बड़ी संख्या में विदेशी कंपनियां भारत में यहां की किसी कंपनी के सहयोग से परियोजनाओं पर काम कर रही है। इस उद्देश्य के लिए ये कंपनियां उनके साथ संयुक्त उद्यम या समूह समझौता करती हैं।
अभी तक भारत के आयकर कानून की जिस तरह व्याख्या की गई है, उसके अनुसार यदि संयुक्त उद्यम या समूह समझौते में सदस्य कंपनियों के काम का दायरा स्पष्ट रुप से परिभाषित हो और हर सदस्य को किए जाने वाले भुगतान का स्पष्ट उल्लेख हो तथा हरेक सदस्य को इनवॉयस पर सीधे भुगतान किया जा रहा हो तो हरेक सदस्य की आयकर देनदारियां अलग अलग और वैयक्तिक रुप से निर्धारित की जाएगी।
हालांकि हाल के जियोकंसल्ट जेडटी जीएमबीएच मामले में अथॉरिटी ऑफ एडवांस रूलिंग (एएआर) ने 31 जुलाई, 2008 को एक व्यवस्था दी है। उससे इस तरह के समझौतों की कानूनी व्याख्या बिल्कुल बदल जाएगी। ऑस्ट्रिया की एक कंपनी ने हिमाचल प्रदेश में दो भारतीय कंपनियों के साथ समूह समझौते के तहत एचपीआरआईडीसी को कंसल्टेंसी प्रदान की।
ऑस्ट्रिया की यह कंपनी हर प्रकार की सेवाएं ऑस्ट्रिया से ही उपलब्ध कराती थी। इसका न तो भारत में कोई कार्यालय था और न ही व्यापार करने के लिए कोई नियत कार्य स्थल। यह भारत में भी कोई महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों में भी संलग्न नहीं थी। उसके कर्मचारियों को भारत में लंबे समय तक भी नियुक्त नहीं किया गया था।
इस कंपनी का भारत में कोई स्थायी ठिकाना (पीई) नही था। इसलिए डीटीएए के अनुच्छेद 12 के अनुसार इस संयुक्त उद्यम को 10 प्रतिशत की दर से कर देने का प्रावधान बनता था। यह कर उसके तकनीकी सेवाएं प्रदान करने के तौर पर ली जाने वाली फीस (एफटीएस) पर आरोपित किया जाना था। इस बाबत एएआर के सामने मामला आया।
इसमें विभाग ने अपना विचार देते हुए कहा कि आवेदक ने भारत में अपना स्थायी ठिकाना भी स्थापित किया है और इसलिए इस संयुक्त उद्यम का कार्यालय भी भारत में है। इस विदेशी कंपनी के द्वारा भारत में परियोजना के काम हेतु कुछ भारतीय कर्मचारियों को भी काम पर लगाया गया है। इसलिए ऑस्ट्रिया की इस कंपनी के द्वारा बतौर फी जो राशि ली जा रही है, वह भारत में कर के दायरे में आती है।
डीटीएए के अनुच्छेद 7 में यह उल्लिखित है कि इन तरह की गतिविधियों के लिए राशि पर हो रहे लाभ या हानि पर भारत में कर अदा करना होगा। इसके बाद इसमें यह भी कहा गया कि संयुक्त उद्यम को व्यक्तियों का संगठन (एओपी) के तौर पर माना जाना चाहिए।
एएआर ने अंतत: इस बात का अवलोकन किया कि इस संयुक्त उद्यम से जुड़े हुए जो समझौते किए गए और जिस प्रकार की भूमिका इसमें देखी गई, उससे यह जाहिर होता है कि व्यक्तियों के संगठन का सिद्धांत यहां काम करता है और अगर कानूनी या साधारण तरीके से देखा जाए, तो ये सारी बातें कानूनी और साधारण परख की कसौटी से भी पूरी तरह समझ में आ जाती है।
आम उद्देश्य और आम कार्यप्रणाली आय और लाभ का रास्ता बनाती हैं और इस प्रकार के समझौते को बड़े पैमाने पर एक आकार देते हैं। इस तरह से यह बात स्पष्ट होती है कि इस प्रकार केसंयुक्त उद्यम के लिए 41 प्रतिशत की दर से कुल कर अदा किया जाना चाहिए।
अगर संयुक्त उद्यम में एओपी से बचना हो, तो कुछ बिंदुओं पर गौर करना काफी लाभदायक होगा। संयुक्त उद्यम के तहत जो भी सदस्य कंपनियां भाग ले रही है, उसके बीच डयूटी का बंटवारा सही तरीके से किया जाना चाहिए। संयुक्त उद्यम के जो भी सदस्य है, वे सामूहिक तौर पर किसी भी परियोजना के पूरा होने या उसके क्रियान्वयन के लिए पूरी तरह से जिम्मेवार और बाध्य नहीं है।
अपने कार्यक्षेत्र के मुताबिक हर सदस्य को संबंद्ध क्लाइंट से अलग-अलग बातचीत और समझौता करना चाहिए। संयुक्त उद्यम का प्रबंधन एक नहीं होना चाहिए। उद्यम के दूसरे सदस्यों द्वारा जो भी काम किए जा रहे हैं, पहले सदस्य को उन कामों की तकनीकियों तक पहुंच बनाने से रोका जाना चाहिए। किसी तरह के खर्च का ब्योरा संयुक्त रूप से पेश नहीं किया जाना चाहिए।
हर सदस्य अपने क्लाइंट को अलग अलग तरीके से खर्च का हिसाब दें, ताकि कुल आमदनी या सहमतिपूर्ण हिस्से में किसी प्रकार के बंटवारे की बात न आने पाए। इसलिए यह काफी अहम हो गया है कि समूह समझौते और संयुक्त उद्यम से जुड़े समझौते को क्रियान्वित करते समय और इसका प्रारूप बनाते समय काफी सजग रहा जाए ताकि एओपी के गठन की संभावना खत्म की जा सके।