खट्टïे रसीले फलों का देसी बाजार विभिन्न वजहों से हुआ बीमार | खेती-बाड़ी | | सुरिंदर सूद / September 24, 2013 | | | | |
जरा इन तथ्यों पर गौर फरमाइए। आकार के लिहाज से भारतीय सिट्रस (खट्टïे फल एवं सब्जियां) उद्योग विश्व में चौथे स्थान पर आता है। लेकिन सिट्रस फलों के कुल वैश्विक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी महज 10 फीसदी ही है। पिछले करीब तीन दशकों के दौरान सिट्रस फलों एवं सब्जियों के रकबे में 9.3 फीसदी की सालाना दर से बढ़ोतरी दर्ज की गई है। लेकिन इसके उत्पादन में महज 7.8 फीसदी की मामूली सी दर से इजाफा हुआ है। इससे भी खराब बात यह है कि अंतरराष्टï्रीय स्तर पर सिट्रस कारोबार में भारत की हिस्सेदारी नहीं के बराबर है। निर्यात के नाम पर पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की गैर-पारंपरिक सिट्रस पट्टïी में उत्पादित होने वाले किन्नू की छोटी खेप ही पड़ोसी देशों को भेजी जाती है।
इसी से स्पष्टï हो जाता है कि देश के सिट्रस उद्योग के साथ कुछ तो गंभीर गड़बड़ी है। कम मात्रा में निर्यात के लिए देसी बाजार में अधिक मांग को आंशिक तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाता है, जिसे समझा जा सकता है लेकिन इसकी प्रमुख वजह है उत्पादों की खराब गुणवत्ता है और ज्यादा चिंताजनक है। विदेशों में जहां बीज रहित फलों की ज्यादा मांग रहती हैं जबकि भारत में ज्यादातर सिट्रस फलों में बीज होते हैं भले ही वे संतरे हों या मौसंबी हो या फिर नींबू। वैश्विक बाजार में फलों का रंग भी बहुत अहमियत रखता है।
देश में सिट्रस का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले महाराष्टï्र के विदर्भ क्षेत्र का दिल कहे जाने वाले नागपुर में स्थित नैशनल रिसर्च सेंटर फॉर सिट्रस (एनआरसीसी) के विशेषज्ञों के अनुसार कम खट्टïे फल एवं सब्जियों का उत्पादन कम रहने की कई वजहें हैं और ये वजह इलाके दर इलाके पर निर्भर करती हैं। लेकिन सिट्रस के कम उत्पादन की समस्या से जूझ रहे इलाकों में फसल के प्रति लापरवाही और पौधों की बीमारियां, खारेपन के कारण मृदा की खराब गुणवत्ता या फिर अप्रभावित उप-सतहों की मौजूदगी, जल एवं पौधों के पोषक तत्त्वों का प्रबंधन, पौधों की सुरक्षा की खराब व्यवस्था और लगाने के लिए अच्छी किस्म के पौधों की कमी इसकी सबसे आम वजह हैं।
नागपुर की सिट्रस पट्टïी अपने स्वादिष्टï संतरों के लिए मशहूर है, जो छीलने में भी बहुत आसान होते हैं लेकिन दुनिया भर में मशहूर यह पट्टïी भी लापरवाही का शिकार है। इसके अलावा जल की कमी और मृदा में चिकनी मिट्टïी की उच्च मात्रा भी सिट्रस की खेती की राह में बड़ी चुनौती साबित हो रही है। इसके अतिरिक्त इस उद्योग पर सिट्रस ब्लैक फ्लाई (कोल्शी), सिट्रस साइला एवं कीट और विषाणुओं से होने वाली अन्य विभिन्न बीमारियों की मार पड़ रही है।
कभी दुनिया भर में कर्नाटक के कूर्ग के संतरे बहुत मशहूर हुआ करते थे लेकिन आज वे आश्चर्यजनक रूप से लुप्त होने के कगार पर हैं। बीमारियों विशेषतौर पर 'ग्रीनिंगÓ बीमारी के अलावा अन्य आकर्षक फसलों मसलन कॉफी और छोटी इलायची की खेती ने भी इस क्षेत्र में संतरे की खेती को हाशिये पर डाल दिया है। ग्रीनिंग संतरे की एक अहम बीमारी है और देश के विभिन्न हिस्सों में इससे संतरे का उत्पादन प्रभावित होता है। इस बीमारी से ग्रस्त पेड़ों के संतरे छोटे, तिरछे और स्वाद में कड़वे होते हैं। ऐसे फल पकने के समय से पहले ही पेड़ से टपक जाते हैं जबकि पेड़ पर लटके हुए संतरे भी छांव वाली तरफ हरे रहते हैं।
इसी तरह देश के पूर्वोत्तर हिस्से में स्थित संतरे की खासी पट्टïी भी कभी अपने विशिष्टï किस्म के संतरों के लिए मशहूर हुआ करती थी लेकिन अब यहां भी संतरे की खेती में बड़ी तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। संतरों के बगीचों में जल प्रबंधन एक बड़ी समस्या होती है खासतौर पर उन इलाकों में जहां यह खेती सीधी ढाल पर की जाती है। इसकी खेती के करीब घने जंगलों की मौजूदगी के कारण भी इन बगीचों की उचित देखभाल और प्रबंधन पर असर पड़ता है।
कृषि के लिहाज से प्रगतिशील देश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में सिट्रस की खेती हाल में शुरू की गई है और यहां मुख्यत: किन्नू की खेती की जाती है। हालांकि इसकी खेती करने वालों के लिए किन्नू के भारी-भरकम पेड़ों के लिए पर्याप्त मात्रा में जल और पोषक तत्त्वों का प्रबंधन करना खासा चुनौतीपूर्ण काम होता है। इसके अलावा मृदा में मौजूद सूक्ष्म पोषक तत्त्वों मसलन सोडियम, कैल्शियम, आयरन, मैंगनीज, कॉपर और जिंक की घटती मात्रा भी बागवानों के लिए अतिरिक्त समस्या पेश कर रही है।
एनआरसीसी के निदेशक एम एस लाडनिया का मानना है कि ये ऐसी समस्याएं हैं, जिनका समाधान तकनीकी विकास और अन्य रणनीतियों की मदद से ढूंढने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हालांकि उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि देश के सिट्रस उद्योग को वैश्विक नक्शे पर लाने के लिए सबसे पहली और बुनियादी आवश्यकता है बागवानों को स्वस्थ एवं बेहतर गुणवत्ता वाले बीजों की आपूर्ति सुनिश्चित करना। वह कहते हैं, 'विषाणु रोग से ग्रस्त मादा पौधा इस बीमारी की प्रमुख वाहक होती है खासतौर पर उन बगीचों में, जिन्हें कलम के जरिये लगाया गया है।Ó
एनआरसीसी देश में सबसे बेहतरीन तरीके से संचालित एक नर्सरी का परिचालन कर रहा है। संस्थान निजी एवं सार्वजनिक नर्सरी को बेहतरीन गुणवत्ता के बीज और अच्छी नस्ल के सिट्रस पौधे मुहैया कराने के लिए आधुनिक एवं वैश्विक स्तर पर ख्याति प्राप्त तकनीकों का इस्तेमाल कर रहा है। ये पौधे नर्सरी को उपलब्ध कराए जाते हैं, जिससे वे इन्हें और बढ़ावा दे सकें। इसके साथ ही संस्थान राज्य बागवानी विभाग के अधिकारियों और सिट्रस उत्पादकों को भी नर्सरी और बगीचों के प्रबंधन के लिए अच्छे कृषि-विज्ञान में प्रशिक्षण दे रहा है। यही नहीं संस्थान किसानों के खेतों में जाकर उनके
इन कोशिशों का फल तभी मिलेगा जब राज्य बागवानी विभाग और अन्य एजेंसियां शोधकर्ताओं द्वारा विकसित की जा रही तकनीकों और बाग प्रबंधन व्यवहार को व्यापक स्तर पर बढ़ावा दें। निजी नर्सरी समेत निजी सिट्रस उद्योग भी इस कोशिश में योगदान दे सकता है, जिससे उनके और सिट्रस की बागवानी करने वालों के वाणिज्यिक हितों का भी खयाल रखा जा सके।
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