भारतीय लक्जरी बाजार पर टिकी है सबकी नजर | जिंदगीनामा | | कनिका दत्ता / November 21, 2013 | | | | |
इस हफ्ते के शुरू में भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) और बाजार शोध कंपनी आईएमआरबी ने 'द चेंजिंग फेस ऑफ लक्जरी इंडियाÓ शीर्षक के तहत एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में भारत के लक्जरी बाजार के विशिष्टï लक्षणों के बारे में लिखा गया है, जो इस विषय में पहले से आ चुकी कई रिपोर्ट में से एक है। यह एक तथ्य है कि भारतीय लक्जरी बाजार शोध का एक रोमांचक विषय बन चुका है और कम से कम एक बड़े सालाना सम्मेलन से तो यही बात साबित होती है।
दुनिया के सबसे महंगे व लक्जरी उत्पाद और सेवाएं खरीदने में भारतीयों की क्षमता जगजाहिर है। रईस भारतीय खरीदारी करने के लिए विश्व के लक्जरी शॉपिंग बाजारों में ही जाना पसंद करते हैं। अब दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार भारत में अतीत के उन लोगों की संख्या कम हो गई है, जिनके पास खर्च करने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं होती, अब जिनके पास है वे इसे खर्च करने से गुरेज नहीं करते।
लेकिन इस विस्फोटक विकास की असली चुनौतियां अभी सामने आनी बाकी हैं। इस साल की शुरुआत में ही पेरिस स्थित एक वेबसाइट लक्जरी सोसाइटी ने भारत में लक्जरी प्रतिभाओं की स्थिति पर एक अध्ययन रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट के व्यापक नतीजे वैसे ही हैं, जैसे कि दुनिया के अन्य देशों में यानी इस क्षेत्र में प्रशिक्षित प्रतिभाओं की भारी कमी है।
लेकिन इस रिपोर्ट की सबसे अहम बात थी इसमें लगाया गया अनुमान। रिपोर्ट के अनुमान के अनुसार 2022 तक भारत में लक्जरी ब्रांड्स और सेवाओं को हैंडल करने के लिए करीब 17.6 लाख लोगों की दरकार होगी। राष्टï्रीय कौशल विकास निगम के आंकड़ों के अनुसार यह कुल रिटेल मानव संसाधन क्षेत्र की जरूरत का पांच फीसदी से ज्यादा है।
ये आंकड़े बाजार की मौजूदा स्थिति के आधार पर हैं और लक्जरी बाजार को आपूर्ति करने वालों के समक्ष मौजूद चुनौतियों को वास्तविक रूप में पेश नहीं करते। जरा इस पर गौर फरमाएं। सत्तर के दशक में कोलकाता में जिस व्यक्ति के पास टेलीफोन और कार होती थी उसे 'बड़ा आदमीÓ श्रेणी में रखा जाता था लेकिन सटीकता से कहें तो वह 'अमीर आदमीÓ था।
जिसके पास रसोई गैस कनेक्शन और रेफ्रिजरेटर भी होता था उसे बहुत रईस आदमी माना जाता था। ऐसा शहर जिसके कण कण में कृत्रिम वामपंथी विचारधारा मौजूद हों वहां यह तमगा ईष्र्यालु उपहास माना जाता था। उन्होंने हकीकत को नैतिकता बना दिया, जिसे वामपंथी दलों के शासन वाले पश्चिम बंगाल और देश भर में लागू लाइसेंस राज ने और बढ़ावा दिया। तब तेजी से वैश्विक आपूर्ति शृंखला से जुड़ रहे दक्षिण पूर्वी एशिया ने भी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच को भारत में लक्जरी में रख दिया।
वह एक भोलेपन का युग था, जब भारतीयों को वास्तव में लक्जरी का असली मतलब नहीं पता था। उस समय किसी परिवार में फ्रिज का होना इतना दुर्लभ था कि जिसके घर में यह होता था वह इसे बाहर के कमरे में ही रखवाता था, जिससे पड़ोसी उसे देखकर जल सकें। देश में राजसी परिवारों द्वारा उनके रुतबे के भव्य प्रदर्शन पर बहुत पहले ही रोक लग चुकी है, जब इंदिरा गांधी ने बेहद सोच-समझकर राज्य-रजवाड़ों को दी जा रही प्रिवी पर्स की सुविधा समाप्त करने का फैसला किया। अब लोगों ने भव्य और शानदार जीवनशैली देखने के लिए पश्चिम का रुख किया। लेकिन वहां जाना सभी के लिए मुमकिन नहीं था और जो कुछ भाग्यशाली लोग विदेश जाते थे वे वहां से 'डिजाइनर लेबलÓ की खरीदारी कर लौटते थे। दिलचस्प है कि उनकी यह 'डिजाइनरÓ खरीदारी कभी भी क्रिश्चियन डियॉर और गुच्ची से आगे नहीं जाती थी। इसके बाद दौर आया मारुति वाले 'अमीरोंÓ का।
सन 80 के मध्य में राजीव गांधी ने चुटकी में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण कर दिया। लोगों के समक्ष बुनियादी सुविधाओं की कमी रही लेकिन भारत की कीमती विदेशी मुद्रा अन्य वस्तुओं पर खर्च की जाती रही, जिसमें 'लक्जरीÓ कार के लिए तकनीक का लाइसेंस भी शामिल था। ये गाडिय़ां थी हिंदुस्तान मोटर्स की कॉन्टेसा, प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स की 118एनई और स्टैंडर्ड 2000, यह कार रोवर की इतनी पुरानी तकनीक पर विकसित की गई थी कि रोवर और इस कार को बनाने वाली चेन्नई स्थित कंपनी दोनों का ही कारोबार ठप हो गया।
इसके बाद अंत हुआ लाइसेंस राज का। इस दौर में 'लक्जरीÓ की नई विचारधारा ने भारतीय बाजार में कदम रखा। यह विचारधारा भारतीय उपभोक्ताओं की अधिक खर्च करने की उम्मीद में यहां आई थी। इस सूची में डीसीएम समूह की देवू सिएलो और एरो की कमीज, बेनेटन के कैजुअल्स, बास्किन रॉबिन्स की आइसक्रीम और मैकडॉनल्ड्स रेस्तराओं की शृंखला शामिल थी। इन सभी ब्रांडों ने अपने उत्पादों की कीमतों को किफायती रखा, जिससे वे बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहे भारतीयों को वैश्वीकरण की मरीचिका पेश कर सकें।
नई सदी आते आते यानी वर्ष 2000 तक लुई वितों ने दिल्ली के ओबेरॉय में देश में अपना पहला आउटलेट खोला, जिसमें रबर की चप्पलों की कीमत 24,000 रुपये थी। मैंने तब अनुमान लगाया था कि यह बहुत ज्यादा नहीं चलेगा और कंपनी शायद भारतीय बाजार को अलविदा कह दे। ए टी कियर्नी के अनुसार लेकिन न सिर्फ देश में लुई वितो के और स्टोर खुले बल्कि यह अब उन ब्रांडों में शुमार हो चुका है, जो बड़े आत्मविश्वास के साथ ऐसे देश में कारोबार कर रहे हैं, जहां 'अल्ट्रा रईस व्यक्ति के पास 600 अरब डॉलर से अधिक की संपत्ति है।'
इसके बावजूद जब भारत का कल के नवाबों की तरह आलीशान तरीके से रहने वाले व्यक्ति अपनी मर्सिडीज से जिमी चू पहने उतरते हैं, सिंगल माल्ट के पैग पीते हुए अमन रिसॉर्ट में सप्ताहांत बिताना पसंद करते हैं तो इन लक्जरी सेवाओं और उत्पादों की आपूर्ति करने वालों के लिए असली चुनौती अपनी खातिर भारतीयों को प्रशिक्षित करने में होगी क्योंकि इनमें से बहुत से लोग शौचालय व बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवन बिताते हैं।
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