शोध और विकास के लिए जरूरी हैं और घरेलू प्रयास | नितिन देसाई / July 18, 2013 | | | | |
अगर भारतीय कंपनियों ने घरेलू स्तर पर शोध एवं विकास पर तत्काल ध्यान देना आरंभ नहीं किया तो उनका अंत होने में बहुत देर नहीं लगेगी। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं नितिन देसाई
उच्च विकास सुनिश्चित करने के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं: बाहरी मोर्चे पर निरंतर खुलापन ताकि हम संरक्षणवादी दीवारों के पीछे ठिठके न रह जाएं, घरेलू स्तर पर प्रतिस्पर्धी माहौल को बढ़ावा देना ताकि सफल कंपनियां, पिछड़ी कंपनियों से आगे निकल सकें और तकनीकी स्तर पर उन्नति।
तकनीक वाला कारक संभवत: सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है क्योंकि अन्य दोनों कारक इसमें निहित हैं। बाहरी मोर्चे पर खुलापन बरकरार रखने के लिए उत्पादकता में सुधार और नवाचार दोनों की आवश्यकता होती है। यह सीधे तौर पर तकनीक से ताल्लुक रखता है। वहीं, प्रतिस्पर्धी माहौल बनाए रखने के लिए भी यह आवश्यक है क्योंकि विभिन्न कंपनियों को बाजार में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए तथा पूंजी बाजार में पहुंच बनाए रखने के लिए तकनीकी क्षमताओं की आवश्यकता होती है।
रिवर्स इंजीनियरिंग, लागत कटौती तथा प्रभावी परियोजना क्रियान्वयन के मामले में भारतीय उद्योग जगत का प्रदर्शन अच्छा रहा है। लेकिन जैसे ही हम वर्ष 2050 की ओर नजर डालते हैं, ऐसा लगता है कि यह मौजूदा से 20-30 गुना बड़े औद्योगिक क्षेत्र के लिए जो अपने वक्त में दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में से एक होगा, पर्याप्त नहीं होगा। इतना ही नहीं, वैश्विक बाजारों में इसकी मौजूदगी के लिए ऐसे नवाचार की आवश्यकता होगी जो लागत कटौती से परे हो। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारतीय बाजारों को स्थानीय स्तर पर प्रासांगिक उत्पादों, प्रक्रियाओं और कारोबारी मॉडलों की आवश्यकता होगी।
नवाचार किसी भी संस्था को तेजी से आगे बढऩे का अवसर देता है और इस तरह उसे देश और विदेश में नये बाजार तैयार करने का भी। हम जापान के उच्च विकास वाले दौर में इलेक्ट्रॉनिक उपभोक्ता वस्तुओं और ईंधन के लिहाज से किफायती कारों के मामले में ऐसा होते देख चुके हैं। बड़े नवाचार व्यापक अर्थव्यवस्था को गहरे तक प्रभावित कर सकते हैं। इसका एक शानदार उदाहरण है इंटरनेट के क्षेत्र में किया गया नवाचार जिसने लाखों की संख्या में नए रोजगार सृजित किए। शुरुआत में ये रोजगार अमेरिका में सामने आए, उसके बाद इनका प्रसार पूरे विश्व में हो गया। वहीं तेज गति से होने वाला उत्पादन भी समेकित विकास को सकारात्मक ढंग से प्रभावित कर सकता है।
बड़ा सवाल यह है कि अनुकरण आधारित उद्योगों से नवाचारी उद्योग तक की दूरी किस तरह तय की जाए। इस वक्त हम देश के जीडीपी का 0.9 फीसदी हिस्सा शोध और विकास पर खर्च करते हैं। यह खर्च चीन तथा अन्य विकसित देशों के मुकाबले बहुत कम है। स्पष्टï कहा जाए तो शोध एवं विकास पर हमारा खर्च चीन के मुकाबले एक चौथाई है। इस खर्च का दो तिहाई हिस्सा सरकार की ओर से आता है और एक तिहाई निजी क्षेत्र से। अगर दुनिया के 90 फीसदी शोध और विकास कार्य में लगी 1500 कंपनियों पर नजर डाली जाए तो उनमें से केवल 15 ही भारतीय हैं। इनमें भी सबसे ऊंची रैंकिंग वाली कंपनी इन्फोसिस 330वें स्थान पर है। इन 15 कंपनियों में से आधी दवा कंपनियां हैं और केवल दो ही सरकारी कंपनियां हैं।
इसमें बदलाव लाना होगा। सरकार अब जिस तरह की प्रतिबद्घता दिखा रही है, उससे तो यही लगता है कि असल चुनौती शोध एवं विकास के काम में धन कोई समस्या नहीं होगा। असली चुनौती है निजी क्षेत्र की प्रतिबद्घता को बढ़ावा देना। विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति तथा औद्योगिक नीति में निकट रिश्ते कायम करना तथा मानव संसाधन संबंधी समस्याओं को दूर करना।
अनेक विदेशी कंपनियों ने शोध एवं विकास इकाइयां भारत में स्थापित की हैं क्योंकि यहां प्रोत्साहन अधिक है और लागत कम। भारतीय कंपनियों ने भी कुछ समय बाद इसमें रुचि दिखाना आरंभ किया है। उदाहरण के लिए टाटा सन्स ने कोरस का अधिग्रहण किया जिससे उसे 80 पेटेंट अधिकार तथा करीब 1000 शोधकर्ता भी साथ में मिले। लेकिन प्रतिस्पर्धा के स्तर पर बढ़ रहा दबाव शोध एवं विकास में निवेश बढ़ाने के लिए मजबूर करेगा। लेकिन वास्तव में इस प्रक्रिया को नैसर्गिक रूप से आगे बढऩे देने के बजाय हमें खुद इसके लिए कुछ प्रयास करने चाहिए।
निजी क्षेत्र में शोध एवं विकास को बढ़ावा देने के लिए जिस मुख्य उपाय का इस्तेमाल किया जाता है वह है कर संबंधी प्रोत्साहन। तमाम अध्ययनों से यह बात साबित हो चुकी है कि शोध एवं विकास कार्यों के सामाजिक लाभ, उसके निजी लाभों के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं। इस वर्ष जो प्रोत्साहन दिया जा रहा है वह दुनिया में सबसे अधिक उदार प्रोत्साहनों में से एक है। इसके तहत उपकरणों की लागत एवं खर्च पर उस साल के मुनाफे में 200 फीसदी की छूट दी जाती है। इसे और अधिक बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है, हालांकि इसे अधिक प्रत्यक्ष बनाने का लाभ मिल सकता है। उदाहरण के तौर पर प्रोत्साहनों को शोध एवं विकास खर्च में विकास से सीधे जोड़ा जा सकता है। इस सिलसिले में सरकारी खरीद योजना का इस्तेमाल भी किया जा सकता है, खासतौर पर रक्षा खरीद की। इसके लिए रक्षा सेवाओं को यह समझना होगा कि कई बार आयात के लिए तात्कालिक जोखिम का तर्क परे रखकर स्वदेशी रक्षा उद्योग को विकसित किया जा सकता है। दुनिया का कोई भी देश आयात के बल पर मजबूत विश्व शक्ति नहीं बन सकता, लेकिन इसे बढ़ावा देने के लिए काफी कुछ और किए जाने की आवश्यकता है।
नवाचार की संभावना बड़े और छोटे दोनों तरह के उद्यमों में समान रूप से विद्यमान है। हमें तकनीकी रूप से उन्नत वेंचर कैपिटल की आवश्यकता होगी जो उद्यमियों और नए नवाचारकर्मियों को धन राशि मुहैया कराएं ताकि वे अपने कारोबार में उत्पादों, प्रक्रिया और कारोबारी मॉडल के स्तर पर नए प्रयोगों को अंजाम दे सकें। अधिक पकड़ वाला पूंजी बाजार, निजी पूंजीधारी तथा छोटी कंपनियों की कम लागत में सूचीबद्धता इस दिशा में मददगार साबित हो सकती है।
और आखिर में हमें आवश्यकता होगी शोध संबंधित रोजगारों को और अधिक आकर्षक बनाने की ताकि ज्यादा से ज्यादा स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को उससे जोड़ा जा सके। आज तकरीबन 75 फीसदी इंजीनियरिंग छात्र सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में छोटा मोटा काम करने लगते हैं। अगर शोध एवं विकास को समुचित बढ़ावा दिया गया तो इसमें सुधार लाया जा सकता है। लेकिन सरकार के लिए भी यह आवश्यक है कि वह विज्ञान और तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में काम करे। हमारे संस्थानों को भी यह समझना होगा कि अगर उन्होंने घरेलू स्तर पर शोध एवं विकास क्षमताओं को विकसित नहीं किया तो वे पिछड़ जाएंगे।
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