चीन में संभावित सुधार और उनकी कीमत | श्याम सरन / November 20, 2013 | | | | |
चीन ने सुधार का जो खाका तैयार किया है वह उसे काफी आगे ले जा सकता है लेकिन इसके साथ ही उसमें अधिनायकवादी शासन व्यवस्था की वापसी का खतरा भी छिपा है, बता रहे हैं श्याम सरन
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 18वीं राष्टï्रीय कांग्रेस की बहुप्रतीक्षित तीसरी पूर्ण बैठक (ऐसी बैठक जिसमें सभी सदस्य मौजूद हों) 11 से 15 नवंबर के बीच आयोजित हुई। इसे इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक माना जा रहा था क्योंकि तंग श्याओ फिंग ने पार्टी के भीतर के परंपरावादी धड़े के विरोध के बावजूद 1978 में पहले दौर के सुधार और वर्ष 1992 में दूसरे दौर के सुधारों को आगे बढ़ाया था।
हालिया पूर्ण बैठक में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और कानूनी सुधारों के लिए एक व्यापक, महत्त्वाकांक्षी और दूरदर्शी खाका तैयार किया गया। विश्लेषकों ने कम से कम 60 ऐसे फैसलों की पहचान की जो हर क्षेत्र को अपने दायरे में लेते हैं। वर्ष 2020 तक इनका क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है। क्योंकि वही वक्त होगा जब देश के नए नेता शी चिनपिंग का एक नए चीन का ख्वाब असल स्वरूप ग्रहण कर रहा होगा। बहरहाल, अगर आकांक्षाओं को व्यावहारिक कार्य में बदला जा सके तो एशिया में चीन का क्षेत्रीय कद अपराजेय होने जा रहा है। इतना ही नहीं वैश्विक स्तर पर अमेरिका के समक्ष भी उसका कद अत्यधिक बढ़ जाएगा। इससे वैश्विक भूराजनैतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल जाएगा और भारत को उसमें अपनी जगह तलाश करनी होगी। इस पूर्ण बैठक की खासियत यह रही कि तंग श्याओ फिंग के सांचे में ढले शी चिनपिंग पिछले दो दशकों के सामूहिक नेतृत्व के उलट एक निर्विवाद नेता के रूप में उभरे। सुधार के नए खाके पर उनकी छाप है। निर्णय संबंधी दस्तावेज भी प्रधानमंत्री ली कछ्यांग की जगह उन्होंने ही पेश किए।
उक्त दस्तावेज पर गौर किया जाए तो अधिक व्यापक, विस्तृत और प्रभावी सुरक्षा नियंत्रण के साथ-साथ भारी भरकम आर्थिक सुधारों को भी आकार लेना है। ऐसे में जहां सुधार कार्यक्रम को तैयार करने, उसके क्रियान्वयन और निगरानी के लिए एक शीर्ष समूह होगा, उसके साथ ही राष्टï्रीय सुरक्षा समिति भी होगी जो राज्य सुरक्षा के विभिन्न उपायों को लागू करके यह सुनिश्चित करेगी कि आर्थिक सुधार किसी भी तरह सामाजिक स्थिरता अथवा देश की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए खतरा न बनें। पार्टी स्तर की व्यवस्था से इतर केंद्रीय स्तर पर इन दो शक्तिशाली संस्थाओं का गठन शी चिनपिंग की शक्ति और उनकी प्रभुता को और अधिक मजबूत बनाने का काम करेगी क्योंकि माना जा रहा है कि ये संस्थाएं उन्हीं को रिपोर्ट करेंगी। कुछ लोग सोच सकते हैं कि यह व्यवस्था मुक्त व्यापार के सिद्घांतों के अनुकूल नहीं है।
बहरहाल, पिछले तीन दशकों के दौरान चीन ने इन दोनों विरोधाभासी सिद्घांतों का बखूबी सफल इस्तेमाल किया है और इस दौरान राजनीतिक स्थिरता भी कायम रखी है। अभी यह देखा जाना बाकी है कि यह तरीका अतीत की तरह भविष्य में भी सफल साबित होता रहेगा अथवा नहीं। अगर इसने अच्छा प्रदर्शन करना जारी रखा, जैसा कि चीन के नेता मानते हैं तो फिर उदार और मुक्त बाजार की पूंजीवादी व्यवस्था को एक बड़ी चुनौती का सामना करना होगा। खासतौर पर अगर पश्चिमी दुनिया में सुधार का क्रम धीमा बना रहता है तब।
प्लेनम के कई फैसले ध्यान देने लायक हैं। राजनीतिक मोर्चे पर बात करें तो श्रम सुधार शिविरों का खात्मा एक बड़ा बदलाव है। इसी तरह शहरी पंजीकरण की व्यवस्था को खत्म करना भी एक बड़ा कदम है क्योंकि उसकी वजह से 20 करोड़ आंतरिक प्रवासी चीनियों का एक बड़ा समूह तैयार हो गया था जिसकी पहुंच शहरी सेवाओं अथवा सामाजिक सुरक्षा तक नहीं थी।
आबादी के यहां वहां जाने पर लगी पाबंदी हटने के तमाम आर्थिक और सामाजिक प्रभाव हैं, यही बात एक दंपती एक बच्चा की नीति में आंशिक तौर पर दी गई ढील पर भी लागू होती है। आर्थिक मोर्चे पर बात करें तो मुख्य फैसलों में संसाधनों के आवंटन में बाजार की भूमिका भी एक प्रमुख बात है। इसका मतलब यह हुआ कि तेल, गैस, पानी,बिजली, परिवहन ओर दूरसंचार आदि तमाम सेवाओं में प्रतिस्पर्धी कीमतें लागू की जा सकेंगी। अगर इसका क्रियान्वयन हो सका तो यह अर्थव्यवस्था के परिचालन में एक बड़ा बदलाव होगा और यह देश की अर्थव्यवस्था को निवेश आधारित व विकास से ऊर्जा के प्रोत्साहन पर आधारित विकास की ओर आगे ले जाएगा।
उल्लेखनीय है कि बाद वाली व्यवस्था अधिक उपभोक्ता आधारित व्यवस्था है। बस सरकारी उद्यमों को मिलने वाली प्राथमिकता में कोई कमी नहीं आएगी और वह अर्थव्यवस्था में शीर्ष पर बने रहेंगे। दस्तावेज में कहा गया है कि वित्तीय और बैंकिंग सुधार जारी रखे जाएं। आने वाले दिनों में ब्याज दरों में पूर्ण उदारीकरण देखने को मिल सकता है। पूंजी खाता भी अधिक उदार हो सकता है। खास बात यह है कि जमीन को आंशिक तौर पर ही बाजार आधारित बनाया जाएगा लेकिन ग्रामीण भूधारकों को उनकी जमीन की कीमत बढऩे से लाभ होगा।
पूर्ण बैठक का सुधार का एजेंडा नया नहीं है। पिछले कई सालों से सुधार के तमाम एजेंडे पार्टी के जेहन में हैं लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है।
इसमें घरेलू पंजीकरण व्यवस्था में सुधार, संसाधनों का मूल्य निर्धारण और जन सेवाएं तथा पूंजी बाजार आदि से जुड़े सुधार आदि सब शामिल हैं। इन सुधारों के क्रियान्वयन में हो रही देरी के चलते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन चियापाओ ने वर्ष 2011 में चेतावनी दी थी कि बगैर उनके अस्थिर, असंतुलित, असमन्वित और अस्थायी आर्थिक विकास से बच पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा।
चीन में सुधारों के जोखिम भरे और चुनौतीपूर्ण सुधार कार्यक्रम से पार पाने के लिए प्रभुतावादी और व्यक्तित्व आधारित नेतृत्व की ओर स्पष्टï बदलाव जरूरी नजर आता है। अभी जबकि भारत खुद दूसरे दौर के सुधारों के क्रम में विभिन्न गतिअवरोधकों से जूझ रहा है तो क्या भारत में शी चिनपिंग के भारतीय अवतार की कल्पना की जा सकती है जो बदलाव का वाहक बन सके? इसमें कोई संदेह नहीं है चीन तानाशाही शासन की ओर बढ़ रहा है, वहीं भारत में भी एक मजबूत प्रभुत्ववादी नेता की सख्त आवश्यकता महसूस की जा रही है जो न केवल निर्णय लेने में सक्षम होगा बल्कि हालात में सुधार लाकर भारत के विकास को दोबारा पटरी पर लौटा लाएगा।
लेकिन यह एक भ्रम के सिवा कुछ नहीं। क्योंकि भारत चीन नहीं है और खुद हमारा अनुभव यह बताता है कि प्रभुतावादी शासन से यदि कुछ हासिल भी होगा तो वह क्षणिक और अस्थायी होगा। ऐसा भी नहीं है कि हमारे देश में उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था जीडीपी के उच्च विकास के प्रतिकूल नजर आई हो। इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए हमें यह ध्यान देना होगा कि चीन का उदाहरण 21वीं सदी में हमारे विकास को परिभाषित करने वाला मॉडल न बने।
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