कमजोरी का फायदा | संपादकीय / November 20, 2013 | | | | |
वृहद अर्थव्यवस्था के किताबी मॉडलों की बात करें तो परिवर्तनशील विनिमय दर को चीजों को स्वत: दुरुस्त करने वाली व्यवस्था माना जाता है। जब किसी अर्थव्यवस्था का भुगतान संतुलन भारी भरकम चालू खाता घाटे अथवा पूंजी की आवक में कमी की वजह से दबाव में होता है तो उसकी मुद्रा का अवमूल्यन होता है।
इससे निर्यात को बल मिलता है और आयात में कमी आती है। इससे दबाव कम करने में आसानी होती है। वहीं दूसरी ओर, जहां अधिशेष की स्थिति होती है वहां मुद्रा का अधिमूल्यन होता है और चालू खाता घाटा बढ़ता है जिससे दबाव कम होता है। यकीनन किताबी मॉडलों में चीजों का अतिसरलीकरण किया जाता है लेकिन उससे न तो वे अप्रासांगिक होते हैं और न ही गलत।
पिछले दो साल के दौरान रुपये की दिशा ने ऐसे मॉडलों को काफी हद तक सही साबित किया है। चालू खाता घाटा जितना बढ़ा है, रुपये में अवमूल्यन का उतना ही ज्यादा दबाव बना। जब भी इसकी कोई वजह तैयार हुई, मसलन हाल में अमेरिकी केंद्रीय बैंक द्वारा क्वांटिटेटिव ईजिंग में कमी का संकेत दिया जाना, तो इसमें तेज गिरावट देखने को मिली। लेकिन इसके अचानक घटित होने के अलावा इसमें कुछ खास बुरा भी नहीं है। एक बार रुपये के स्थिर हो जाने के बाद देश के निर्यातक पहले के मुकाबले अधिक प्रतिस्पर्धी बन जाएंगे।
इसके अलावा उन उत्पादकों को भी इसका लाभ मिलेगा जो घरेलू बाजार में आयातित उत्पादों से मुकाबला करते हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड रिसर्च ब्यूरो ने दूसरी तिमाही के कारोबारी परिणामों का विश्लेषण किया तो पता चला कि ये लाभ भारतीय कंपनियों को कितनी जल्दी मिल सकते हैं। निफ्टी सूचकांक (बैंकिंग, वित्तीय सेवाओं और तेल विपणन कंपनियों को छोड़कर) में शामिल कंपनियों का विश्लेषण यह संकेत देता है कि उनके कुल राजस्व और मुनाफे में साल दर साल आधार पर 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
इसके अलावा दोनों सूचकांक एक साल पहले के मुकाबले काफी मजबूत स्थिति में भी नजर आए। चूंकि इस अवधि के दौरान वृहद अर्थव्यवस्था की बड़ी घटना रुपये में गिरावट थी इसलिए इसने भी हालात को संतुलित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रुपये में स्थिरता आने और कुछ वक्त तक यह स्थिरता बरकरार रहने की संभावनाओं के बाद अनुमान है कि अगली कुछ अन्य तिमाहियों तक ऐसा प्रदर्शन बरकरार रहेगा। स्पष्टï है कि रुपये में गिरावट को लेकर व्याप्त चिंता अब खत्म हो चुकी है। कम से कम कारोबारी जगत पर उसके असर को लेकर अब कोई चिंता नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आश्वस्ति का यह भाव केवल निर्यात तक सीमित नहीं है।
बहरहाल, ऐसा भी नहीं है कि कारोबारी चक्र में बदलाव आ चुका है या निकट भविष्य में आ सकता है। अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जो कच्चे माल के बड़े निर्यातक हैं। ऐस में रुपये की कमजोरी से उनकी लागत पर दबाव बनेगा और परिणामस्वरूप मुनाफे पर भी। इसके अलावा ऐसे उत्पाद और सेवाएं जिनका कारोबार नहीं हो सकता है उनका प्रदर्शन भी घरेलू लागत और मांग की स्थिति पर निर्भर करता है।
निवेश के लिए कमजोर प्रोत्साहन और सरकारी की ओर से खर्च में कमी की संभावनाओं के बीच घरेलू मांग बढऩे की कोई खास उम्मीद नहीं है। जबकि रुपये में गिरावट के चलते ईंधन की बढ़ती कीमत भी लागत पर दबाव डालेगी। कमजोर रुपये से जुड़ा मुद्रास्फीति संबंधी जोखिम भी मौद्रिक नीति को वापस महंगाई में कमी की ओर केंद्रित करने में योगदान दे रहा है। ये सभी बातें बताती हैं कि मूलभूत आर्थिक परिदृश्य कमजोर ही है। निवेश में सुधार के लिए नीतिगत मोर्चे पर बड़े कदम की आवश्यकता होगी। इस बीच रुपये का समयोजन बिल्कुल किताबी अंदाज में अपना काम कर रहा है।
|