कृषि क्षेत्र के तकनीकी नवाचार को मिला बाजार | खेती-बाड़ी | | सुरिंदर सूद / July 30, 2013 | | | | |
काफी समय पहले तक सरकार की वित्तीय मदद से चल रहे कृषि अनुसंधान संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों में विकसित हुई तकनीक का इस्तेमाल किसान ही मुफ्त में किया करते थे और इन अनुसंधान केंद्रों में विकसित हुई तकनीक के व्यावसायिक इस्तेमाल की अनुमति नहीं थी। नतीजतन कई उपयोगी अनुसंधान, जिन्हें किसानों व अन्य उपभोक्ताओं के इस्तेमाल योग्य बनाने के लिए औद्योगिक मदद की जरूरत थी, प्रयोगशालाओं और अनुसंधान पत्रिकाओं तक ही सीमित होकर रह गए।
हालांकि तब से लेकर अब तक इस सोच में काफी बदलाव आया है और इसकी वजह है यह समझ जाना कि आधुनिक महंगी तकनीकों का व्यवसायीकरण करना बेहद जरूरी है, जिससे उत्पादन बढ़ाने और कृषि व उससे संबंधित क्षेत्रों में इनका सार्थक इस्तेमाल किया जा सके। इसके बाद कृषि अनुसंधान संस्थानों ने उन संभावित निवेशकों से बातचीत करनी शुरू कर दी है, जो उनकी तकनीक के आधार पर कारोबार करना चाहते हों। इससे इस अनुसंधान शृंखला में शामिल आगे और पीछे वाले सभी पक्षों को फायदा होगा।
तकनीक विकसित करने वालों को उनके अनुसंधान कार्य के लिए राजकोषीय और राजस्व लाभ मिलता है, उद्यमियों को आकर्षक कारोबारी संभावनाएं मिलती हैं और किसानों व अन्य उपभोक्ताओं को तकनीक के इस्तेमाल से उत्पादन बढ़ाने, लागत घटाने और ज्यादा प्रतिफल हासिल करने में मदद मिलती है।
पिछले हफ्ते दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की राष्टï्रीय कृषि नवप्रवर्तन योजना के तहत आयोजित 'एग्री-टेक इन्वेस्टर्स मीट 2013Ó में वाणिज्यिक मार्ग के जरिये तकनीकी प्रसार के नए ढंग का प्रदर्शन किया गया। अपनी तरह के पहले कदम के जरिये वाणिज्यिक इस्तेमाल के लिए तैयार तकनीक के खोजकर्ताओं को संभावित उद्यमियों के प्रत्यक्ष संपर्क में लाया गया। हालांकि इस सम्मेलन से पहले अच्छी खासी तैयारी की गई, जिसके बाद करीब 60 ऐसी तकनीकों का चयन किया गया, जिनका प्रदर्शन इस सम्मेलन में किया जा सके और उनमें संभावित निवेशकों को लुभाने का माद्दा हो। इन तकनीकों का प्रदर्शन ऐसे संभावित उद्यमियों के समक्ष किया गया, जो व्यापक इस्तेमाल के लिए नए उत्पादों के उन्नयन और वाणिज्यिक उत्पादन कर सकें।
इस आयोजन को उद्यमियों से काफी अच्छी प्रतिक्रिया मिली। छोटी-बड़ी करीब 80 कंपनियों, जिनमें कई स्टार्ट अप भी शमिल थी, ने तकनीकी डेवलपरों के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत उद्यमियों को इन तकनीकों के वाणिज्यिक इस्तेमाल का लाइसेंस प्रदान किया जाएगा। दिलचस्प है कि इनमें से ज्यादा तकनीकों को पेटेंट मिल चुका है और कुछ पेटेंट प्राप्ति का इंतजार कर रही हैं। राष्टï्रीय कृषि नवप्रवर्तन परियोजना के राष्टï्रीय समन्वयक पी एस पांडेय कहते हैं, 'सम्मेलन समाप्त होने के बावजूद अभी तक हमारे पास उभरते हुए उद्यमियों की ओर से विभिन्न तकनीकों के लाइसेंस की मांग आ रही है।Ó
तकनीक विकसित करने वालों को उम्मीद है कि लाइसेंस शुल्क, रॉयल्टी और अन्य शुल्क को मिलाकर उन्हें करीब 4.8 करोड़ रुपये मिलेंगे। इस रकम को तकनीक विकसित करने वाले (वैज्ञानिकों), अनुसंधान केंद्रों (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद संस्थानों व राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बीच साझा किया जाएगा।
उल्लेखनीय है कि हाल में हुए रोड शो के साथ ही यह पहल भी समाप्त होती नहीं दिख रही है। भविष्य में वाणिज्यिक रास्तों के जरिये प्रयोगशालाओं से खेतों तक नई तकनीक का प्रवाह सुनिश्चित करने की खातिर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नियमित तौर पर ऐसे आयोजन कराने की योजना बना रही है। इसके अलावा देश के विभिन्न हिस्सों में करीब 22 कारोबारी योजना एवं विकास (बीपीडी) इकाइयों का भी गठन किया गया है, जो कृषि आधारित कंपनियों और अन्य कारोबारी घरानों के साथ काम करेंगी। यही नहीं ये इकाइयां कंपनियों व कारोबारी घरानों और तकनीक विकसित करने वालों के बीच कड़ी का काम भी करेंगी।
इन कारोबार संवद्र्घन इकाइयों में काम करने वाले कर्मचारियों में कम से कम एक योग्य कारोबारी विकास पेशेवर है, जिसने प्रतिष्ठिïत प्रबंधन संस्थान से पढ़ाई की है। इस सम्मेलन से पहले केंद्र सरकार और विश्व बैंक के सहयोग से 2006 में भारतीय कृषि नवप्रवर्तन परियोजना शुरू होने के बाद से महज 70 के करीब तकनीक ही निजी उद्यमियों को बेची गई थी।
इस कृषि-तकनीक सम्मेलन से दो महत्त्वपूर्ण बातें सामने आई हैं। पहली, भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्रों में अब न सिर्फ ज्यादा उत्पादन वाली किस्में विकसित की जा रही हैं बल्कि बायोटेक्नोलॉजी और नैनोटेक्नोलॉजी जैसी अत्याधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से नए उत्पाद और प्रक्रियाएं भी विकसित की जा रही हैं।
दूसरी, कृषि-औद्योगिक अब ऐसी उत्कृष्टï तकनीकों का वाणिज्यिक स्तर पर इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं। कपास के रोए (ओटाई के बाद कपास के बीज से चिपके रहने वाले पतले और रेशमी धागे) से 'नैनो सेल्युलोजÓ और लागत बचाने व बेहतर उत्पादन सुनिश्चित करने की खातिर पौधों तक पोषक तत्त्वों को पहुंचाने में मदद करने वाले'नैनो उर्वरकÓ जैसी तकनीक के लिए हुए कई समझौता ज्ञापन इसी बात की पुष्टिï करते हैं।
इसके अलावा मवेशियों के लिए टीकों के उत्पादन के लिए तकनीक, चारे के मिश्रण और दूध में डिटर्जेंट जैसे हानिकारक तत्त्वों की मिलावट का आसानी से पता लगाने की किट की तकनीक के लिए भी काफी खरीदार हैं। खाद्य तकनीक, बागवानी, पशु चिकित्सा, कृषि -इंजीनियरिंग, कृषि-लागत, मछली पालन, टेक्सटाइल्स, बायोटेक्नोलॉजी, फार्मा और अन्य क्षेत्रों में भी मांग है। इसे कृषि उद्योगों और खेती व उससे जुड़े क्षेत्रों में कार्यरत लोगों में नई तकनीक की बढ़ती मांग के मद्देनजर एक स्वागतयोग्य कदम के तौर पर देखा जा सकता है।
|