पिछले कुछ सालों के दौरान अर्थव्यवस्था के निचले तबके में जो कारोबारी संभावनाएं हैं, उनके बारे में बात करना एक फैशन सा हो गया है।
अक्सर सेमिनारों में भी इस तबके में जो रोजगार की संभावनाएं हैं उसे लेकर चर्चा चलती ही रहती है। और अगर कोई यह कह दे कि निचले तबके में रोजगार की कुछ खास संभावनाएं नहीं हैं तब तो इतनी हाय तौबा मचाई जाती है जैसे कि किसी ने सीधे सीधे ईश्वर का अपमान कर दिया है।
कारोबार जगत में ऐसा माना जाता है कि कारोबारी प्रबंधकों का यह जिम्मा है कि वे जितना निवेश करते हैं उससे अधिक से अधिक प्रतिफल प्राप्त कर सकें। साथ ही वह अच्छी वापसी का लक्ष्य तय कर अगर वित्तीय और प्रबंधकीय स्त्रोतों का इस्तेमाल कर रहे हैं तो उन्हें कम से कम यह तो सुनिश्चित कर ही लेना चाहिए कि सैद्धांतिक तौर पर उस निवेश पर खासे प्रतिफल की कारोबारी संभावना हो।
अगर सैद्धांतिक रूप में किसी कारोबारी नीति में अच्छे प्रतिफल की संभावना हो तो ही आगे चलकर व्यवहारिक तौर पर बेहतर प्रतिफल प्राप्त किया जा सकता है। आगे बढ़ने से पहले जरूरी है कि हम निचले स्तर पर बाजार की क्या संभावनाएं हैं इनका पता लगा लें। अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो 2009 में कुल 31 लाख करोड़ रुपये के निजी खर्च में से खुदरा पर 18 लाख करोड़ रुपये व्यय होने का अनुमान है।
इसमें से 45 फीसदी हिस्सा शहरी इलाकों में खर्च होने का अनुमान है। बाकी हिस्सा गांवों में खर्च होने की उम्मीद है। अनुमान है कि वर्ष 2013 तक देश के शहरी और ग्रामीण रिटेल बाजार दोनों ही करीब 300 अरब डॉलर का हो जाएंगे। और अगर दोनों को मिलाकर बात करें तो भारतीय खुदरा बाजार 600 अरब डॉलर से ऊपर का होगा।
इसमें से आधुनिक रिटेल आज के समय में 65,000 करोड़ रुपये से भी कम का है, पर ऐसी उम्मीद है कि साल 2013 तक यह 4,00,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि देश में खुदरा उत्पादों पर जितना खर्च किया जाता है उसमें से लगभग आधा खर्च खाद्य और पेय पदार्थों पर होता है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि आने वाले दिनों में दूसरे खुदरा उत्पादों में विकास देखने को नहीं मिलेगा।
तय है कि मात्रा के लिहाज से और फीसदी में हिस्सेदारी के लिहाज से दोनों ही तरह से आने वाले वर्षों में दूसरे उत्पादों और सेवाओं का ग्राफ ऊपर चढ़ेगा। अगर पैसों के हिसाब से बात करें तो आज जितनी खपत हो रही है उसका एक बड़ा हिस्सा या यूं कहें कि ज्यादातर हिस्सा मध्यम और ऊंचे दर्जा खर्च करता है।
जो लोग या फिर यह कहना इससे बेहतर होगा कि ऐसे कारोबारी जो इस अर्थव्यवस्था के पिरामिड के निचले तबके को सेवा या उत्पाद मुहैया कराना चाहते हैं वे अर्थव्यवस्था की एक कड़वी सच्चाई से टकराते हैं कि इस निचले तबके के पास कारोबार की संभावनाएं नहीं हैं। हम ऐसा कैसे कह सकते हैं इसके लिए जरा इन आंकड़ों पर नजर दौड़ाते हैं।
आर्थिक शोध से जुड़े संस्थान एनसीएईआर के साल 2009 के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत 22.2 करोड़ घरों में से करीब 15.6 फीसदी (जिनकी सालाना आय 45,000 रुपये से कम है) यानी तकरीबन 3.5 करोड़ घर (लगभग 20 करोड़ भारतीय) बेहद निचले स्तर से ताल्लुक रखते हैं। वहीं करीब 8 करोड़ घर ऐसे हैं जिनकी सालाना आय 45,000 से 90,000 रुपये के बीच है।
विश्व बैंक ने गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजार रहे परिवारों का जो आंकड़ा पेश किया है उनमें अगर इन परिवारों को भी शामिल कर लिया जाए तो गलत नहीं होगा। 2009 में रिटेल में 436 अरब डॉलर की खपत होने का अनुमान है और इस खपत में निचले स्तर के घरों की हिस्सेदारी महज 5 फीसदी यानी करीब 90,000 करोड़ रुपये होने की उम्मीद है।
इस परिस्थिति को और गंभीर बनाने के लिए यह जोड़ना ही काफी होगा कि इस खपत में से महज 9 फीसदी हिस्सा ही (करीब 2 अरब डॉलर या 8,600 करोड़ रुपये) 5,500 शहरों में फैले शहरी भारत के लोग करेंगे, ऐसा अनुमान है। जबकि बचे 91 फीसदी (करीब 20 अरब डॉलर) की खपत 6,60,000 गांवों में होने का अनुमान है।
आखिर में हम यह देखेंगे कि निचले तबके के इन 3.5 करोड़ परिवार या फिर 20 करोड़ भारतीय जो 90,000 करोड़ रुपये खर्च करते हैं उनमें से 72 फीसदी खाने पर खर्च किया जाता है, 4 फीसदी तंबाकू और दूसरे धूम्रपानों पर, 7 फीसदी कपड़ों पर और करीब 8 फीसदी दूसरे जरूरी सामान पर किया जाता है। यानी अगर हम यह कहें कि कपड़े का बाजार महज 6,300 करोड़ रुपये और उपभोक्ता वस्तुओं का 7,200 करोड़ रुपये का है तो इसमें कोई गलती नहीं होगी।
लोग इनमें से अधिकांश हिस्सा भले ही खाने पर खर्च करते हों पर उसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि इस बाजार के बढ़ने की बहुत अधिक संभावनाएं हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश खाद्य पदार्थों को पीडीएस या फिर दूसरे सरकारी चैनलों के जरिए बेचा जाता है।
सबसे आखिर में यह बताना जरूरी है कि निचले तबके के परिवारों की ओर से जितनी ज्यादा बार खरीदारी की जाती है उतनी किसी और तबके के द्वारा नहीं की जाती, इस वजह से अगर यह कहें कि इस समूह तक पहुंचने के लिए अगर कोई संगठित प्रयास करें तो ट्रांजेक्शन खर्च काफी अधिक होगा तो या ज्यादा यह गलत नहीं है।
हालांकि कुछ ऐसे कारोबारी भी हैं जो यह दावा करते हैं कि उनकी सफलता का मूलमंत्र निचले तबके के लिए कारोबार करना ही रहा है पर यहां यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि ये अक्सर 3.5 करोड़ घरों को गरीब परिवारों में गिनते ही नहीं हैं। ये जब भी गरीब परिवारों का जिक्र करते हैं तो वे इस स्तर से ऊपर के लोगों का जिक्र कर रहे होते हैं।
निचले तबके के परिवारों को कभी भी दरकिनार कर के नहीं चला जा सकता है। जो इस अर्थव्यवस्था के पिरामिड के ऊपर मौजूद हैं वे इन 20 करोड़ भारतीयों को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इनकी संख्या काफी है और इस वजह से इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता बल्कि सच तो यह है कि इस तबके की सामाजिक-राजनीतिक शक्ति इतनी है कि इन्हें अलग रख कर नहीं चला जा सकता है।
इस वजह से जरूरी है कि कारोबार जगत मौजूदा समय में इस निचले तबके को कारोबारी संभावना के रूप में नहीं बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में समझें। आर्थिक सुधार की प्रक्रिया में इन्हें भी शामिल किया जाए यह जरूरी है। ऐसा तब हो सकेगा जब हम इनके रोजगार के बारे में सोचेंगे और इस तरह इनकी आय बढ़ सकेगी ताकि वे महज जरूरी सामान के उपभोक्ता ही न बने रहें बल्कि ग्राहक बन कर उभरें।