निराशा के काले बादलों के बीच उम्मीद की किरण | श्याम सरन / August 14, 2013 | | | | |
किसी देश के लिए अपनी गलतियों पर विचार करने और नई राह तलाशने के लिए उस दिन से बेहतर दूसरा कोई दिन नहीं हो सकता जिस दिन उसे आजादी हासिल हुई हो। विकास के मोर्चे पर छाए अंधियारे में रोशनी तलाश रहे हैं श्याम सरन
आज जब देश अपना 67वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, तो हवाओं में एक तरह की निराशा घुली हुई है। यह निराशा इस भावना से उपजी है कि दो दशक पहले देश ने विकास के पथ पर यात्रा की जो ठोस शुरुआत की थी वह धुंधले भविष्य के मार्ग पर आकर ठिठकती प्रतीत हो रही है। ऐसा लग रहा है कि भाारत के जिस चमकदार विकास की बात होती थी वह चमक फीकी पड़ रही है।
एक समय ऐसा लग रहा था मानो भारत की नवीनता और उसकी विविधता ने दुनिया केा स्तंभित कर दिया है। वह दौर था जब दुनिया भर के नेताओं का भारत आना एक तरह से अपरिहार्य माना जाता था। लेकिन आज देश के भविष्य को लेकर निराशा का माहौल है सत्ता प्रतिष्ठïान द्वारा एक बाद दूसरा आत्मघाती गोल करते चले जाने के कारण अविश्वास का माहौल बन गया है। इन बातों ने न केवल अपने यहां बल्कि विदेशों में भी देश की विश्वसनीयता को दांव पर लगा दिया है। सरकार केवल उदासीन ही नहीं नजर आ रही है बल्कि उसके कदमों में विसंगति और विरोधाभास भी देखने को मिल रहे हैं।
विभिन्न देशों की राजधानियों में भारत को निवेशकों का स्वर्ग बताने की कवायदें हुईं जबकि यहां अपने ही देश में देसी उद्योगपति तक आर्थिक संभावनाओं को लेकर सारी उम्मीदें छोड़ चुके हैं। ऐसे में यह सवाल तो किसी के भी दिलोदिमाग में उठेगा कि जब खुद आपके उद्यमी ही निवेश को लेकर इच्छुक नहीं हैं तो फिर विदेशी निवेशक यहां निवेश करने का जोखिम भला क्यों उठाएंगे?
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को लेकर जो बंदनवार लगाए जा रहे हैं उनमें भी एक किस्म का विरोधाभास देखने को मिल रहा है। क्योंकि इसकी वजह से उन लोगों को हताशा हो रही है जो तयशुदा निवेश के जरिये भारत में लंबी अवधि का दांव खेलने की मंशा रखते हैं। बाद वाली श्रेणी में वह संपत्ति आती है जो देश में बनी रहेगी और जिसकी बदौलत उसकी उत्पादकता में भी इजाफा होगा। जबकि पोर्टफोलियो निवेश की प्रकृति अस्थिर है और वह बाजार की अस्थिरता और अनिश्चितता को देखते हुए झट से बाहर निकल सकती है।
इस व्यवहार की व्याख्या कैसे की जाए? मुझे लगता है कि प्रशासनिक मसलों, नीतिगत चयन की नाकामियों और लगातार बढ़ते भ्रष्टïाचार तथा जवाबदेही की निरंतर कमी होने के बावजूद देश का सत्ताधारी वर्ग यह मानकर चल रहा था कि देश के आर्थिक उभार पर इन सारी बातों का कोई असर नहीं होगा।
उनका मानना है कि विदेशी कारोबारी भारत जैसे बड़े बाजार की अनदेखी नहीं करेंगे चाहे इसकी राह में उनको जितनी दिक्कतों का सामना करना पड़े। घरेलू और विदेशी दोनों तरह के कारोबारियों के पास विकल्प मौजूद हैं लेकिन सत्ता प्रतिष्ठïान इसकी अनदेखी कर रहा है। तथाकथित जननांकीय लाभ का जिक्र इस तरह किया जा रहा है मानो उसकी वजह से हमें विकास संबंधी तमाम बाधाओं से खुदबखुद निजात मिल जाएगी। इस पर विचार ही नहीं किया जा रहा है कि उस जननांकीय लाभ को हासिल करने के लिए जिस शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल की आवश्यकता है वह कहां से आएगा।
वर्ष 2009 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को दूसरे कार्यकाल का जनादेश मिला था, तब उसके पास यह दुर्लभ अवसर था कि वह दूसरे दौर के सुधारों को आगे बढ़ाए और देश के लोगों को सशक्त बनाकर युवा और आकांक्षी आबादी को नए अवसरों से लैस करे। यह सब करके स्थानीय मांग पर आधारित एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाई जा सकती थी जो अंतरराष्टï्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम करने के साथ-साथ विविधतापूर्ण उद्यमी वर्ग को जन्म देती और एक नवाचारी समाज तैयार करती। हमारा देश हमेशा से राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक नवाचारों के लिए एक जीवंत प्रयोगशाला रहा है। हर चुनौती का जवाब कहीं न कहीं से मिल ही जाता है। बस इसके लिए जरूरत इस बात की है कि देश का नेतृत्व और प्रशासनिक अमला चुनौतियां लेने के लिए तैयार हो। लेकिन इसके बावजूद संप्रग सरकार ने अवसरों को तेजी से गंवा दिया और आम जनता की उम्मीदों पर भी खरी नहीं उतर सकी। ऐसे में सवाल यह है कि देश के भविष्य के आकाश पर छा रहे काले बादलों के बीच उम्मीद की सुनहरी किरण कहां से आएगी?
पहली बात, चुनाव करीब हैं और उनके जरिये राजनीतिक बदलाव होने की उम्मीद है। लोकतंत्र ने देश के लोगों को तगड़ा हथियार दिया है जिसकी मदद से बदलाव ला सकते हैं और अपनी उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं। पिछले चुनाव के बाद से अब तक देश की आबादी में युवाओं की संख्या बढ़ी है और वह राजनीतिक रूप से अधिक सचेत भी हुई है। युवा भारतीय मतदाता आने वाले चुनावों में पहले के किसी भी चुनाव की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
दूसरी बात, देश में जो भी सुधार अपनाए गए हैं वे प्राय: संकट सामने आने के बाद ही अपनाए गए हैं। यदि देश और अधिक गहरे आर्थिक और वित्तीय संकट में फंसता है तो उसके नेतृत्व को अच्छे खासे सुधार अपनाने पड़ सकते हैं। ठीक पीवी नरसिंहराव की तर्ज पर जिन्होंने 1991 के चुनाव के बाद आर्थिक सुधारों की बुनियाद रखी थी। कोई भी संकट की आकांक्षा नहीं रखता लेकिन अगर वह आता है तो यकीनन लंबी अवधि के बड़े सुधारों की वजह बनेगा।
तीसरी बात, देश के कई राज्य अधिक ताकतवर बन गए हैं और कुछ ने ऐसे नेता दिए हैं जो नए भारत से अधिक तालमेल बिठाने में सक्षम हैं। सफल प्रशासन के कई उदाहरण मौजूद हैं जो देश में सत्ता प्रतिष्ठïान को प्रभावित कर सकते हैं। देश के कई राज्य विकास के मोर्चे पर अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहे हैं।
चौथी बात, अंतरराष्टï्रीय स्तर पर हालात भारत की प्रगति के अनुकूल बने हुए हैं। चीन के तेज विकास और उसके आक्रामक व्यवहार के चलते कई ऐसे देश हैं जो भारत को सफल होते देखना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उसकी क्षमताओं का विकास हो तथा वह क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर उभरे। भारत इन बातों का फायदा उठाकर नजदीकी अन्य बड़े देशों के साथ मजबूत आर्थिक और सामरिक साझेदारियां कर सकता है, उनसे पूंजी और तकनीकी सहायता लेकर सामाजिक विकास के काम को आगे बढ़ा सकता है। हमें ध्यान रखना होगा कि क्षेत्रीय और वैश्विक माहौल बदलने पर हम यह लाभ गंवा सकते हैं।
उम्मीद की किरण चाहे जितनी पतली हो, वह यह तो बताती ही है कि बादलों की ओट में चमकदार सूरज छिपा हुआ है। लेकिन उस सूरज की रोशनी को देश की आबादी तक पहुंचाने के लिए निर्णायक राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत है। हमें भविष्य की अपनी राह खुद बनानी है हम उन देशों के पदचिह्नïों पर नहीं चलते रह सकते जो आगे निकल गए। प्रगति की राह भी नजर आ रही है और राह दिखाने वाले संकेत चिह्नï भी। आजादी की इस वर्षगांठ पर आए उस भविष्य की ओर सफर आगे बढ़ाएं जिसके हम हकदार हैं।
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