चुनावों के पहले ही आखिर क्यों टूटता है रुपया! | मालिनी भुप्ता और विशाल छाबडिय़ा / नई दिल्ली September 09, 2013 | | | | |
आम तौर पर किसी प्रक्रिया या घटना के पीछे साजिश होने की संभावना तलाशना अच्छा लगता है खासकर जब बात इक्विटी बाजार की हो तो यह संभावना बहुत ज्यादा हो जाती है। रुपये में आई हालिया गिरावट ने कई तरह की अटकलों को जन्म दिया है। इन्हीं में से एक अनुमान यह बताता है कि सामान्य तौर पर रुपये में तभी गिरावट आती है जब चुनाव नजदीक होते हैं।
केआर चौकसी सिक्योरिटीज के प्रबंध निदेशक देवेन चौकसी का मानना है कि रुपये में गिरावट का संबंध बहुत अधिक हद तक वैश्विक और भारत के आर्थिक हालात से है। चौकसी ने कहा, 'चुनाव लडऩे के लिए उन्हें पैसो की आवश्यकता होगी। अटकल यह है कि चुनावों के पहले अगर अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी आती है तो कमजोर रुपये से उन लोगों को फायदा होगा जो यह पैसा ला रहे हैं।Ó हालांकि रुपये को राजनीति वर्ग द्वारा कमजोर करने की साजिश 1991 के पहले संभव थी (जब विनिमय दरों को एक्सचेंज द्वारा तय किया जाता था) लेकिन अर्थशास्त्रियों के मुताबिक मौजूदा समय के दौरान ऐसा करना मुश्किल कार्य है।
हालांकि इस अफवाह को तथ्यों से समर्थन भी मिल रहा है। 1989 तक चुनावों से पहले सात में से छह मौके ऐसे आये रुपये में गिरावट दर्ज की गई। केवल वर्ष 2004 में जब भाजपा आधारित एनडीए गठबंधन सत्ता में था तब रुपये टूटने के बदले मजबूत ही हुआ। हालांकि मुद्रा विश्लेषकों का कहना है कि वर्ष 2000 में डॉटकॉम गुब्बारा फूटने और वर्ष 2011 में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला होने के बाद रुपया टूटा था। जबकि चुनावों से 6,9 और 12 महीने पहले तक सेंसेक्स ने कई मौके पर बेहतर फायदा दिया और इसमें मजबूती दर्ज की गई।
आंकड़े दिलचस्प है और अधिकांश अर्थशास्त्री और बाजार विशेषज्ञ इस बात से इनकार करते हैं कि चुनावों के पहले रुपये की कमजोरी में राजनेताओं का हाथ होता है। तो सवाल उठता है कि इसे आखिर कैसे समझा जाये? विदेशी ब्रोकरेज कंपनी के एक विश्लेषक ने कहा कि भले ही यह सिद्घांत (षडयंत्र सिद्घांत) चौंकाने वाली लगती हो लेकिन भारत को हमेशा ही अपनी चुनौतियों से जूझना पड़ा है। वैश्विक निवेशकों के लिए राजनीतिक स्थिरता हमेशा ही बड़ी चुनौती रहा है। 2000 के बाद से विदेशी निवेश में इजाफा हुआ है और इस वजह से भारतीय शासन प्रणाली में विश्वास में मजबूती आई है।
कोटक महिंद्रा के मुख्य अर्थशास्त्री इंद्रनील पान ने कहा, 'किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिलने की संभावना निवेशकों को आशंकित कर रही है और इससे रुपये पर दबाव पड़ सकता है। सत्ता में होने वाले बदलाव की उम्मीदों को भांपते हुए निवेशक ज्यादा सतर्कता बरत सकते हैं। इस समय हम कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं जिसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।Ó
मोतीलाल ओसवाल सिक्योरिटीज के सीएमडी मोतीलाल ओसवाल को चुनाव और मुद्रा की कमजोरी में कोई संबंध नहीं दिखाई देता है। उन्होंने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि चुनावों और रुपये की कमजोरी में किसी प्रकार का संबंध है। इसका बहुत अधिक संबंध इस बात से है कि चुनावों को लेकर अनिश्चितता की स्थिति है और मौजूदा नीतियों को पलटे जाने की आशंका से असर हो रहा है। साथ ही जन कल्याणकारी योजनाओं आदि में भारी पैमाने पर रकम खर्च किये जाने की आशंका निवेशकों को डरा रही है।Ó मैक्वायरी कैपिटल के राकेश अरोड़ा ने कहा कि पिछले दशक के दौरान भारत विदेशी निवेश में सार्थक तौर पर इजाफा हुआ है। हालांकि जब 1991 में भारत ने उदारीकरण की शुरुआत की तब मुद्रा आंशिक तौर पर ही परिवर्तित हुआ और इसका मतलब यह हुआ कि सरकार एकसीमा के बाद ही विनिमय दरों में हस्तक्षेप कर सकती है।
|