आपने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि गोल्डमैन सैक्स के पूर्व अध्यक्ष ऐसी बात कहेंगे, जिसे किसी ने 'इंसानी इतिहास के सबसे बड़े राष्ट्रीयकरण' की संज्ञा दी है।
लेकिन पिछले हफ्ते बतौर अमेरिकी वित्त मंत्री हैंक पॉलसन ने उस वक्त बिल्कुल ऐसी ही बात कही, जब अमेरिकी सरकार ने कर्जों को पुनर्गठन का काम करने वाली दो बड़ी कंपनियों, फैनी मे और फ्रेडी मैक का राष्ट्रीयकरण किया। इससे अमेरिकी खजाने पर पूरे 200 अरब डॉलर का बोझ पड़ा।
इससे अमेरिकी सरकार का सार्वजनिक कर्ज दोगुना होकर छह लाख करोड़ डॉलर हो गया है। यह उस दुनिया की एक मिसाल भर है, जहां सरकारें मुसीबत में फंसे बैंकों में पैसा लगाकर उनपर कब्जा कर रही हैं। फरवरी में ब्रिटिश सरकार ने नॉर्दर्न रॉक का राष्ट्रीयकरण किया था, जिसकी वजह से सरकारी खजाने पर 100 अरब डॉलर का मोटा-ताजा बोझ पड़ा।
मार्च में फेड की मदद से जेपी मॉर्गन ने बियर स्टन्र्स का अधिग्रहण किया था, जबकि अप्रैल में जर्मनी के सेंट्रल बैंक ने वेस्टएलबी में सात अरब डॉलर की पूंजी लगाई थी। इस बीच, सिटीग्रुप के पांच फीसदी शेयरों पर आज अबूधाबी इनवेस्टमेंट अथॉरिटी का कब्जा है। इस तरह 7.5 अरब डॉलर की पूंजी लगाने के बाद आज अथॉरिटी सिटीग्रुप की दूसरी सबसे बड़ी शेयरहोल्डर बन चुकी है।
सिंगापुर सरकार की कंपनी टेस्मार्क का आज स्टैंडर्ड चार्टर्ड के 17 फीसदी शेयरों पर कब्जा है। दूसरी तरफ, सिंगापुर इनवेस्टमेंट कॉर्पोरेशन का यूबीएस में नौ फीसदी शेयरों पर अधिकार है। ये शेयर कॉर्पोरेशन ने तब खरीदे थे, जब इस स्विस बैंक को पैसों की सबसे ज्यादा दरकार थी।
इस हफ्ते आखिरकार जब कोरियन डेवलपमेंट बैंक ने लीमान ब्रदर्स को खरीदने से इनकार कर दिया, तो उसने खुद को शेयर बाजार से अलग कर लिया। इन सभी मामलों में जैसे-जैसे एक के बाद एक बैंक भारी नुकसान दिखा रहे हैं, निजी निवेशकों की इात पर बट्टा लगता जा रहा है। मिसाल के तौर पर सिटीग्रुप को ही ले लीजिए। उसके शेयरों की कीमतों में 60 फीसदी की मोटी-ताजी गिरावट आ चुकी है।
दूसरों का प्रदर्शन तो इससे भी गया-गुजरा है और वे खून के आंसू रो रहे हैं। नतीजतन, कभी न्यूयॉर्क का झंडा बुलंद रखने वाले कई बैंक और वित्तीय संस्थानों की कीमत आज कई भारतीय बैंकों से भी कमतर आंकी जा रही है। तो इस कहानी का मतलब क्या है? मार्टिन वुल्फ ने बुधवार को फाइनैंशियल टाइम्स में साफ लिखा कि, 'अमेरिकी सरकार को हमें लंबे वक्त के लिए खुले बाजार की दया पर छोड़ देना चाहिए।'
निश्चित तौर पर एशिया और दक्षिण अमेरिका में लोग-बाग मुसीबत के वक्त वॉशिंगटन की सलाह को याद रखेंगे कि राष्ट्रीयकरण कभी किसी समस्या का समाधान नहीं होता। लेकिन आज पूंजीवाद से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है, तो उसकी वजह सिर्फ यह है कि मुनाफा कंपनियों के जेबों में जा रहा है, जबकि घाटा जनता को चुकाना पड़ रहा है।
हालांकि, वित्त जगत के बड़े नाम इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। नतीजतन, एक नए वित्त ढांचे की तलाश शुरू भी हो चुकी है। यह हमारे मुल्क के लिए काफी अहम है, जहां रिजर्व बैंक में नए गवर्नर कुर्सी संभाली है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती भारतीय वित्त जगत को फिर से संगठित करने की है।
विदेशी बैंकों के लिए देसी बाजार को बड़े स्तर पर खोलने के वास्ते काफी दवाब आ रहा है। साथ ही, सरकारी बैंकों में अब भी काफी सुधार की गुंजाइश है। लेकिन जरूरत है इन मुद्दों को वैचारिक चश्मे से नहीं देखने की। इसके बजाए इस पर ध्यान देना चाहिए कि कौन से कदम ज्यादा कारगर होंगे।