जब से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर सब प्राइम संकट मंडराना शुरू हुआ और इसका असर अमेरिका की वित्तीय कंपनियों पर पड़ने लगा, तब से ही भारत के सॉफ्टवेयर क्षेत्र में यह बहस छिड़ने लगी कि क्या इस मंदी का प्रभाव उतना ही भयावह रहेगा जितना 2001-02 में देखा गया था।
याद होगा कि इस दौरान तकनीक और दूरसंचार की दुनिया में बुलबुले के फूटने और न्यू यॉर्क में आतंकवादी हमलों की वजह से जबरदस्त मंदी देखी गई थी। अब जबकि अमेरिका के वित्तीय क्षेत्र में जलजला आ गया है तो लोगों के मन में यह डर समाने लगा है कि क्या परिस्थितियां उस समय की तरह ही भयानक होंगी।
भारत के आईटी क्षेत्र पर इस आर्थिक भूकंप का कितना असर पड़ेगा, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की सॉफ्टवेयर कंपनियों के राजस्व का 60 फीसदी हिस्सा वैश्विक वित्तीय क्षेत्र से ही प्राप्त होता है। ऐसे में अगर आईटी क्षेत्र में दहशत का माहौल है तो इसकी वजह समझी जा सकती है।
फिलहाल तो जो कंपनियां लीमन ब्रदर्स और मेरिल लिंच को सेवाएं दे रही हैं, वे ऐसा दावा कर रही हैं कि उन पर इस घटना का कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ेगा।
हालांकि वित्तीय क्षेत्र पर अपनी निर्भरता के जोखिम को भारतीय आईटी कंपनियां कुछ समय पहले से ही समझने लगी थीं और यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में वे दूरसंचार, उत्पादन और लॉजिस्टिक क्षेत्र में अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए ध्यान देने लगी थीं। पर रातों रात तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि कारोबारी ढांचे में बदलाव लाया जा सकेगा।
शायद आईटी कंपनियों के लिए यह संकट काफी पहले ही आ गया। इन नए हालात में भारतीय कंपनियों पर तत्काल असर पड़ेगा क्योंकि खस्ताहाल पश्चिमी वित्तीय कंपनियों को ऐसी कंपनियां अपने कब्जे में ले लेंगी जिनकी हालत अभी ठीक ठाक है। ऐसे में न केवल उन कंपनियों के कर्मचारियों पर असर पड़ेगा बल्कि उन कंपनियों के कर्मचारियों पर भी इसकी गाज गिरेगी जो इनके लिए काम करती थीं।
सभी अपना खर्च सीमित करने की कोशिश करेंगी और इससे आउटसोर्सिंग पर किया जाने वाला खर्च भी प्रभावित होगा। ऐसा नहीं है कि आउटसोर्सिंग का काम पूरी तरह से ठप पड़ जाएगा पर पहले जिन कामों के लिए वेंडरों को ज्यादा भुगतान किया जाता था, अब उन्हीं कामों के लिए उन्हें कम भुगतान पर भी संतोष करना पड़ेगा।
इससे चोटी पर बैठे अधिकारियों पर ही फर्क नहीं पड़ेगा बल्कि मध्यम श्रेणी के कर्मचारी भी इससे प्रभावित होंगे। माना कि मंदी की छाया हर तरफ है पर इसी के बीच कुछ आईटी कंपनियों ने अपने लिए नए रास्ते भी निकाल लिए हैं। तेजस नेटवर्क्स और इट्टियम जैसी आईटी कंपनियां या तो कंप्यूटर या फिर एमपी 3 और वीडियोफोन जैसे गैजेट तैयार कर उन्हें पूर्वी एशियाई लेबलों के साथ बेच रही हैं।
भारतीय कंपनियों को चाहिए कि वे आगे आएं और ऐसे उत्पादों को खुद के ब्रांड नेम के साथ वैश्विक बाजार में बेच सकें। भारतीय आईटी कंपनियां काफी पहले से ही कीमत के स्थान पर गुणवत्ता को तरजीह देने लगी थीं और अब समय आ गया है कि वह अपने कर्मचारियों को काम के घंटों के हिसाब से नहीं बल्कि नए प्रयोगों के हिसाब से वेतन दें। भले ही राह थोड़ी मुश्किल है पर भारतीय आईटी उद्योग इतना परिपक्व तो हो चुका है कि वह नई चुनौतियों का मुकाबला कर सके।