सरकार के आकार और गुणवत्ता को समझने की है दरकार | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / October 30, 2013 | | | | |
शासन इन दिनों एक ऐसा नया नारा है जिसका हमारे राजनेता जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। आए दिन इस विषय पर चर्चाएं होती हैं। भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी एक ओर शासन का बखान करते हैं तो दूसरी ओर राहुल गांधी भी शासन के बारे में बातें करने से नहीं हिचकते हैं। लेकिन जिस तरह इन नेताओं ने शासन शब्द के नए मायने गढ़े हैं, उन तरीकों पर गौर करने की जरूरत है।
क्या शासन का मतलब सिर्फ बेहतर और जवाबदेही प्रशासन से है? क्या शासन से आशय उस नियम आधारित व्यवस्था से है जिसके जरिये सार्वजनिक नीतियों को लागू किया जा सके? या फिर क्या शासन एक ऐसी सरकार की कल्पना है जो सक्षम और नरम हो? लेकिन नेताओं के भाषण सुनने के बाद भी शासन को लेकर आपके विचारों में कोई स्पष्टïता नहीं आएगी।
दूसरे शब्दों में बेहतर प्रशासन हासिल करने के तरीकों को लेकर कोई स्पष्टïता नहीं है, भले ही ये सारे नेता शासन की बातें करते हों। एक बार जब किसी पूर्व प्रधानमंत्री से पूछा गया कि अगर चुनावों के बाद वह फिर से सत्ता में लौटेंगे तो उनकी पहली प्राथमिकता क्या होगी? खास बात यह है कि चुनावों में दो-तीन महीनों का वक्त बाकी था। उनका जवाब काफी सूक्ष्म और सटीक था। उन्होंने कहा कि वह सरकार में मंत्रियों की संख्या कम करेंगे। यह बिल्कुल अलग बात है कि जब वह सत्ता में वापस लौटे तो उन्होंने इसके उलट ही काम किया। केंद्र्रीय मंत्रिमंडल में मंत्रियों की संख्या में इतनी बढ़ोतरी की गई कि बाद में सरकार में मंत्रियों की संख्या सीमित करने के लिए एक कानून बनाया गया।
पूर्व प्रधानमंत्री कोई अपवाद नहीं थे। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ दिनों बाद ही मनमोहन सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि प्रशासनिक सेवाओं में सुधार उनकी प्रमुख प्राथमिकताओं में से एक है। सच कहें तो डॉ. सिंह इस बात को लेकर अधिक व्यावहारिक और काफी सक्रिय भी थे। शायद गठबंधन राजनीति की मजबूरियों के बारे में जानते हुए उन्होंने मंत्रिमंडल का आकार कम करने जैसा कोई वादा नहीं किया। इसके बजाय उन्होंने प्रशासनिक सेवाओं को बेहतर और प्रभावशाली बनाने की जरूरत पर जोर दिया। इसके लिए एक समिति का गठन भी किया गया और इस समिति ने प्रशासनिक सेवाओं को नरम, तेज तर्रार और प्रतिक्रियावादी बनाने के लिए अपनी सिफारिशों का मसौदा सरकार को भी सौंपा। लेकिन करीब एक दशक बाद इनमें ज्यादातर सिफारिशें धूल ही खा रही हैं।
इनके पीछे एक ही लक्ष्य था, शासन में सुधार। लेकिन इस देश की राजनीतिक कार्यकारिणी इस प्रारंभिक लक्ष्य को हासिल करने के तरीकों से वाकिफ नहीं थी और यह एक ऐसा उद्देश्य था जिसे राजनीतिक और आर्थिक रूप से हासिल करना जरूरी था। शायद यह कहना कि राजनीतिक कार्यकारी उन तरीकों से वाकिफ नहीं थी, गलत होगा। इसकी सही व्याख्या यह हो सकती है कि राजनीतिक कार्यकारी सरकार में सुधार के जरिये ही शासन के दुरुह लक्ष्य को लेकर जागरूक है। इसलिए जब तक शासन का लक्ष्य नियमों और नीतियों में सुधार के जरिये हासिल किया जाता रहेगा, शासन करने वाला राजनीतिक वर्ग उन बदलावों को लागू करेगा।
पिछले दो दशकों के दौरान हुए आर्थिक सुधारों ने कुछ हद तक बेहतर प्रशासन और अर्थव्यवस्था में वृद्घि की गति को मजबूत करने में मदद की लेकिन शासन के मूल ढांचे में कोई बदलाव नहीं हो सका। सरकार के मूलभूत ढांचे में अभी भी भारी भरकम मंत्रिपरिषद और नौकरशाही का दबदबा कायम है और पिछले दो दशकों के दौरान यह जस का तस बना रहा। इन अवधि के दौरान बनी सरकारों ने निश्चित रूप से मजबूत नौकरशाही के पर कतरने के कुछ मामूली प्रयास जरूर किए और यहां तक कि मंत्रिपरिषद के आकार पर भी लगाम लगाया है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राष्टï्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने नौकरशाही के आकार को भी कम करने की कोशिश की और कुछ विभागों और खंडों को कम कर दिया।
लेकिन इन प्र्रयासों की काफी आलोचना हुई और उन्हें बीच रास्ते में ही छोडऩा पड़ा। वर्ष 2003 में केंद्रीय मंत्रिमंडल के आकार को सीमित करने की दिशा में कुछ सफलता मिली। इसे लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या के 15 फीसदी तक सीमित कर दिया गया। इसकी वजह से उस वक्त मंत्रिमंडल के 86 सदस्यों की संख्या घटकर अधिकतम 82 रह गई।
गौरतलब है कि मनमोहन सरकार में प्र्रधानमंत्री को मिलाकर कुल 77 सदस्य हैं जो 82 से कम है। लेकिन इस कमी से कम सदस्यों की मंत्रिपरिषद चलाने के संकल्प को अधिक मदद नहीं मिली, बल्कि इसकी वजह से सहयोगी गठबंधन से हाथ खींचने लगे और मंत्रियों का स्थान रिक्त हुआ।
लेकिन नौकरशाही के आकार का क्या? यह सच है कि पिछले दो दशकों के दौरान कुल कर्मचारियों की संख्या 40 लाख से घटकर करीब 34.5 लाख के आसपास आ गई है और वेतन में किया जाने वाला खर्च देश की जीडीपी के करीब 1 फीसदी तक पहुंच गया है। यह कमी भी प्राकृतिक रूप से और पिछले सालों के दौरान हुई रिक्तियों को न भरे जाने की वजह से हुई है।
लेकिन नौकरशाही के साथ असल समस्या इसका आकार नहीं बल्कि इसकी संरचना की गुणवत्ता है जो शासन की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है। जैसा कि विशेषज्ञों ने कई बार इशारा किया है कि प्रशासनिक कर्मचारियों की संरचना विभिन्न विभागों कके कनिष्ठï और मध्यम स्तर के कर्मचारियों के पक्ष में है। बेहतर शासन मुहैया कराने की दिशा में इन कर्मचारियों के योगदान और प्रभाव को लेकर काफी संशय है। यही वजह है कि नौकरशाही के आकार को कम करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण और राजनीतिक रूप से मुश्किल है।
आश्चर्य नहीं है कि सरकारों ने सहयोगी कर्मचारियों की बड़ी संख्या में कटौती करने के लिए भर्ती प्रक्रिया को सरल बनाने की आधारभूत जिम्मेदारी से कन्नी काट ली। तकनीक की बढ़ती पहुंच और सरकार की आपूर्ति तंत्र के बदले रुख के कारण यह संभव हुआ। इन उपायों की वजह से नौकरशाही में सुधार की प्रक्रिया को कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा। यह वक्त भारतीय राजनीतिक वर्ग के लिए काफी अहम है कि वह बेहतर शासन को सुनिश्चित करने के उपकरण के तौर पर सरकार के आकार और उसकी गुणवत्ता के महत्त्व को समझे।
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