विश्वग्राम में चीन के पराभव के जोखिम | श्याम सरन / September 11, 2013 | | | | |
चीन की अर्थव्यवस्था के लडख़ड़ाने के चलते वैश्विक आर्थिक जगत के समक्ष कौन-कौन से खतरे सर उठा सकते हैं? उनका आकलन कर, विस्तार से समझाने का प्रयास कर रहे हैं श्याम सरन
वैश्विक अर्थव्यवस्था बदलाव के दौर में है और वह अत्यंत जटिल और अनिश्चित चरण से गुजर रही है, कुछ इस तरह कि सामने मौजूद सवालों के भी कोई जवाब नहीं नजर आ रहे हैं। एक ओर, अगर आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के पूर्वानुमानों पर यकीन किया जाए तो अमेरिका और यूरोपीय संघ की विकसित अर्थव्यवस्थाएं और जापान मंदी से उबर रहे हैं और उनके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में विकास, आय और रोजगार के आंकड़ों में सुधार देखने को मिल रहे हैं।
एक बात जो स्पष्टï नहीं है, वह यह है कि क्या सुधार के ये जो लक्षण नजर आ रहे हैं वे उस आर्थिक प्रोत्साहन की वापसी के बाद भी जारी रह सकेंगे जो समय-समय पर और चरणबद्घ तरीके से इन अर्थव्यवस्थाओं को दिया गया है।
हम पहले ही देख चुके हैं कि ऐसी संभावना की चर्चा भर होने से ही उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में अफरातफरी का माहौल है। अगर वास्तव में आर्थिक मदद का दौर खत्म हो गया तो क्या हाल होगा? हमें समझना होगा कि उभरते बाजारों से विकसित बाजारों की ओर वित्तीय पूंजी का वापस लौटना मौजूदा वैश्विक असंतुलन का सही जवाब नहीं है क्योंकि इस पूंजी के अपरिहार्य तौर पर परिसंपत्ति के बुलबुले अथवा विकसित देशों में मुद्रास्फीति की वजह बनने की आशंका है। अगर ऐसा हुआ तो वे नए सिरे से संकट में पड़ जाएंगे। ऐसे में उभरते और विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों के बीच तालमेल की आवश्यकता है। दुखद बात यह है कि हाल ही में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित जी-20 शिखर बैठक में इसका सख्त अभाव नजर आया।
आइए अब नजर डालते हैं चीन पर जो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला मुल्क है। वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक, जिंस का सबसे बड़ा उपभोक्ता और पूंजीगत निवेश का बहुत बड़ा स्रोत है। चीन की अर्थव्यवस्था की सेहत अब खुद चीन के लिए चिंता का विषय नहीं है बल्कि वहां किसी संकट की आशंका भर, शेष विश्व के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। खासतौर पर प्रमुख जिंस उत्पादकों के लिए।
इससे पहले अपने एक आलेख में मैंने दलील दी थी कि जो वैश्विक असंतुलन वर्ष 2008 के संकट के लिए जिम्मेदार था वह चीन, अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशों के लिए बड़ी चुनौती था। अगर अमेरिका अपने साधनों से अधिक का उपभोग कर रहा था और बड़ा कर्जदार बन रहा था तो चीन भारी मात्रा में कारोबार कर चालू खाता अधिशेष जुटा रहा था। उसके यहां निवेश और निर्यात का स्तर स्थायित्व से परे हो चुका था। अगर अमेरिका कम उपभोग करता और कर्ज को सीमित रखता तो चीन को अधिक उपभोग करना पड़ता ताकि संतुलन कायम रह सके।
लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। वास्तव में अमेरिका खर्च करता गया और सुधार के उपाय आगे टालता गया। चीन ने भी 650 अरब डॉलर से अधिक का भारी प्रोत्साहन उपाय अपनाया लेकिन इससे निवेश को और गति मिली जबकि घरेलू खपत को अपेक्ष के मुताबिक प्रोत्साहन नहीं मिल सका। चीन को निवेश और निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था से खपत और घरेलू मांग आधारित अर्थव्यवस्था बनाने की प्रतिबद्घता के बावजूद जमीनी स्तर पर इसमें कोई बदलाव नहीं आया। हालांकि चीन के आंकड़े अविश्वसनीय हैं लेकिन अगर उनका यकीन किया जाए तो अनुमान यह है कि उसकी मौजूदा घरेलू खपत जीडीपी के 36 फीसदी के बराबर है जबकि निवेश 60 फीसदी से ऊपर बना हुआ है।
चीन के आर्थिक विकास में गिरावट आई है और वह सालाना 7 फीसदी तक रह गया है। एक अनुमान के मुताबिक चीन अब उत्पादन में एक डॉलर की बढ़ोतरी के लिए चार डॉलर खर्च कर रहा है। चीन में अत्यधिक निवेश पहले ही वहां के उद्योग और अचलसंपत्ति क्षेत्र पर असर डाल चुका है। फिच की रेटिंग के मुताबिक उसका मौजूदा कर्ज बढ़कर देश के कुल जीडीपी का 200 फीसदी तक जा पहुंचा है। हालांकि आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक चीन के बैंकों की गैर निष्पादित संपत्ति 1.1 फीसदी के सहज स्तर पर बनी हुई है। लेकिन यह सही तस्वीर नहीं दिखाता है क्योंकि सरकारी बैंक अक्सर बड़ी सरकारी कंपनियों और स्थानीय सरकारी निकायों के कर्ज माफ करते हैं। इसके अलावा इसमें अनौपचारिक बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र को भी शामिल नहीं किया जाता है जो हकीकत में औपचारिक बैंकिंग क्षेत्र जैसा आकार ले चुका है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक इस अनौपचारिक क्षेत्र की गैर निष्पादित परिसंपत्तियां उनकी कुल परिसंपत्तियों के 70 फीसदी के बराबर हो सकती हैं। अगर किसी गड़बड़ी की स्थिति में उसे राहत की आवश्यकता हुई तो चीन को 1990 के दशक के मध्य से भी अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। उस वक्त चीन के चार सरकारी बैंकों को 14 हजार करोड़ युआन से अधिक के फंसे हुए कर्ज वाले चार बड़े बैंकों का अधिग्रहण करना पड़ा था। फिच के मुताबिक चीन की बैंकिंग व्यवस्था की परिसंपत्तियों में वर्ष 2008 से 2013 के बीच 140 हजार करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी हुई। यह राशि अमेरिका की पूरी बैंकिंग व्यवस्था की कुल परिसंपत्तियों के बराबर है। हालांकि ऐसे आंकड़ों को लेकर अनिश्चितता है लेकिन यह स्पष्टï है कि चीन सरकार का अर्थव्यवस्था
स्पष्टï है कि चीन बैंक कर्जों की माफी के जरिये अपनी आसन्न त्रासदी को टाल रहा है। लेकिन इससे समस्याओं में केवल इजाफा ही हो रहा है कोई हल नहीं निकल रहा। मंगोलिया के अंदरूनी इलाके में ओर्दोस शहर शहरी क्षेत्र में व्याप्त गड़बडिय़ों का एक उदाहरण पेश करता है। उस शहर पर 300 अरब युआन का कर्ज है जबकि उसकी सालाना आमदनी बमुश्किल 80 अरब युआन है। चीन के लोग उसे चीन का डेट्रॉयट कह कर पुकारते हैं। उल्लेखनीय है कि वाहन उद्योग के लिए मशहूर अमेरिकी शहर डेट्रॉयट ने हाल ही में खुद को दिवालिया घोषित कर दिया था।
संभव है कि चीन संभावित दिक्कतों से बच जाए और समुचित राजकोषीय और मौद्रिक नीतियां अपनाकर पुनर्संतुलन हासिल करने में कामयाब रहे। लेकिन अगर वह ऐसा कर भी लेता है तो भी उसके जीडीपी विकास में आने वाली महत्त्वपूर्ण गिरावट को थामने का कोई उपाय कम से कम ऐसे वक्त में तो नजर नहीं आ रहा है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था विकास के वाहक की उसकी भूमिका पर अत्यधिक निर्भर हो गई है। दुनिया की सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं इस वक्त आपस में इस कदर जुड़ गई हैं कि बिना आपसी तालमेल और समन्वय के वे आगे कदम नहीं बढ़ा सकतीं। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी एकतरफा कार्रवाई उतनी ही नाकाम साबित होगी जितनी कि हमें राजनीतिक और सुरक्षा क्षेत्र में देखने को मिल चुकी है।
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