विश्व बैंक ने अपने एक आंकड़े में बताया था कि 2005 में कुल भारतीय आबादी का 24 फीसदी हिस्सा प्रतिदिन औसतन 13.14 रुपये या उससे कम पर गुजर बसर कर रहा है।
आगे उसने कहा कि देश की 18 फीसदी आबादी ऐसी है जो प्रतिदिन औसतन 16.49 रुपये या उससे भी कम पर जी रही है। अगर आप हिसाब लगाएं तो साल 2005 में भारत की आबादी 1.1 अरब थी, तो क्या इसका मतलब यह है कि भारत की 42 फीसदी आबादी (यानी करीब 46 करोड़ लोग) महज 2.5 करोड़ रुपये या उससे कम खर्च कर जी रही है।
साल 2005 में कुल घरेलू खर्च का यह महज दसवां हिस्सा ही है (जीडीपी का 60 से 65 फीसदी हिस्सा)। यह आंकड़ा अपने आप में काफी परेशान करने वाला है कि कुल घरेलू खर्च में देश की 42 फीसदी आबादी का योगदान महज 10 फीसदी ही है। पर विश्व बैंक सीधे सीधे यह बात नहीं कहता।
विश्व बैंक का विश्व विकास सूचकांक बताता है कि कुल घरेलू खपत में देश की आबादी के निचले 40 फीसदी हिस्से का योगदान केवल 19 फीसदी ही है। यह आंकड़ा उस संख्या का दोगुना है जो विश्व बैंक ने हाल ही में देश के गरीबी के आंकड़े में बताया है।
सच्चाई यह है कि शायद ही कोई ऐसी अर्थव्यवस्था होगी जहां की 40 फीसदी गरीब आबादी की कुल घरेलू आय में भागीदारी महज 10 फीसदी की होगी। केवल ब्राजील ऐसा देश है जहां यह आंकड़ा 9.2 फीसदी का है, पर यह याद रखना भी जरूरी है कि ब्राजील में अमीरों और गरीबों के बीच जितनी खाई है, वह भारत में नहीं है। यहां तक कि चीन और भारत में भी यह असमानता भारत से अधिक है।
इन देशों में भी निचले 40 फीसदी आबादी का योगदान कुल खपत का 12.8 और 16.1 फीसदी है। तो अगर यह कहें कि भारत के निचले स्तर के 40 फीसदी हिस्से के हाथों महज दसवां हिस्सा ही आता है तो यह सही नहीं होगा।
अगर मैं जिस हिसाब से गणना कर रहा हूं वह पूरी तरह से गलत नहीं है तो इसका मतलब है कि हमें विश्व बैंक के इस ताजा आंकड़े पर बिल्कुल विश्वास नहीं करना चाहिए कि देश की 42 फीसदी आबादी 1.25 डॉलर प्रतिदिन (क्रय क्षमता के आधार पर अनुमानित) से कम पर जी रही है।
अगर इस आंकड़े को सच भी मान लें कि कुल घरेलू खपत में निचले स्तर की 20 फीसदी आबादी का योगदान 8 फीसदी ही है तो भी उनकी औसत आय प्रतिदिन 1.25 डॉलर से अधिक है। और अगर ऐसा है तो 1.25 डॉलर प्रतिदिन के खर्च पर जीने वाली कुल आबादी 20 फीसदी से भी कम होगी।
एक ऐसा संस्थान जिसे विभिन्न देशों के बीच तुलना करने में महारत हासिल हो वह इस कदर गलत आंकड़े दे सकता है, इस पर शायद किसी को विश्वास नहीं होगा। हालांकि सुरजीत भल्ला लगातार इस अखबार में लिखते आए हैं कि विश्व बैंक के आंकड़ों में सच्चाई नहीं है।
उनका कहना है कि विश्व बैंक का काम ही गरीबी को खत्म करना है तो इसके लिए उन्हें दुनिया को बताना जरूरी है कि दुनिया में अब भी काफी गरीबी है। पर यह भी बिल्कुल सही तर्क नहीं हो सकता क्योंकि अगर गरीबी के आंकड़े बताए गए आंकड़े से काफी कम भी हो तो भी विश्व बैंक के पास करने को काफी कुछ होगा।