार में दहशत और घबराहट का आलम है।
भारत में बाजार एक दिन 300 अंक चढ़कर दूसरे दिन फिर से 250 अंक गिर जाता है। बाजार 11,500 अंक से नीचे नहीं लुढ़के, इसके लिए तमाम कवायदें जारी हैं।अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में अंधाधुंध कटौती करने और अमेरिकी ट्रेजरी के साथ मिलकर प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों को संकट से उबारने में जुटा है।
इस पूरी कवायद में करदाताओं के पैसे (सस्ती संपत्तियों को गारंटी बनाकर लोन देने) भी दांव पर लग रहे हैं। हालांकि ये तमाम कवायदें अमेरिकी अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने में कितनी मददगार साबित होंगी, इस बात का पता चलने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा। मेरी राय में इस हालत की तुलना टाइटैनिक जहाज की अंतिम घड़ियों से की जा सकती हैं।
हकीकत यह है कि शेयरों के भाव पहले से काफी गिर चुके हैं। सिटी बैंक के शेयर 20 डॉलर से नीचे पहुंच चुके हैं। इस वजह से शेयरों को खरीदने में किसी की दिलचस्पी नहीं रह गई है। बैंक भी बाजार में फंड का प्रवाह सावधानी से जारी कर रहे हैं, ताकि संकट के और बढ़ने के वक्त में भी उनके पास बाजार में तरलता का प्रवाह बनाए रखने की गुंजाइश बची रहे।
हकीकत यह है कि बाजार में तब तक खरीदारी का दौर शुरू नहीं होगा, जब तक यह साफ हो जाए कि बर्बादी का दौर पूरा हो चुका है और मार्केट क्लियरिंग प्राइस स्थापित हो चुकी है।जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक बाजार 60 के दशक में लोकप्रिय डांस लिंबो रॉक की तरह नृत्य करता रहेगा। इस डांस में खुद को पीछे की तरफ धकेलना पड़ता है और जब भी भीड़ चिल्लाती है, तो डांसर अपनी रफ्तार कम कर देता है।
मेरा मानना है कि डाउ जोन्स में तब तक लिंबो रॉक डांस जैसा सिलसिला जारी रहेगा, जब तक यह 10 हजार से नीचे न पहुंच जाए। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि यह गिरावट अचानक होनी चाहिए। अगर यह गिरावट 6 महीने में होती है, तो यह फर्ॉम्युला काम नहीं करेगा। लेकिन 3 या 4 सत्रों में डाउ जोन्स में 2 हजार अंकों की गिरावट इसके न्यूनतम स्तर तक पहुंचने का संकेत देगा।
हालांकि बाजार विशेषज्ञों के मुताबिक, अचानक होने वाली इस गिरावट से बाजार को कुछ नुकसान भी झेलना पड़ सकता है। मसलन इससे कोई प्रमुख वित्तीय संस्थान दिवालिएपन की हालत में पहुंच सकता है। मैंने कुछ महीने पहले से सिटी बैंक को बिस्मिल्लाह बैंक कहना शुरू कर दिया है। हो सकता है कि यह सच साबित हो जाए। लेकिन हमें इसे पिछले कुछ सुनहरे वर्षों की कीमत मानकर चलना होगा।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाजार में पूंजी की कोई कमी नहीं है। अब भी दुनिया के सॉवरीन वेल्थ फंड (एसडब्ल्यूएफ), प्राइवेट इक्विटी खिलाड़ी और लाखों निवेशक नकदी के ढेर पर बैठे हैं। एक बार बाजार का न्यूनतम स्तर तय हो जाने पर सस्ती कीमतों के मद्देनजर बाजार में पैसों की बरसात होने लगेगी। और यह प्रक्रिया जितनी जल्दी शुरू होती है, उतनी ही जल्दी विकास पटरी पर लौट सकेगा।
बहरहाल, यह बात जरूर है कि अमेरिकी संस्थाओं द्वारा बाजार को बचाने की पुरजोर कोशिशें जारी रहेंगी। हालांकि, इससे बाजार के पुनरुध्दार की उलटी गिनती की प्रक्रिया शुरू होने में और देरी होगी और इसके नतीजे बदतर ही होंगे। खुशकिस्मती की बात यह है कि मार्केट में गिरावट का दौर काफी तेज है और इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि न्यूनतम स्तर जल्द ही आने वाला है।
यहां सवाल यह पैदा होता है कि इन सारी परिस्थितियों के मद्देनजर भारतीय बाजार में क्या होगा? जाहिर है कि इस गिरावट का असर भारतीय शेयर बाजारों पर भी देखने को मिलेगा और अनिश्चितता के दौर से गुजर रहे सेंसेक्स में भी भारी गिरावट देखने को मिलगी और शायद यह 12 हजार के निचले स्तर तक पहुंच जाए। हालांकि सेंसेक्स के इस स्तर तक पहुंचने के बाद यह खरीदारी के लिए सबसे बेहतर विकल्प के रूप में सामने आएगा।
जहां तक रुपये का सवाल है, इसकी कहानी भी कुछ ऐसी ही होगी। पिछले 2 साल में डॉलर के मुकाबले रुपये की मजबूती की प्रमुख वजह भारत में अंतरराष्ट्रीय निवेश में हुई बढ़ोतरी है। हालांकि फिलहाल भारतीय रिजर्व बैंक की कड़ी मौद्रिक नीति की वजह से विकास दर में हल्की गिरावट भी आई है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय निवेशकों की भारत में दिलचस्पी कम नहीं हुई है। और रोज-ब-रोज इसमें बढ़ोतरी ही हो रही है।
हालांकि, अभी कहीं भी निवेश नहीं हो रहा है। नतीजतन डॉलर के मुकाबले रुपया थोड़ा लुढ़ककर 41 के करीब पहुंच गया है और आने वाली अवधि में इसमें और गिरावट देखने को मिल सकती है। लेकिन एक बार वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में स्थिरता आने के बाद भारत में धन का प्रवाह काफी तेज हो जाएगा और रुपये में फिर से मजबूती का दौर शुरू हो जाएगा।
(हालांकि स्थिरता आने में 2 महीने, 6 महीने या फिर साल भर का वक्त भी लग सकता है।) अगर ईश्वर की कृपा रही तो 2008 के अंत तक ही डॉलर के मुकाबले रुपया 38.50 तक पहुंच सकता है। ऐसा होने पर मैं 2003 में अपने द्वारा की गई भविष्यवाणी का प्रचार मरीन ड्राइव पर बिलबोर्ड के जरिए कर सकूंगा। मैंने उस वक्त कहा था कि 5 साल में रुपये डॉलर के मुकाबले 38 के आंकड़े को छू लेगा। 2003 में 1 डॉलर की कीमत 46 रुपये थी।