भले ही पिछले कुछ समय से कच्चे तेल की कीमतों में लगी आग थोड़ी ठंडी हुई है पर इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को कोई राहत नहीं मिली है।
अगर अमेरिका की बात करें तो वहां वित्तीय पैकेज में कुछ ऐसे उपाय किए गए थे जिनसे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके। इनमें कर में छूट जैसे कुछ उपाय थे जो हालांकि लंबे समय तक जारी नहीं रह सके क्योंकि ऐसा लगने लगा था कि इनसे अलग हटकर भी कुछ कारण हैं जो अर्थव्यवस्था में तत्काल सुधार की इजाजत नहीं दे रहे।
जब से इन उपायों को वापस लिया गया तभी से हाउसिंग और वित्तीय क्षेत्र में मंदी ने एक बार फिर से अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया और अर्थव्यवस्था में वापस से गिरावट देखी जाने लगी। अगर हालात कुछ बेहतर होते तो अमेरिकी फेडरल रिजर्व ब्याज दरों में कटौती के अपने सिलसिले को जारी रख सकता था ताकि अर्थव्यवस्था की तस्वीर तेजी से बदल पाती।
पर एक तो आर्थिक विकास की धीमी दर और ऊपर से महंगाई के बढ़ते दबाव ने फेडरल के हाथ रोक लिए। वहीं यूरोप में भी जब हालात कुछ ऐसे ही थे तो यूरोपीय केंद्रीय बैंक ने बढ़ती महंगाई के खतरे को देखते हुए ब्याज दरों को घटाने से परहेज किया, भले ही इससे विकास को चोट पहुंची हो।
जापान भी कमोबेश कुछ इसी तरह के पशोपेश में घिरा हुआ है क्योंकि देश पर भी महंगाई का दबाव जारी है और आर्थिक मंदी बनी हुई है। ऐसे में जापानी केंद्रीय बैंक के पास बहुत कुछ कर गुजरने का विकल्प ही नहीं है। इन देशों के लिए एक सबसे बड़ी परेशानी यह है कि जैसे ही तेल की कीमतों में गिरावट आती है, वैसे ही इन बड़े उपभोक्ताओं का हाल और बिगड़ने की आशंका होती है।
ऐसा होता है तो विकास में तेजी की सारी उम्मीदें धरी की धरी रह जाएंगी और मंदी का एक और लंबा अध्याय देखने को मिल सकता है। कुल मिलाकर कहें तो इस साल मंदी का जो खेल देखने को मिला है, साल 2009 में विकास की कहानी इससे जुदा होने की उम्मीद नहीं है।
उभरते बाजारों पर इसका असर अलग अलग पड़ेगा। भले ही चीन और भारत ने 2007 में जो विकास देखा था उसमें गिरावट है, पर बावजूद इसके इन देशों के लिए थोड़ी राहत की बात है कि घरेलू स्तर पर उन्हें कुछ सहयोग मिल रहा है। अब चीनी सरकार मंदी को लेकर फिक्रमंद हो रही है। पिछले कुछ हफ्तों में चीनी मुद्रा कमजोर पड़ी है।
सरकार ने मंदी से निपटने के लिए हाल ही में सार्वजनिक निवेश पैकेज की घोषणा की है। वहीं भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां भी साल 2009 के लिए आर्थिक विकास की संभावनाएं बहुत बेहतर नजर नहीं आती हैं। अगर 7.5 फीसदी की विकास दर हासिल करना भी मुश्किल जान पड़ रहा है तो निश्चित तौर पर यह चिंता का विषय है।
वहीं इसके उलट ब्राजील और रूस इस आर्थिक झंझावात को बेहतर तरीके से झेल रहे हैं। ब्राजील को अब समझ में आ रहा होगा कि अगर उसने जीवाश्म ईंधन से हटकर अपनी रणनीति तैयार की है तो इससे उसे फायदा ही पहुंचा है, जबकि रूस ऐसा देश है जिसने तेल की कीमतों से सबसे अधिक फायदा कमाया है।
सच्चाई है कि इन केंद्रीय बैंकों या फिर यूं कहें कि विभिन्न देशों के वित्त मंत्रियों के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है जिसे घुमाते ही वे मौजूद आर्थिक समस्याओं से छुटकारा पा लेंगे। सुधार की प्रक्रिया से तो देशों को गुजरना ही पड़ेगा भले ही इसमें कितना भी समय क्यों न लगे और यह कितना भी कष्टकर क्यों न हो।